UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 6 Home or Family: As an Informal Agency of Education (गृह या परिवार: शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में)

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UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 6 Home or Family: As an Informal Agency of Education

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 6
Chapter Name Home or Family: As an Informal Agency of Education
(गृह या परिवार: शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में)
Number of Questions Solved 33
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 6 Home or Family: As an Informal Agency of Education (गृह या परिवार: शिक्षा के अनौपचारिक अभिकरण के रूप में)

विस्तृत उत्तरीय प्रशा

प्रश्न 1.
परिवार से आप क्या समझते हैं ? एक संस्था के रूप में परिवार के शैक्षिक महत्व को स्पष्ट कीजिए।
या
“गृह बालक की शिक्षा की प्रथम पाठशाला है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
बालक/बालिका की शिक्षा में गृह का क्या महत्त्व है ?
या
शिक्षा के अभिकरण के रूप में घर के महत्व पर प्रकाश डालिए।
या
शिक्षा के अभिकरण के रूप में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

गृह या परिवार का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Home or Family)

गृह या परिवार समाज का लघु रूप और सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख आधार है। व्यक्ति का समाजीकरण परिवार के माध्यम से ही होता है। मनुष्य शिशु के रूप में परिवार में जन्म लेता है, पालित-पोषित एवं विकसित होता है। शैक्षिक प्रक्रिया के अन्तर्गत सीखने की दृष्टि से शिशु अवस्था को आदर्श काल माना गया है। इस अवस्था के विकास में गृह या परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है। नि:सन्देह परिवार, शिक्षा का प्रभावशाली अभिकरण या साधन होने के कारण बालक की शिक्षा में प्राथमिक एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री पी० वी० यंग एवं मैक का विचार है, “परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव-समूह है। पारिवारिक ढाँचे का विशिष्ट स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न हो सकता है और होता है, पर सब जगह परिवार के मुख्य कार्य हैं-बच्चे का पालन करना और उसे समाज की संस्कृति से परिचित कराना–सारांश में उसका समाजीकरण करना।”

सामाजिक संगठनों में सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रमुख संगठन ‘परिवार’ है। यह समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है और सबसे अधिक मौलिक सामाजिक समूह भी है। एकांकी परिवार में सामान्यत: पति-पत्नी और उनके बच्चे होते हैं, जब कि संयुक्त परिवार में पति या पत्नी के माता-पिता, उनके अन्य भाई-बहन या दो-तीन पीढ़ियों के सदस्य एक साथ मिलकर रहते हैं।

‘परिवार’ शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर ‘Family’ शब्द ‘Famulus’ से बना है, जिसका अर्थ है’Servant’ नौकर। यही कारण है कि कुछ प्राचीन समाजों में नौकरों को भी परिवार का ही सदस्य माना जाता था।

गृह या परिवार की निम्नलिखित परिभाषाएँ इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं|

  1. क्लेयर के अनुसार, “परिवार से हम सम्बन्धों की वह व्यवस्था समझते हैं, जो माता-पिता और उनकी सन्तानों के बीच पायी जाती है।”
  2. मैकाइवर तथा पेज के मतानुसार, “परिवार उस समूह का नाम है जिसमें स्त्री-पुरुष का यौन सम्बन्ध पर्याप्त निश्चित हो और इनका साथ इतनी देर तक रहे जिससे सन्तान उत्पन्न हो जाए और उसका पालन-पोषण भी किया जाए।
  3. बील्स तथा हाइजर के कथनानुसार, “संक्षेप में, परिवार को सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य रक्त सम्बन्धों द्वारा बँधे रहते हैं।”

संस्था के रूप में परिवार का शैक्षिक महत्त्व
(Educational Importance of Family as Institution)

परिवार सदैव ही बालक पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है। बालक का जन्म, विकास और समाजीकरण परिवार से ही शुरू होता है। उसकी आधारभूत आवश्यकताएँ भी घर या परिवार से ही पूरी होती हैं। परिवार के वातावरण का प्रभाव बालक के विकास के सभी स्तरों पर पड़ता है। लॉरी का कथन है, “शैक्षिक इतिहास । के सभी स्तरों पर परिवार बालक की शिक्षा का प्रमुख साधन है।” अधिकांशत: बालक वैसा ही बनता है, जैसा उसका परिवार उसे बनाना चाहता है। अपने परिवार के सदस्यों का अनुकरण करके ही बच्चे अच्छे या बुरे गुण सीखते हैं। एक ओर जहाँ शिवाजी मराठा, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक आदि महापुरुषों का सदाचरण अपने परिवार की आदर्श पृष्ठभूमि पर आधारित था, वहीं दूसरी ओर एच० सी० एण्डरसन यह भी प्रमाण देते हैं, “हमारे अपराधियों में से 80 प्रतिशत अपराधी असहानुभूतिपूर्ण परिवारों से आते हैं।’

बालक की शिक्षा के सन्दर्भ में समाज की मौलिक संस्था परिवार का महत्त्व निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है–

1. शिक्षा की प्राचीनतम संस्था- प्राचीन समय में बालक के संस्था के रूप में परिवार का लालन-पालने, विकास तथा शिक्षा-दीक्षा के लिए परिवार ही शैक्षिक महत्त्व उत्तरदायी था। प्रागैतिहासिक काल से लेकर ईसा की, दसवीं सदी पूर्व शिक्षा की प्राचीनतम संस्था तक भारत में बालकों को व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिए परि विद्यालय नहीं थे, तब परिवार और विद्यालय अलग-अलग नहीं थे, अच्छी आदतों की शिक्षा और शिक्षा का कार्य परिवार द्वारा ही सम्पन्न किया जाता था। वस्तुतः उस समय परिवार ही विद्यालय था और माता-पिता गुरुजन। वैदिक व्यक्तित्व एवं संस्कृति का तथा उपनिषद् काल में परिवार का नेता अपने पुत्रों को वेद, साहित्य, विकास धर्म, व्यवसाय, कृषि, व्यापार आदि का ज्ञान देता था। इस प्रकार शिक्षा , व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र की प्राचीनतम संस्था के रूप में परिवार का बड़ा महत्त्व था।

