UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 रामधारी सिंह दिनकर

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 6 रामधारी सिंह दिनकर

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कवि का साहित्यिक परिचय और कृतिया

प्रश्न 1.
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन-परिचय और साहित्यिक प्रदेय पर प्रकाश डालिए। [2009]
था
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए। [2010, 11]
था
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का साहित्यिक परिचय दीजिए एवं उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए। [2012, 14, 15, 16, 17, 18]
उतर
जीवन-परिचय-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 30 सितम्बर, 1908 ई० ( संवत् 1965 वि० ) को जिला मुंगेर (बिहार) के सिमरिया नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रवि सिंह और माता का नाम श्रीमती मनरूपदेवी था। इनकी दो वर्ष की अवस्था में ही पिता का देहावसान हो गया; अत: बड़े भाई वसन्त सिंह और माता की छत्रछाया में ही ये बड़े हुए। इनकी आरम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। अपने विद्यार्थी जीवन से ही इन्हें आर्थिक कष्ट झेलने पड़े। विद्यालय के लिए घर से पैदल दस मील रोज आना-जाना इनकी विवशता थी। इन्होंने मैट्रिक (हाईस्कूल) की परीक्षा मोकामा घाट स्थित रेलवे हाईस्कूल से उत्तीर्ण की और हिन्दी में सर्वाधिक अंक प्राप्त करके ‘भूदेव’ स्वर्णपदक जीता। 1932 ई० में पटना से इन्होंने बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। ग्रामीण परम्पराओं के कारण दिनकर जी का विवाह किशोरावस्था में ही हो गया। अपने पारिवारिक दायित्वों के प्रति दिनकर जी जीवन भर सचेत रहे और इसी कारण इन्हें कई प्रकार की नौकरी करनी पड़ी। सन् 1932 ई० में बी० ए० करने के बाद ये एक नये स्कूल में अध्यापक बने। सन् 1934 ई० में इस पद को छोड़कर सीतामढ़ी में सब-रजिस्ट्रार बने। सन् 1950 ई० में बिहार सरकार ने इन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी-विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया। सन् 1952 ई० से सन् 1963 ई० तक ये राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गये। इन्हें केन्द्रीय सरकार की हिन्दी-समिति को परामर्शदाता भी बनाया गया। सन् 1964 ई० में ये भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने।।

दिनकर जी को कवि-रूप में पर्याप्त सम्मान मिला। ‘पद्मभूषण’ की उपाधि, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार, द्विवेदी पदक, डी० लिट् की मानद उपाधि, राज्यसभा की सदस्यता आदि इनके कृतित्व की राष्ट्र द्वारा स्वीकृति के प्रमाण । सन् 1972 ई० में इन्हें उर्वशी’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया। इनका स्वर्गवास 24 अप्रैल, 1974 ई०( संवत् 2031 वि०) को मद्रास (चेन्नई) में हुआ।

साहित्यिक सेवाएँ–दिनकर जी की सबसे प्रमुख विशेषता उनकी परिवर्तनकारी सोच रही है। उनकी कविता का उद्भव छायावाद युग में हुआ और वह प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि के युगों से होकर गुजरी। इस दीर्घकाल में जो आरम्भ से अन्त तक उनके काव्य में रही, वह है उनका राष्ट्रीय स्वर। ‘दिनकर’ जी राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक रहे हैं। इन्होंने देशानुराग की भावना से ओत-प्रोत, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति की भावना से परिपूर्ण तथा क्रान्ति की भावना जगाने वाली रचनाएँ लिखी हैं। ये लोक के प्रति निष्ठावान, सामाजिक दायित्व के प्रति सजग तथा जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि रहे हैं।