2. परिवार का आश्रय एवं अनुकरण- मानव-शिशु जन्म से असहाय होता है। अपनी विभिन्न क्रियाओं; जैसे–खाना-पीना, चलना-फिरना, बोलना तथा जीवन के बहुत-से कार्यों के लिए बालक माता-पिता पर निर्भर करता है। वह इन सभी क्रियाओं को परिवारजनों के अनुकरण द्वारा ही सीखता है। इस भाँति, आश्रय एवं अनुकरण की दृष्टि से बालक के जीवन में परिवार का सर्वोपरि स्थान है।

3. अच्छी आदतों की शिक्षा- बालक को अच्छी आदतों की शिक्षा अपने घर-परिवार से ही मिलती है। परिवार के बीच में रहकर ही वह सत्य, न्याय, प्रेम, दया, करुणा तथा श्रम का महत्त्व सीखता है। इस बारे में। रेमॉण्ट का यह कथन उल्लेखनीय है, “घर ही वह स्थान है, जहाँ वे महान् गुण उत्पन्न होते हैं, जिनकी सामान्य विशेषता ‘सहानुभूति’ है। घर में ही घनिष्ठ प्रेम की भावनाओं का विकास होता है। यहीं बालक उदारता एवं अनुदारता, नि:स्वार्थ एवं स्वार्थ, न्याय एवं अन्याय, सत्य एवं असत्य, परिश्रम एवं आलस्य में अन्तर सीखता है। यहीं उसमें इनमें से कुछ की आदत सबसे पहले पड़ती है।” अच्छी आदत सिखाने की दृष्टि से परिवार का बहुत महत्त्व है।

4. बालक का समाजीकरण- सामाजिक दृष्टि से परिवार में ही बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया शुरू होती है। परिवार बालक को समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ढालता है। समाज में रहने-सहने, व्यवहार करने, सम्बोधन, जीवन-यापन एवं प्रतिक्रियाएँ करने के तरीके परिवार से ही सीखे जाते हैं। परिवार बालक के समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

5. व्यक्तित्व एवं संस्कृति का विकास- परिवार बालक के व्यक्तित्व एवं संस्कृति का निर्माता एवं ” पोषक है। व्यक्तित्व के प्रारम्भिक तथा मौलिक गुणों का निर्माण परिवार से होता है और मानव के व्यक्तित्व का परिचय परिवार की संस्कृति से प्राप्त होता है। सदरलैण्ड और वुडवर्थ ने लिखा है, “वास्तव में परिवार व्यक्तित्व के सामान्य प्रकार पर छाप लगा देता है। परिवार के अच्छे और बुरे संस्कारों का भी पर्याप्त प्रभाव बालक पर पड़ता है। जैसा कि बर्गेस और लॉक का कथन है, “परिवार बालक पर सांस्कृतिक प्रभाव डालने वाली एक मौलिक समिति है और पारिवारिक परम्परा बालक को उसके प्रति प्रारम्भिक व्यवहार, प्रतिमान एवं आचरण का स्तर प्रदान करती है।”

6. व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र- सामान्यत: परिवार ही समस्त आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र होता है। अत: अपने आरम्भिक जीवन में बालक आर्थिक दृष्टि से परिवार पर ही निर्भर करता है। आजकल उत्पादन 

का कार्य परिवार से बाहर चला गया है, किन्तु पहले यह परिवार के अन्तर्गत ही था और इसी कारण बालक के लिए व्यावसायिक शिक्षा का केन्द्र होता था। आज भी परिवार के आश्रय, प्रयासों तथा सहयोग द्वारा ही बालक आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बनने की शिक्षा प्राप्त करता है।

परिवार : बालकों की प्रथम पाठशाला
(Family: Child’s First School)

विश्व के सभी शिक्षाशास्त्रियों ने बालक की शिक्षा के सन्दर्भ में परिवार के महत्त्व को एकमत से स्वीकार किया है। आदि काल से आज तक बालक की शिक्षा को श्रीगणेश घर-परिवार के आँगन से होता आया है।

और परिवार की शिक्षा ने ही सदैव उसके संस्कारों पर अमिट छाप छोड़ी है। बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व, चरित्र, आचरण, व्यवहार, आदर्श एवं जीवन-मूल्यों का बीजारोपण उसकी शैशवावस्था में परिवार के माध्यम से होता है। मैजिनी कहते हैं, “बालक नागरिकता का सुन्दरतम् पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार से सीखता है।” महात्मा गांधी की दृष्टि में, “बालक को प्रथम पाँच वर्षों में जो शिक्षा प्राप्त होती है वह फिर कभी नहीं मिलती।” मॉण्टेसरी विद्यालय को ‘बालघर’ (Children’s Home) मानते हुए शिशु शिक्षा में परिवार के वातावरण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक स्वीकार करते हैं। पेस्टालॉजी का स्पष्ट विचार है, “घर ही शिक्षा का सर्वोत्तम साधन और बालक का प्रथम विद्यालय है।”

इस भाँति, निष्कर्ष रूप में परिवार का वातावरण ही बालक का भविष्य निर्धारित करता है और कुल मिलाकर यह चित्र उभरता है कि परिवार बालकों की प्रथम पाठशाला है। इसी के समर्थन में बोगाईस के शब्द यहाँ उद्धृत करने योग्य हैं, “परिवार-समूह मानव की प्रथम पाठशाला है। प्रत्येक व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सामान्य रूप से परिवार में ही प्रारम्भ होती है। बालक की शिक्षा-प्राप्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समय परिवार में ही व्यतीत होता है।”

प्रश्न 2.
परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
या
घर अथवा परिवार के शैक्षिक कार्यों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रसिद्ध विद्वान् ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने परिवार के सात कार्य निर्धारित किए हैं-धार्मिक, 
आर्थिक, शैक्षिक, पारिवारिक स्थिति, प्रेम सम्बन्धी, रक्षा सम्बन्धी तथा मनोरंजन सम्बन्धी। उन्होंने इन कार्यों में शैक्षिक कार्यों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है। पारिवारिक शिक्षा के कुछ महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किए जा सकते हैं–

परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य
(Main Educational Functions of Family)

1.शारीरिक विकास- शरीर का स्वास्थ्य और उसका समुचित विकास मनुष्य के जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। कहते हैं स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। अतः बालक के शारीरिक स्वास्थ्य एवं विकास हेतु पौष्टिक, सन्तुलित भोजन तथा नियमित दिनचर्या को प्रबन्ध किया जाना चाहिए। परिवार बालक के शारीरिक विकास हेतु पौष्टिक भोजन, वस्त्र, मनोरंजन, व्यायाम, खेलकूद, उचित वातावरण, चिकित्सा और विश्राम आदि की व्यवस्था करता है। इसीलिए परिवार का पहला शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य बालक का शारीरिक विकास है।

2. मानसिक विकास- परिवार का वातावरण बालक की मानसिक शक्तियों, रुचियों और प्रवृत्तियों के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि बालक की जिज्ञासा और कल्पना-शक्ति उसके मानसिक विकास की आधारशिला होती है। अत: परिवार का शैक्षिक दायित्व है कि वह यथोचित उत्तर के माध्यम से बालक की जिज्ञासा और उत्सुकता को शान्त करे, उनका दमन न करे। बौद्धिक विकास की दृष्टि से परिवार को भी चाहिए कि वह बालक को सर्वोत्तम एवं वांछित साहित्य सुलभ कराए। वस्तुतः बालक की निरीक्षण, परीक्षण, चिन्तन, कल्पना, विचार आदि मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण परिवार से ही शुरू हो जाता है।

3. भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास- गृह शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य बालक का भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास है। बालक में घर की सफाई तथा सौन्दर्यकरण द्वारा कलात्मक विषयों के प्रति रुचि जाग्रत की जानी चाहिए। साहित्य, संगीत और कला आदि में विशेष रुचि रखने वाले परिवार के बालकों में भावात्मकःप्रवृत्तियाँ आवश्यक रूप से मिलती हैं। इसके अलावा प्रत्येक समाज की संस्कृति के पालन, संरक्षण तथा हस्तान्तरण का पहला और सार्थक कार्य परिवार के माध्यम से ही सम्भव है। परिवार में रहते हुए बालक सहज और अनजाने ही संस्कृति को ग्रहण कर लेता है। अत: बालक के भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास हेतु घर का वातावरण सदाचरण से युक्त होना चाहिए।

4.चारित्रिक एवं नैतिक विकास- बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास की आधारशिला घर-परिवार में ही रखी जाती है। बालक में शुरू से ही अनुकरण करने की आदत होती है। अत: परिवार के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे बालक में उत्तम चरित्र और नैतिक मूल्यों के निर्माण हेतु सत्य, न्याय, प्रेम, दया, उदारता, सहानुभूति, सहिष्णुता, शिष्टाचार तथा श्रद्धा की भावना जगाएँ। सच तो यह है कि बालक के नैतिक-चरित्र की रूपरेखा विद्यालय जाने से पूर्व छोटी अवस्था में घर पर ही बन जाती है। अतः गृह-शिक्षा के माध्यम से बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

5. धार्मिक शिक्षा- धार्मिक शिक्षा के अभाव में बालक का पूर्ण नैतिक-चरित्र विकसित नहीं हो सकता। एक धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य होने के कारण हमारे देश में धार्मिक शिक्षा देने के लिए परिवार का शारीरिक विकास उत्तरदायित्व विशेष रूप से बढ़ गया है। घर में धर्म-ग्रन्थों को पढ़ने, मानसिक विकास धार्मिक कथाएँ सुनने, पूजा-अर्चना तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भावात्मक एवं सांस्कृतिक सम्मिलित होने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं, जिसके फलस्वरूप विकास बालक का धर्म में विश्वास एवं आस्था दृढ़ होती है। पारिवारिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास वातावरण से प्राप्त धार्मिक शिक्षा बालक को जीवन-पर्यन्त प्रभावित * धार्मिक शिक्षा । करती है। अतः परिवार को एक शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य धार्मिक आदत, रुचि एवं पसन्द का शिक्षा भी है। 

6. आदत, रुचि एवं पसन्द का विकास- बालक में सामाजिक भावना का विकास अच्छी-बुरी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों का विकास परिवार में ही व्यावसायिक विकास होता है। घर के सदस्यों की आदतों को देखकर बालक अनजाने ही व्यक्तित्व का विकास उन्हें ग्रहण कर लेता है। घर की सुन्दर व आकर्षक वस्तुओं में उसकी रुचि अधिक होती है। इसी भाँति बालक की अलग-अलग चीजों के प्रति पसन्दगी या नापसन्दगी भी पारिवारिक वातावरण पर निर्भर करती है। अत: यह आवश्यक है कि अच्छी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों के विकास हेतु अभिभावकगण अपने बच्चों के सम्मुख श्रेष्ठ उदाहरण ही प्रस्तुत करें।

7. सामाजिक भावना का विकास- परिवार एक छोटा-सा समाज है जो बालक को सामाजिक आदर्श एवं परम्पराओं के नमूने और आदर्श आचरण एवं व्यवहार के तरीके सिखाता है। परिवार के वातावरण में ही बालक को पहली बार सहयोग, सद्भावना, न्याय तथा अन्याय की अनुभूति होती है। स्पष्टतः परिवार ही बालक के सामाजिक जीवन का पहला शैक्षिक केन्द्र है, जहाँ उसमें अभीष्ट सामाजिक भावनाओं का विकास होता है।

8. व्यावसायिक विकास- गृह-शिक्षा का एक उद्देश्य एवं कार्य यह भी है कि वह बालक की व्यावसायिक रुचियों एवं अभिरुचियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर उसे उचित व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करे। वस्तुतः बालक की व्यावसायिक रुचियों व आकांक्षाओं की जितनी व्यापक जानकारी उसके परिवार के सदस्यों को हो सकती है, उतनी समाज की अन्य व्यावसायिक एवं प्रशिक्षण संस्थाओं को नहीं हो सकती। प्राचीनकाल में आयु बढ़ने के साथ-साथ बालके पैतृक व्यवसाय में हाथ बँटाकर प्रशिक्षण प्राप्त करता था और इस भाँति कुशलता प्राप्त कर लेता था।

9. व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, धार्मिक, नैतिक तथा सामाजिक आदि विभिन्न पक्षों का विकास परिवार के बीच रहकर ही होता है। बचपन में पड़ने वाले अच्छे संस्कारों का प्रभाव स्थायी होता है और यह बालक के व्यक्तित्व को सन्तुलित एवं सुन्दर बनाता है। वस्तुतः गृह शिक्षा बालक के व्यक्तित्व के भावी विकास का स्वरूप एवं दिशा निर्धारित करती है।