कृतियाँ-दिनकर जी की साहित्य विपुल है, जिसमें काव्य के अतिरिक्त विविध-विषयक गद्य-रचनाएँ भी हैं। इनकी प्रमुख
काव्य-रचनाएँ—(1) रेणुका, (2) हुंकार, (3) कुरुक्षेत्र तथा (4) उर्वशी हैं। इनके अतिरिक्त दिनकर जी के अन्य काव्यग्रन्थ निम्नलिखित हैं(5) खण्डकाव्य-रश्मिरथी, (6) कविता-संग्रह–(i) रसवन्ती, (ii) द्वन्द्वगीत, (iii) सामधेनी, (iv) बापू, (v) इतिहास के आँसू, (vi) धूप और धुआँ, (vii) नीम के पत्ते, (viii) नीलकुसुम, (ix) चक्रवाल, (x) कविश्री, (xi) सीपी और शंख, (xii) परशुराम की प्रतीक्षा, (xiii) स्मृति-तिलक, (xiv) हारे को हरिनाम आदि, (7) बालसाहित्य-धूप-छाँह, मिर्च का मजा, सूरज को ब्याह।
साहित्य में स्थान–दिनकर जी की सबसे बड़ी विशेषता है, उनका समय के साथ निरन्तर गतिशील रहना। यह उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व और ज्वलन्त प्रतिभा का परिचायक है। फलत: गुप्त जी के बाद ये ही राष्ट्रकवि पद के सच्चे अधिकारी बने और इन्हें ‘युग-चरण’, ‘राष्ट्रीय-चेतना का वैतालिक’ और ‘जनजागरण का अग्रदूत’ जैसे विशेषणों से विभूषित किया गया। ये हिन्दी के गौरव हैं, जिन्हें पाकर सचमुच हिन्दी कविता धन्य हुई।

‘पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोचर

पुरवा प्रश्न–दिए गए पद्यांश को पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

प्रश्न 1.
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ ।
पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रहा है।
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।
सिन्धु-सा उद्द्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है ?
गूंजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकारे,
उस अटल संकल्प का सम्बल कहाँ है ?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएँ,
सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,
मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
काँपता है कुंडली मारे समय का व्याल,
मेरी बाँह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन’चलाता हूँ।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) राजा पुरूरवा किससे अपने मन की दुविधाग्रस्त स्थिति का वर्णन कर रहे हैं?
(iv) ऐसा क्या है जो राजा पुरूरवा को उर्वशी जैसी रूपसी के पास होने पर भी कामना पूरी करने पर रोक रहा है?
(v) हे उर्वशी! मैं अपने समय का सूर्य हूँ।” इस बात का क्या आशय है?
उत्तर
(i) ये पंक्तियाँ महाकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित नाटकीय महाकाव्य ‘उर्वशी’ के तृतीय अंक से हमारी पाठ्य-पुस्तक काव्यांजलि’ में संकलित ‘पुरूरवा’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत हैं।
अथवा
शीर्षक का नाम-— उर्वशी।
कवि का नाम-रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-पुरूरवा कहते हैं कि मैं उस अंकुश या प्रतिबन्ध के विषय में नहीं जानता कि वह कौन-सी शक्ति है, जो मुझे अपनी प्यास बुझाने से रोक रही है। मेरी स्थिति उस व्यक्ति की-सी है, जो प्रेम सरोवर के किनारे बैठा है, किन्तु प्यास की पीड़ा से व्याकुल होने पर भी वह अपनी प्यास नहीं बुझा पाता। ऐसा क्यों होता है, यह मैं स्वयं नहीं समझ पाता। पुरूरवा का आशय है कि उर्वशी जैसी अनुपम रूपसी पास होने पर भी और स्वयं कामाग्नि से विह्वल होने पर भी वह अपनी कामना पूरी क्यों नहीं कर पा रहा है। सम्भवतया उसके सत्संस्कार उसे इस समाज विरुद्ध सम्बन्ध बनाने से रोक रहे हैं।
(iii) राजा पुरूरवा अप्सरा उर्वशी से अपने मन की दुविधाग्रस्त स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।
(iv) राजा पुरूरवा के सत्संस्कार हैं जो उसे समाज के विरुद्ध सम्बन्ध बनाने से रोक रहे हैं।
(v) ‘हे उर्वशी! मैं अपने समय का सूर्य हूँ इस बात का आशय है कि जैसे सूर्य के तेज के सामने तारे फीके पड़ जाते हैं वैसे ही मेरे दुर्धर्ष तेज के सामने संसार के सारे राजा-गण निस्तेज हो चुके हैं।