इस भाँति घर या परिवार ही वह प्रथम स्थान है, जहाँ बालक जीवन की अनेकानेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। गृह-शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य एवं कार्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है। रेमॉण्ट ने उचित  ही लिखा है, “सामान्य रूप से घर ही वह स्थान है जहाँ बालक अपनी माँ से चलना, बोलना, मैं और तुम में .. अन्तर करना और अपने चारों ओर की वस्तुओं के सरलतम गुणों को सीखता है।”

प्रश्न 3.
गृह-शिक्षा के मुख्य सिद्धान्तों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

गृह-शिक्षा के सिद्धान्त
(Principles of Home Education)

परिवार को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए निम्नलिखित सामान्य सिद्धान्तों पर विचार किया जा सकता है

1. शारीरिक विकास का सिद्धान्त- बालक के शारीरिक विकास का सीखने की क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अभिभावकों को शरीर विज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए ताकि बालक के शारीरिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जा सके। शरीर वैज्ञानिक मानते हैं कि बाल-जीवन के पहले 6 वर्षों में बच्चे के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। उसके सन्तुलित एवं पौष्टिक आहार, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, गृह-शिक्षा के सिद्धान्त स्वच्छ व हवादार आवास, चलने-फिरने, बोलने तथा व्यवहार के शारीरिक विकास का सिद्धान्त तौर-तरीकों पर भी ध्यान देना चाहिए। घर में बालक को शिक्षा देते समय शारीरिक विकास का सिद्धान्त अभिभावकों के लिए परमे। उपयोगी सिद्ध होता है।

2. बाल-मनोविज्ञान का सिद्धान्त- रूसो का कथन है, खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त बालक ऐसी पुस्तक है जिसे शिक्षक को आदि से अन्त तक पढ़ना पड़ता है। क्योंकि गृह-शिक्षा के सन्दर्भ में घर-परिवार के सदस्य ही शिक्षक की भूमिका निभाते हैं। अत: परिवार में माता-पिता और परिवार के अन्य वयस्क सदस्यों को बालमनोविज्ञान का ज्ञान अवश्य ही होना चाहिए। बाल-मनोविज्ञान के सिद्धान्त बालक की रुचियों, अभिरुचियों, आदतों, योग्यताओं, क्षमताओं, स्वभाव, भावनाओं तथा निर्माण आवश्यकताओं को समझने में अभिभावकों की भरपूर मदद करते हैं। इसके साथ ही, बाल-मनोविज्ञान का सिद्धान्त व्यावहारिक ज्ञान के सहज एवं स्वाभाविक विकास में योगदान देता है। वस्तुतः बालक की बुद्धि, मानसिक शक्तियों, प्रवृत्तियों तथा व्यक्तित्व की विशेषताओं के आधार पर ही उसकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की जा सकती है।

3. बाल-केन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त-आधुनिक शिक्षा प्रणाली बाल-केन्द्रित शिक्षा के विचार पर आधारित है। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा में अन्य तत्त्वों की अपेक्षा बालक को प्रमुखता दी जानी चाहिए। प्रायः अनुभव किया जाता है कि शिक्षा के सन्दर्भ में माता-पिता बालक की रुचि तथा अभिरुचि की अवहेलना कर अपनी ही इच्छा व आकांक्षा को थोपने का प्रयास करते हैं। इससे धन, शक्ति और समय का दुरुपयोग होता है। बाल-केन्द्रित शिक्षा का सिद्धान्त बालक की रुचि, योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार ही उसकी शिक्षा के प्रबन्ध पर बल देता है। अतः अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चे को बाल-केन्द्रित शिक्षा के सिद्धान्त पर आधारित शिक्षा ही दिलाएँ।

4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- बच्चों में जन्म से और स्वभावतः क्रियाशीलता की प्रवृत्ति पायी जाती ” है। वे कभी भी शान्त होकर नहीं बैठते, हमेशा ही कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। वस्तुत: बालक किसी काम को स्वयं करके शीघ्र और प्रभावशाली ढंग से सीख लेते हैं। अत: माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों की क्रियाशील प्रवृत्तियों का महत्त्व समझे और उनकी रचनात्मक क्रियाओं को अधिकाधिक प्रोत्साहित करें। क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप बालक की अन्त:शक्तियों का प्रकाशन होता है। स्पष्टत: क्रियाशीलता का सिद्धान्त ‘स्वयं करके सीखने के विचार पर आधारित एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

5. खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त- “खेल” बालक द्वारा आनन्दपूर्वक की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं का नाम है। यह बालक की एक सामान्य प्रवृत्ति है जो उसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सन्तुलन बनाती हुई उसके शारीरिक व मानसिक विकास में सहायता देती है। कर्मेन्द्रियों पर आधारित बालक की समस्त क्रियाशीलता का स्वतन्त्र अभिप्रकाशन खेल के माध्यम से होता है। निश्चय ही वह खेल के द्वारा। काफी कुछ सीखता है और अपनी रचनात्मक शक्तियों का विकास करता है। अभिभावकों को चाहिए कि वे घर-परिवार के अधिकांश कार्य बच्चों से खेल द्वारा कराएँ और इस भाँति उन्हें खेल-खेल में शिक्षित करने का प्रयास करें।

6. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त-बालक के सन्तुलित व्यक्तित्व-निर्माण तथा स्वाभाविक व सर्वांगीण विकास की दृष्टि से उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। इसके लिए परिवार में स्वतन्त्र वातावरण अपेक्षित है। बालक पर अनावश्यक एवं अनुचित बन्धन थोपने या अत्यधिक नियन्त्रण लगाने के फलस्वरूप उसमें हीनता की ग्रन्थियाँ बन जाती हैं और उसका व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है। वह धीरे-धीरे उद्दण्ड और विद्रोही प्रकृति का बनकर अपने भावी जीवन को खराब कर लेता है। अत: गृह-शिक्षा के अन्तर्गत माता-पिता को बालकों की स्वतन्त्रता का समुचित ध्यान रखना चाहिए।

7. आत्मानुशासन का सिद्धान्त अनुशासन के सभी प्रकारों में आत्मानुशासन श्रेष्ठ है। आत्मानुशासन के अन्तर्गत बालक अपनी प्रवृत्तियों, इच्छाओं, क्रियाओं तथा निज के व्यवहार पर स्वयं ही नियन्त्रण रखने का प्रयास करते हैं। स्वशासन व स्वव्यवस्था का प्रशिक्षण मिलने पर वे आवश्यकतानुसार अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सफलता प्राप्त करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार परिवार में माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को छोटी-छोटी गलतियों पर डाँटने या सजा देने के बदले उन्हें प्यार से समझाएँ। परिवार के क्रियाकलापों में बालकों का सहयोग लेने की दृष्टि से उन्हें जिम्मेदारी के कुछ कार्य भी सौंपे जाने चाहिए।

8. सहानुभूति का सिद्धान्त- घर में अभिभावकों को सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार बच्चों को अपने माता-पिता के अधिक निकट लाता है। अतः बालक के प्रति घर के सदस्यों का व्यवहार हमेशा ही सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। माता-पिता से भयभीत और अलग रहने वाले बच्चे अपने कष्टों और कठिनाइयों को उनके सामने रखने से सकुचाते हैं और परिणामस्वरूप मानसिक उलझनों व ग्रन्थियों के शिकार हो जाते हैं। सहानुभूति का सिद्धान्त बात-बात पर बच्चों को अपमानित या लांछित करने का विरोधी और उन्हें अधिकाधिक लाड़-प्यार एवं स्नेह देने का प्रबल समर्थक है।

9. निष्पक्ष व्यवहार का सिद्धान्त- माता-पिता को घर के सभी बच्चों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। पक्षपातपूर्ण व्यवहार का बालक के व्यक्तित्व एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा और प्रतिकूल असर पड़ता है। आवश्यक रूप से घर के प्रत्येक बच्चे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जाए और सभी बच्चों को समान महत्त्व प्रदान किया जाए। घर के किसी बच्चे के साथ असमान व्यवहार करने में वह स्वयं को हीन एवं उपेक्षित समझने लगता है, जिससे उसके व्यक्तित्व का सही विकास रुक जाता है। स्पष्टत: अभिभावकों का परम कर्तव्य है कि वे बच्चों के साथ पक्षपातरहित व्यवहार करें।

10. उत्तम चरित्र एवं आदतों का निर्माण- मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि बालक सदैव अनुकरण से सीखते हैं। परिवार के सदस्यों को देखकर वे अच्छी और बुरी आदतों का अनुकरण करते हैं। बालक के चरित्र व आदतों में ही उसके भविष्य की सफलता का रहस्य छिपा है। अत: माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि बालक में उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ आदतों का निर्माण हो। इसके लिए बालकों के समक्ष परिवार में नैतिकता, सदाचार, स्वच्छता तथा सामाजिक जीवन के आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किए जाएँ।

प्रश्न 4.
गृह-शिक्षा के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

गृह-शिक्षा की विधियाँ
(Methods of Home Education)

घर-परिवार को शिशु की प्रथम पाठशाला माना जाता है। घर पर रहकर ही शिशु हर प्रकार का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करता है। स्पष्ट है कि बच्चे की शिक्षा में घर-परिवार द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। अब प्रश्न उठता है कि गृह-शिक्षा को सुचारु एवं उत्तम बनाने के लिए किन विधियों को अपनाया जाता है। गृह-शिक्षा के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. खेल-विधि-गृह- शिक्षा में खेलों का विशिष्ट स्थान है। खेलों में बालक की जन्मजात एवं सहज रुचि होती है। खेल द्वारा आत्म-प्रकाशन का उचित अवसर मिलता है और इसके माध्यम से बच्चे अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं का अधिकतम अभिप्रकाशन कर सकते हैं। यही नहीं, खेल बालक के. समाजीकरण का प्रभावशाली साधन भी हैं। खेल में बालक पास-पड़ोस के बच्चों के सम्पर्क में आता है और उनसे अच्छी-अच्छी बातें सीखता है। खेलों द्वारा दी गई शिक्षा सरल एवं स्वाभाविक होती है।

अतः शुरू से ही घर के बच्चों को खेल-विधि द्वारा शिक्षा देने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिए। माता-पिता का दायित्व है। कि वे अपने परिवार में भाँति-भाँति के खेलों का आयोजन कर बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें। एक ओर जहाँ खेलों द्वारा बालक को मौलिकता, सहयोग, सद्भाव, भाई-चारा, परोपकार तथा आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी जा सकती है, वहीं दूसरी ओर परिवार में खेल के माध्यम से कहानियाँ, इतिहास, वर्णमाला तथा गिनती का ज्ञान भी आसानी से कराया जा सकता है। आजकल शिशुओं को मॉण्टेसरी व किण्डरगार्टन शिक्षा-पद्धतियों द्वारा मनोवैज्ञानिक आधार पर खेल-विधि द्वारा ही उत्तम शिक्षा दी जाती है।

2. कहानी-विधि-छोटे बच्चे कहानी सुनना पसन्द करते हैं। कहानी के माध्यम से उनकी कल्पना, विचार एवं तर्क-शक्ति का विकास होता है। पुराने जमाने से ही बड़े-बड़े लोग घर के बच्चों को धार्मिक, पौराणिक तथा शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाते आए हैं जो बालक के ज्ञान, गह-शिक्षा की विधियाँ सामाजिक व नैतिक गुणों के विकास में मदद देती हैं। कहानियाँ छोटी, रोचक और आयु के अनुसार होनी चाहिए।

3. अभ्यास-विधि-सीखने में अभ्यास का विशेष महत्त्व है।” अभ्यास-विधि बालक को कोई क्रिया सिखाने के लिए उसे बार-बार करने का अवसर देना चाहिए। इस भाँति निरन्तर अभ्यास द्वारा बालक के मानसिक विचार दृढ़ एवं स्थायी हो जाते हैं। अभ्यास-विधि केइन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि अन्तर्गत एक ही क्रिया को दोहराने में बालक को आनन्द आता है और वह उस कार्य को अच्छी प्रकार से सीख लेता है। गणित एवं संगीत की शिक्षा में अभ्यास-विधि अतीव उपयोगी सिद्ध हुई है। इसके अलावा मन्द बुद्धि बालकों के लिए इसे सर्वोत्तम विधि माना गया है।

4. साहचर्य-विधि-साहचर्य-विधि के अन्तर्गत बालक की “ शिक्षा-सम्बन्धी क्रियाओं को उसके ‘आनन्दमयपूर्व अनुभवों से सम्बन्धित किया जाता है। किसी कार्य को सीखने के लिए उसके प्रति बालक की रुचि जाग्रत होना आवश्यक है और आनन्ददायक कार्य या अनुभव में बालक की रुचि होना स्वाभाविक है। अत: साहचर्य विधि द्वारा बालक कार्य में रुचि प्रदर्शित कर उसे आसानी से सीख लेते हैं। बालक में सहयोग, भाईचारा, अनुशासन तथा सामाजिक गुणों का विकास करने हेतु यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। वस्तुत: घर-परिवार में बालक साहचर्य द्वारा बहुत-से अच्छे कार्य सीख लेता है।