उर्वशी

प्रश्न–दिए गए पद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

प्रश्न 1.
मैं नहीं गगन की लता
तारकों में पुलकिता फूलती हुई,
मैं नहीं व्योमपुर की बाला,
विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,
पूर्णिमा सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,
मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी ।
मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा
इतिवृत्त हीन,
सौन्दर्य-चेतना की तरंग;
सुर-नर-किन्नर गन्धर्व नहीं,
प्रिय! मैं केवल अप्सरा
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत ।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) इस पद्यांश में उर्वशी ने किसे अपना परिचय दिया है?
(iv) आकाश में उड़ती हुई स्वच्छन्द आनन्द की शिखा कौन है?
(v) ‘मैं नाम-ग्रोत्र से रहित पुष्प’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर
(i) यह पद्यांश राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘उर्वशी’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘उर्वशी’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा
शीर्षक का नाम- उर्वशी
कवि का नाम-रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-मैं नक्षत्रों के बीच में रहकर प्रसन्नतापूर्वक फलने-फूलने वाली आकाश की लता नहीं हूँ, न मैं आकाश में स्थित किसी नगर से उतरी युवती हुँ, न ही मैं चन्द्रमा की पुत्री हूँ, जो चाँदनी के साथ चन्द्रकिरणरूपी तारों पर लटककर पृथ्वी पर उतरी हो और न ही मैं पूर्णिमा के चन्द्रमा के उज्ज्वल प्रकाशरूपी सागर की हिलोरें लेती लहर हूँ। मैं तो मानव के हृदय में सुखोपभोग की अतृप्त इच्छाओं का जो सागर लहरा रहा है, उसी से उत्पन्न हुई केवल एक अप्सरा हूँ।
(iii) इस पद्यांश में उर्वशी ने राजा पुरूरवा को अपना परिचय दिया है।
(iv) उर्वशी आकाश में उड़ती हुई स्वच्छन्द आनन्द की शिखा है।
(v) रूपक अलंकार।।

प्रश्न 2.
देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ।
मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी मेरा नूपुर ।
भू-नभ को सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय को है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि को नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) इन पंक्तियों में नारी की विश्वव्यापी शक्ति का वर्णन कौन कर रहा है?
(iv) उर्वशी ने मन्दिरों में देवताओं के स्थान पर किसका वास बताया है?
(v) संसार का समस्त काव्य किसका गान करता है?
उत्तर
(i) यह पद्यांश राष्ट्रकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘उर्वशी’ महाकाव्य से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘उर्वशी’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा
शीर्षक का नाम- उर्वशी।
कवि का नाम-रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-उर्वशी कह रही है कि मन्दिरों में देवताओं का नहीं, अपितु मेरा ही वास है। आशय यह है कि देव-प्रतिमाएँ मनुष्य की सौन्दर्य चेतना का परिणाम हैं और इस सौन्दर्य चेतना का मूल आधार नारी है। इस प्रकार मन्दिरों में देव-प्रतिमाओं के विभिन्न रूपों में मनुष्य वस्तुतः सौन्दर्य की साकार प्रतिमा नारी को ही अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है। अतः स्पष्ट है कि देवालयों में देव-प्रतिमाओं के स्थान पर मुख्यतः नारी ही अधिष्ठित है।
(iii) इन पंक्तियों में नारी की विश्वव्यापी शक्ति का वर्णन उर्वशी कर रही है।
(iv) उर्वशी ने मन्दिरों में देवताओं के स्थान पर स्वयं का वास बताया है।
(v) संसार का समस्त काव्य नारी के ही त्रैलोक्य-विजय का गान करता है।