5. उत्तरदायित्व-विधि-जैसे- जैसे बच्चा बड़ा और समझदार होता जाता है, कहे गए कार्य को पूरा करने में आनन्द अनुभव करने लगता है। जिम्मेदारी या उत्तरदायित्व की भावना बालक में उत्साह, आत्मविश्वास तथा कार्यकुशलता का विचार जाग्रत करती है। माता-पिता को चाहिए कि वे उपयुक्त अवसर जानकर बालक को छोटे-मोटे कार्य की जिम्मेदारी अवश्य सौंपे। जिम्मेदारी के काम को बालक अविलम्ब और प्रभावशाली ढंग से सफलतापूर्वक करने का प्रयास करता है। कार्य की सफलता उसे अभिप्रेरित करती है। गृह-शिक्षा के दौरान बच्चे को पहले छोटे और शनैः-शनै: बड़े कार्यों का उत्तरदायित्व सौंपना अत्यन्त हितकर ,

6. इन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि- बालक की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का उसकी शिक्षा में विशेष योगदान रहता है। बालक को बाह्य जगत् की जानकारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही मिलती है। ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान का प्रवेश द्वार कहलाती हैं और इनकी कार्यकुशलता से वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षाशास्त्री बालक को शुरू से ही दृष्टि, स्पर्श, श्रवण, स्वाद तथा घ्राण सम्बन्धी ज्ञानेन्द्रियों का विशिष्ट प्रशिक्षण देने का परामर्श देते हैं। बालक की कर्मेन्द्रियों का विकास भी बालपन की आरम्भिक स्थिति से होना चाहिए। भाँति-भाँति की शैक्षिक प्रविधियों को प्रयोग कर बालक को शारीरिक अंगों को मस्तिष्क से सन्तुलन सिखाया जाए। इसके अलावा परिवार में विविध रंग तथा ध्वनि वाले खिलौने और शैक्षिक उपकरण होने आवश्यक हैं, जिनकी सहायता से बालक की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के बीच मधुर सामंजस्य स्थापित किया जा सके।

7. निर्देश-विधि- बालक को कुछ जीवनोपयोगी बातों; जैसे-सदैव सत्य बोलना, बड़ों की आज्ञा मानना, सभी का आदर करना, चोरी न करना आदि का सीधे-सीधे निर्देश देना पड़ता है। माता-पिता यदि अच्छी बातों व आदर्श कार्यों को करने का बच्चों को निर्देश देंगे तो बच्चे अवश्य ही अनुकूल व्यवहार करेंगे। अत: गृह-शिक्षा में निर्देश विधि भी अत्यन्त उपयोगी है।

8.करके सीखने की विधि- जब बच्चे अपनी रुचि के अनुकूल कार्य को स्वयं करते हैं तो वे न केवल अधिक अच्छा महसूस करते हैं, बल्कि उत्साहित भी होते हैं। स्वयं या परिवार से सम्बन्धित सामान्य समस्याओं को अपने निजी प्रयास से हल करने से बालकों में आत्मविश्वास तथा अभिप्रेरणा का विकास होता है। उनमें प्रतिदिन अच्छे कार्य करने की आदत पड़ती है और वे अधिकांश कार्य सीख जाते हैं। अत: परिवार में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जानी चाहिए, जिससे बालक स्वयं कार्य करके सीखने के लिए प्रेरित हो सके।

9. भाषा द्वारा शिक्षा- भाषा गृह-शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विधि है। भाषा द्वारा भावनाओं को अभिव्यक्ति मिलती है। बच्चे विभिन्न ध्वनियों द्वारा अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं। यही नहीं, वे ध्वनि सुनकर उत्तेजित भी होते हैं और लगातार शब्दों की ध्वनि सुनकर पुन: उसके अनुकरण का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में बच्चों को भाषा का ज्ञान अनुकरण द्वारा ही होता है। माता-पिता बच्चे के सम्मुख बहुत-से शब्द उच्चारित करते हैं, जिनका अनुकरण करके वह शुद्ध बोलना सीखता है। कुछ समय तक अभ्यास करके बालक का भाषा के बोलने व लिखने पर अधिकार हो जाता है। स्पष्टतः भाषा द्वारा शिक्षा परिवार के सदस्य ही प्रदान करते हैं।

10. संगीत द्वारा शिक्षा- बच्चे विशेषतः संगीत की ओर आकर्षित होते हैं और इसके परिणामस्वरूप उनके भाषा-ज्ञान में पर्याप्त वृद्धि होती है। प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि भाव-गीतों के साथ-साथ अभिनय से बालक का शारीरिक, मानसिक व सांवेगिक विकास होता है। किसी विषय-वस्तु को गीत रूप में याद करने में वह जल्दी ही याद हो जाती है। यही कारण है कि प्राइमरी स्तर पर शिशुओं को वर्णमाला, गिनती या पहाड़ों का ज्ञान गीतों के माध्यम से कराया जाता है। फ्रॉबेल ने अपनी किण्डरगार्टन प्रणाली में गीतों को उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बालक की शिक्षा में घर-परिवार के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

बालक की शिक्षा में घर-परिवार का योगदान
(Contribution of Family in Child’s Education)

बालक की शिक्षा की प्रक्रिया घर-परिवार से ही प्रारम्भ होती है। शिक्षा अपने आप में एक अत्यधिक व्यापक एवं बहुपक्षीय प्रक्रिया है। शिक्षा की प्रक्रिया के प्रत्येक पक्ष में घर-परिवार का सर्वाधिक योगदान है। सर्वप्रथम हम कह सकते हैं कि बालक को भाषा का ज्ञान परिवार द्वारा ही प्रदान किया जाता है। भाषा का ज्ञान औपचारिक शिक्षा अर्जित करने के लिए अनिवार्य शर्त है। शिक्षा के लिए शिष्टाचार एवं अच्छी आदतों की भी आवश्यकता होती है। परिवार इस कार्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार ही बालक की आदतों, रुचियों एवं कुछ अभिवृत्तियों के विकास में आधारभूत योगदान प्रदान करता है। शिक्षा के लिए बालक का शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास भी आवश्यक होता है।

विकास के इन विभिन्न पक्षों में घर-परिवार का उल्लेखनीय योगदान होता है। शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी है। बालक की व्यावसायिक शिक्षा में भी घर-परिवार द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया जाता है। पारम्परिक रूप से प्रत्येक परिवार का कोई-न-कोई पारिवारिक व्यवसाय होता था। इस दशा में परिवार के बालक स्वाभाविक रूप से ही अपने पारिवारिक व्यवसाय के प्रति उन्मुख हो जाते थे तथा उन्हें परिवार में अपने व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता था। आज भी परिवार का वातावरण बालक के व्यवसाय-वरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन सबके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि बालक की सम्पूर्ण औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था में भी परिवार का विशेष योगदान होता है।

प्रश्न 2.
घर को शिक्षा का पभावशाली अभिकरण कैसे बनाया जा सकता है?
उत्तर:
निःसन्देह घर-परिवार बालक की शिक्षा का एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। शिक्षा के इस अभिकरण को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। सर्वप्रथम घर-परिवार को चाहिए कि वह बालक के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सांस्कृतिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर समुचित ध्यान दें। इसके लिए हरै सँम्भव उपाय किया जाना चाहिए। परिवार द्वारा बच्चों को समुचित धार्मिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। परिवार को बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास का ध्यान रखना चाहिए। इसके साथ-ही-साथ घर-परिवार को विद्यालय के साथ पूर्ण सहयोग रखना चाहिए। वास्तव में परिवार द्वारा शिक्षा की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया जाता है तथा विद्यालय द्वारा उसे विस्तृत रूप दिया जाता है। इस स्थिति में परिवार का सहयोग अति उपयोगी सिद्ध होता है। यदि परिवार द्वारा इन सब बातों को ध्यान में रखा जाता है तो निश्चित रूप से घर-परिवार बालक की शिक्षा का एक अधिक प्रभावशाली अभिकरण बन सकता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. स्पष्ट कीजिए कि परिवार ही बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है।
उत्तर:
परिवार बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है। आदिम काल में जब सभ्यता का कुछ भी विकास नहीं हुआ था तब भी बालक को प्रशिक्षित करने का कार्य परिवार द्वारा ही किया जाता था। बच्चों को शिकार करने, कन्द-मूल खोजने, शत्रु से मुकाबला करने के दाँव-पेंच परिवार द्वारा ही सिखाए जाते थे। वर्तमान विद्यालयों के विकास से पूर्व भी हर प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था परिवार द्वारा ही की जाती थी। स्पष्ट है कि परिवार ही बालक की शिक्षा की प्राचीनतम संस्था है।

प्रश्न 2.
बच्चों को शिक्षित करने के दृष्टिकोण से उनके प्रति माता-पिता का व्यवहार कैसा होना 
चाहिए?
उत्तर:
माता-पिता का एक मुख्य दायित्व है:-बच्चों को उचित ढंग से शिक्षित करना तथा शिक्षा की 
ओर उन्मुख करना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए माता-पिता को बच्चों के प्रति सदैव सन्तुलित एवं निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों की रुचि, योग्यता एवं क्षमता आदि को जानने का प्रयास करना चाहिए तथा उन्हीं के अनुसार बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही बच्चों की क्षमताओं एवं रुचियों को उचित दिशा में विकसित करने के भी प्रयास करने चाहिए। परिवार का कोई बच्चा यदि दुर्भाग्यवश किसी क्षेत्र में पिछड़ा हुआ हो तो उस बालक के प्रति विशेष ध्यान देना चाहिए। उसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए तथा उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को सदैव आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान करते रहे। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है। कि बच्चों को समुचित स्वतन्त्रता प्रदान करके अनुशासन में रहना सिखाया जाए।

प्रश्न 3.
स्पष्ट कीजिए कि बच्चों में मानवीय मूल्यों के विकास में परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है।
उत्तर:
बच्चों में मानवीय मूल्यों की स्थापना में परिवार का सर्वाधिक योगदान होता है। बच्चा अपने पिता से न्याय, माता से नि:स्वार्थ प्रेम तथा भाई-बहनों से भ्रातृत्व-भाव की शिक्षा लेता है। जब बच्चा बड़ा होकर समझदार बनता है तो वह अपने परिवारजनों को परस्पर सहयोग देते हुए देखता है। वह इन सभी से सहयोग की शिक्षा ग्रहण करता है। बच्चा अपने घर में ही क्षमा, सच्चाई, सहानुभूति, उदारता तथा परिश्रम के महत्त्व को समझता है। इसके अतिरिक्त बच्चे अपने परिवार से ही परोपकार के मूल्य को सीखते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि बच्चों के मानवीय मूल्यों का सर्वाधिक विकास परिवार के द्वारा ही होता है।

प्रश्न 4.
गृह-शिक्षा की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
घर बच्चों की शिक्षा की महत्त्वपूर्ण संस्था है। घर एवं परिवार द्वारा बच्चों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। इस स्थिति में गृह-शिक्षा के अन्तर्गत विभिन्न विधियों को अपनाया जाता है। गृह-शिक्षा के लिए अपनाई जाने वाली मुख्य विधियाँ अग्रलिखित हैं

  • खेल-विधि।
  • कहानी-विधि।
  • अभ्यास-विधि।
  • साहचर्य-विधि।
  • उत्तरदायित्व-विधि।
  • इन्द्रिय-प्रशिक्षण-विधि।
  • निर्देश-विधि।
  • करके सीखने की विधि।
  • भाषा द्वारा शिक्षा।
  • संगीत द्वारा शिक्षा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बच्चे की शिक्षा की प्रक्रिया सर्वप्रथम किस संस्था द्वारा प्रारम्भ होती है ?
उत्तर:
बच्चे की शिक्षा की प्रक्रिया सर्वप्रथम परिवार नामक संस्था द्वारा प्रारम्भ होती है।

प्रश्न 2.
बालक की प्रथम पाठशाला कौन-सी है? ।
उत्तर:
बालक की प्रथम पाठशाला घर-परिवार है।

प्रश्न 3.
“परिवार समूह ही प्रथम मानवीय विद्यालय है, परिवार में प्रत्येक व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सामान्यतया आरम्भ होती है। बालक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय परिवार में ही बीतता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
बोगास का।