अभिनव मनुष्य

प्रश्न–दिए गए पद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

प्रश्न 1.
यह मनुज, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश ।
यह मनुज जिसकी शिखा उद्द्दाम,
कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम ।
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार,
ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार ।
‘व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय’
पर, न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय ।
श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत;
(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) आकाश और पृथ्वी का कोई भी तत्त्व किससे अज्ञात नहीं रह सकता?
(iv) संसार के सभी जड़-चेतन पदार्थ किस कारण मनुष्य को प्रणाम करते हैं?
(v) ‘आकाश’ शब्द के दो पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर
(i) प्रस्तुत पद्यांश कविवर रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित ‘कुरुक्षेत्र’ काव्य के छठे सर्ग से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘अभिनव मनुष्य’ शीर्षक काव्यांश से उद्धृत है।
अथवा
शीर्षक का नाम- अभिनव मनुष्य।
कवि का नाम-रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या–कवि कहता है कि आज मनुष्य ने वैज्ञानिक प्रगति के बल पर इस संसार के विषय में सब कुछ जान लिया है। पृथ्वी के गर्भ से लेकर सुदूर अन्तरिक्ष तक के सभी रहस्यों का उद्घाटन कर दिया है। चाँद-तारे, सूरज आदि की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है कि आसमान में कहाँ और कैसे टिके हैं? पृथ्वी के गर्भ में जहाँ शीतल जल का अथाह भण्डार है, वहीं दहकता लावा भी विद्यमान है; उसके द्वारा यह भी ज्ञात किया जा चुका है। किन्तु यह ज्ञान-विज्ञान तो मनुष्यता की पहचान नहीं है और न ही इससे मानवता का कल्याण हो सकता है। संसार का कल्याण तो केवल इस बात में निहित है कि प्रत्येक मनुष्य प्राणिमात्र से स्नेह करे, उसे अपने समान ही समझे, यही मनुष्यता की अथवा मनुष्य होने की पहचान भी है, अन्यथा ज्ञान-विज्ञान की जानकारी तो एक कम्प्यूटर भी रखता है, मगर उसमें मानवीय संवेदनाएँ नहीं होती; अत: उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता।
(iii) आकाश और पृथ्वी का कोई भी तत्त्व अभिनव मनुष्य से अज्ञात नहीं रह सकता।
(iv) आज का यह अभिनव मनुष्य इतना बुद्धिमान हो गया है कि इसके यश की अदम्य-शिखा सर्वत्र शोभित है जिसे संसार के सभी जड़-चेतन पदार्थ शक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं।
(v) आकाश’ शब्द के दो पर्यायवाची शब्द हैं–नभ, शून्य।

प्रश्न 2.
सावधान, मनुष्य ! यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार ।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी अज्ञान;
फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान ।
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के शीर्षक और कवि का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) कवि ने भौतिकवादी और वैज्ञानिक युग के मानव को क्या चेतावनी दी है?
(iv) कवि ने तलवार किसे बताया है और इसका इस्तेमाल करने से मनुष्य को क्यों मना किया
(v) ‘तलवार’ शब्द के दो पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर
(i) प्रस्तुत पद्यांश कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘कुरुक्षेत्र’ काव्य के छठे सर्ग से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘अभिनव मनुष्य’ शीर्षक काव्यांश से उद्धत है।।
अथवा
शीर्षक का नाम- अभिनव मनुष्य।।
कवि का नाम-रामधारी सिंह ‘दिनकर’।।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-कवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ मनुष्य को सचेत करते हुए कहते हैं। कि हे मनुष्य! यह सिद्ध हो चुका है कि तुम अभी एक शिशु के समान अज्ञानी हो। तुम अपने ही हाथों अपना सर्वनाश करने पर तुले हुए हो। तुम्हें फूल और काँटों की कुछ भी पहचान नहीं है; अर्थात् तुम्हें यह पहचान नहीं है कि तुम्हारे लिए क्या लाभदायक है और क्या हानिकारक। अणुबम का प्रयोग करके विज्ञान पर गर्व करने वाले मनुष्य ने अपनी अबोधता और विवेकहीनता को सिद्ध कर दिया है।
(iii) कवि ने भौतिकवादी और वैज्ञानिक युग के मानव को यह चेतावनी दी है कि यदि तू अभी सावधान नहीं हुआ तो तुझे विज्ञान के दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे।
(iv) कवि ने विज्ञान को तलवार बताया है और इसे मनमानी क्रीड़ा का माध्यम बना लेना स्वयं का नुकसान करना है। इसलिए इसके प्रचण्ड प्रभाव वे बचने के लिए मनुष्य को मना किया है।
(v) तलवार’ शब्द के दो पर्यायवाची हैं-खड्ग तथा कृपाण।।

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