प्रश्न 4.
“माताएँ आदर्श अध्यापिकाएँ हैं और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और स्वाभाविक है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन फ्रॉबेल का है।

प्रश्न 5.
आपके मतानुसार बच्चों के शिक्षण की प्राचीनतम संस्था कौन-सी है ?
उत्तर:
बच्चों के शिक्षण की प्राचीनतम संस्था परिवार है।

प्रश्न 6.
बच्चों के सामान्य विकास तथा व्यावहारिक शिक्षा में सर्वाधिक योगदान किसका होता है?
उत्तर:
बच्चों के सामान्य विकास तथा व्यावहारिक शिक्षा में सर्वाधिक योगदान परिवार का ही होता है।

प्रश्न 7.
“बालक नागरिकता का सुन्दरतम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार से सीखता है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
प्रस्तुत कथन मैजिनी का है। प्रश्न 8 आपके विचार से गृह-शिक्षा किस प्रकार की होनी चाहिए? उत्तर हमारे विचार से गृह-शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिए।

प्रश्न 9.
बच्चों को उत्तरदायित्व वहन करने की शिक्षा किस प्रकार से दी जा सकती है?
उत्तर:
बच्चों को छोटे-छोटे घरेलू कार्य सौंपकर उत्तरदायित्व वहन करने की शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

प्रश्न 10.
गृह-शिक्षा के अन्तर्गत बच्चे विभिन्न कार्यों को सर्वाधिक किस विधि द्वारा सीखते हैं ?
उत्तर:
गृह-शिक्षा के अन्तर्गत बच्चे विभिन्न कार्यों को करना सर्वाधिक अनुकरण विधि द्वारा सीखते हैं।

प्रश्न 11.
बच्चों के नैतिक विकास के लिए गृह-शिक्षा के अन्तर्गत किस विधि को अपनाना चाहिए?
उत्तर:
कहानी विधि को अपनाकर बच्चों का समुचित नैतिक विकास किया जा सकता है।

प्रश्न 12.
परिवार बच्चे को शिक्षा देता है—
(i) औपचारिक,
(i) अनौपचारिक।
उत्तर:
परिवार बच्चे को अनौपचारिक शिक्षा देता है।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. गृह बच्चों की प्रथम पाठशाला है।
  2. गृह शिक्षा का एक औपचारिक अभिकरण है।
  3. परिवार बच्चों की शिक्षा का एक निष्क्रिय अभिकरण है।
  4. बालक का समाजीकरण परिवार में नहीं होता है।
  5. बालक के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव माता का पड़ता है।

उत्तर:

  1. सत्य,
  2. असत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-
प्रश्न 1.
बालक की शिक्षा का मुख्यतम अनौपचारिक अभिकरण है
(क) मित्र-मण्डली
(ख) परिवार
(ग) पास-पड़ोस
(घ) धार्मिक स्थल

प्रश्न 2.
गृह यो परिवार शिक्षा के किस अभिकरण के उदाहरण हैं?
(क) औपचारिक अभिकरण
(ख) अनौपचारिक अभिकरण
(ग) सक्रिय अभिकरण
(घ) निष्क्रिय अभिकरण

प्रश्न 3.
बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावात्मक तथा सांस्कृतिक विकास में सर्वाधिक योगदान किया जाता है
(क) प्राथमिक विद्यालय द्वारा
(ख) मित्रों एवं साथियों द्वारा
(ग) परिवार द्वारा।
(घ) राज्य द्वारा

प्रश्न 4.
गृह अथवा परिवार का शैक्षिक दायित्व या कार्य नहीं है
(क) दैनिक जीवन से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान करना
(ख) शारीरिक, मानसिक एवं धार्मिक विकास में योगदान देना।
(ग) शैक्षिक योग्यता एवं अर्जित ज्ञान का प्रमाण-पत्र प्रदान करना
(घ) उपर्युक्त सभी कार्य

प्रश्न 5.
बच्चों को अनौपचारिक शिक्षा प्रदान करते समय अभिभावकों को ध्यान रखना चाहिए
(क) बच्चों को न तो कठोर अनुशासन में रखना चाहिए और न ही पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए
(ख) शिक्षा सदैव बच्चों की रुचि, योग्यता तथा क्षमता के अनुसार हो
(ग) परिवार को बच्चों के प्रति कोई पक्षपात या पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए
(घ) उपर्युक्त सभी बातें.

प्रश्न 6.
परिवार द्वारा बच्चों को दी जाती है
(क) आज्ञापालन एवं कर्तव्यपालन की शिक्षा
(ख) सहयोग एवं अन्य सद्गुणों की शिक्षा
(ग) शारीरिक स्वास्थ्य के नियमों की शिक्षा
(घ) उपर्युक्त सभी प्रकार की शिक्षा

प्रश्न 7.
गृह-शिक्षा के लिए अपनाई जाती है
(क) अनुकरण विधि
(ख) निर्देश विधि
(ग) उत्तरदायित्व विधि
(घ) उपर्युक्त सभी विधियाँ

प्रश्न 8.
गृह-शिक्षा की उस विधि को क्या कहते हैं जिसके अन्तर्गत बालक परिवार के अन्य सदस्यों को देखकर किसी कार्य को करना सीख लेते हैं?
(क) अभ्यास विधि
(ख) निर्देश विधि।
(ग) उत्तरदायित्व विधि
(घ) अनुकरण विधि

प्रश्न 9.
“घर ही शिक्षा का सर्वोत्तम साधन और बालक का प्रथम विद्यालय है।”यह कथन किसका है?
(क) पेस्टालॉजी
(ख) बोगास
(ग) फ्रॉबेल
(घ) महात्मा गांधी

प्रश्न 10.
समाज की कौन-सी प्रथम शिक्षा संस्था है?
(क) पुस्तकालय
(ख) गृह
(ग) विद्यालय
(घ) संग्रहालय

उत्तर:

  1. (ख) परिवार,
  2. (ख) अनौपचारिक अभिकरण,
  3. (ग) परिवार द्वारा,
  4. (ग) शैक्षिक योग्यता एवं अर्जित ज्ञान का प्रमाण-पत्र प्रदान करना,
  5. (घ) उपर्युक्त सभी बातें,
  6. (घ) उपर्युक्त सभी प्रकार की शिक्षा,
  7. (घ) उपर्युक्त सभी विधियाँ,
  8. (घ) अनुकरण विधि,
  9. (क) पेस्टालॉजी,
  10. (ख) गृह।

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