UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 3 Motivational Bases of Behaviour
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Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Psychology |
Chapter | Chapter 3 |
Chapter Name | Motivational Bases of Behaviour (व्यवहार के अभिप्रेरणात्मक आधार) |
Number of Questions Solved | 55 |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 3 Motivational Bases of Behaviour व्यवहार के अभिप्रेरणात्मक आधार
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रेरणा (Motivation) से आप क्या समझते हैं? प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षणों को भी स्पष्ट कीजिए।
या
अभिप्रेरित व्यवहार के कोई दो लक्षण बताइए।
उत्तर :
मनोविज्ञान मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन है और मनुष्य का व्यवहार प्राय: दो प्रकार की शक्तियों द्वारा संचालित होता है—बाह्य शक्तियाँ तथा आन्तरिक शक्तियाँ। मनुष्य के अधिकांश व्यवहार तो बाह्य वातावरण से प्राप्त उत्तेजनाओं के कारण उत्पन्न होते हैं, जब कि कुछ अन्य व्यवहार आन्तरिक शक्तियों द्वारा संचालित होते हैं। व्यवहारों को संचालित करने वाली ये आन्तरिक शक्तियाँ तब तक निरन्तर क्रियाशील रहती हैं जब तक कि व्यवहार से सम्बन्धित लक्ष्य सिद्ध नहीं हो जाता। इसके अतिरिक्त ये शक्तियाँ उस समय तक समाप्त नहीं होतीं, जिस समय तक प्राणी क्षीण अवस्था को प्राप्त होकर असहाय नहीं हो जाता अथवा मर ही नहीं जाता है। स्पष्टतः किसी प्राणी द्वारा विशेष प्रकार की क्रिया या व्यवहार करने को बाध्य करने वाली ये आन्तरिक शक्तियाँ ही प्रेरणा (Motivation) कहलाती हैं।
प्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Motivation)
अर्थ – प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ है-क्रियाओं को प्रारम्भ करने वाली, दिशा प्रदान करने वाली अथवा उत्तेजित करने वाली शक्ति। व्यक्ति को किसी विशिष्ट व्यवहार या कार्य करने के लिए उत्तेजित करने की शक्ति प्रेरणा कहलाती है। उदाहरण के लिए एक छोटे बच्चे को रोता हुआ देखकर उसकी माँ उसे दूध पिला देती है और बच्चा रोना बन्द कर देता है। रोना बच्चे का विशिष्ट व्यवहार या कार्य है। जिसका कारण उसकी भूख है। स्पष्ट रूप से भूख ही बच्चे के व्यवहार की प्रेरणा’ हुई। व्यक्ति द्वारा विशेष व्यवहार करने की इच्छा या आवश्यकता अन्दर से महसूस की जाती है। इस दशा या आन्तरिक स्थिति का नाम ही प्रेरणा-शक्ति (Force of Motivation) है और प्रेरणा-शक्ति ही हमारे व्यवहारों में विभिन्न मोड़ लाती है। प्रेरणा को जन्म देने वाला तत्त्व मनोविज्ञान में प्रेरक’ (Motive) के नाम से जाना जाता है।
परिभाषाएँ – विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रेरणा को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया गया है –
(1) गिलफोर्ड के अनुसार, “प्रेरणा कोई विशेष आन्तरिक अवस्था या दशा है जो किसी कार्य को शुरू करने और उसे जारी रखने की प्रवृत्ति से युक्त होती है।”
(2) वुडवर्थ के मतानुसार, “प्रेरणा व्यक्ति की एक अवस्था या मनोवृत्ति है जो उसे किसी व्यवहार को करने तथा किन्हीं लक्ष्यों को खोजने के लिए निर्देशित करती है।”
(3) लॉवेल के कथनानुसार, “प्रेरणा को अधिक औपचारिक रूप से किसी आवश्यकता द्वारा प्रारम्भ मनो-शारीरिक आन्तरिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो इस क्रिया को जन्म देती है या जिसके द्वारा उस आवश्यकता को सन्तुष्ट किया जाता है।”
(4) किम्बाल यंग के अनुसार, “प्रेरणा एक व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति होती है जो उसे क्रियाओं की ओर प्रेरित करती है।’
(5) एम० जॉनसन के अनुसार, “प्राणी के व्यवहार को आरम्भ करने तथा दिशा देने वाली क्रिया के सामान्य प्रतिमान के प्रभाव को प्रेरणा के नाम से जाना जाता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि प्रेरणा (या प्रेरक) एक आन्तरिक अवस्था है जो प्राणी में व्यवहार या क्रिया को जन्म देती है। प्राणी में यह व्यवहार या क्रियाशीलता किसी लक्ष्य की पूर्ति तक बनी रहती है, किन्तु लक्ष्यपूर्ति के साथ-साथ प्रेरक शक्तियाँ क्षीण पड़ने लगती हैं।
प्रेरणायुक्त व्यवहार के लक्षण
(Characteristics of Motivated Behaviour)
प्रेरणायुक्त व्यवहार के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
(1) अधिक शक्ति का संचालन – प्रेरणायुक्त व्यवहार का प्रथम मुख्य लक्षण व्यक्ति में कार्य करने की अधिक शक्ति का संचालन है। आन्तरिक गत्यात्मक शक्ति प्रेरणात्मक व्यवहार का आधार है। जिसके अभाव में व्यक्ति प्रायः निष्क्रिय हो जाता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति के व्यवहार की तीव्रता जितनी अधिक होगी उसकी पृष्ठभूमि में प्रेरणा भी उतनी ही शक्तिशाली होगी। उदाहरण के लिए परीक्षा के दिनों में विद्यार्थी बिना थके घण्टों तक पढ़ते रहते हैं, जबकि सामान्य दिनों में वे उतना परिश्रम नहीं करते तथा क्रोध की अवस्था में एक दुबला-पतला-सा व्यक्ति कई लोगों के काबू में नहीं आता। प्रेरणा की दशा में इस प्रकार के अतिरिक्त शक्ति के संचालन का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि शक्ति के इस अतिरिक्त संचालन का मुख्य कारण प्रबल प्रेरणा की दशा में उत्पन्न होने वाले शारीरिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते हैं।
(2) परिवर्तनशीलता – प्रेरणायुक्त व्यवहार का दूसरा लक्षण उसमें निहित परिवर्तनशीलता या अस्थिरता का गुण है। वस्तुत: प्रत्येक व्यवहार अथवा क्रिया का कोई-न-कोई लक्ष्य/उद्देश्य अवश्य होता है। यदि किसी एक मार्ग, विधि, उपाय अथवा प्रयास द्वारा अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है तो प्रेरित व्यक्ति लक्ष्य-सिद्धि के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास करता है। प्रयासों में एकरसता और पुनरावृत्ति का सगुण नहीं पाया जाता, अपितु आवश्यकतानुसार बराबर परिवर्तन की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। इस प्रकार लक्ष्य प्राप्ति का सही मार्ग मिलने तक प्रेरित व्यक्ति मार्ग परिवर्तित करता रहता है।
(3) निरन्तरता – प्रेरणायुक्त व्यवहार या क्रिया के लगातार जारी रहने का लक्षण निरन्तरता कहलाता है। उद्देश्यानुसार प्रारम्भ की गई ये क्रियाएँ उस समय तक अनवरत रूप से चलती रहती हैं। जब तक कि लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। कार्य पूर्ण हो जाने पर प्रेरणा की यह विशेषता स्वत: ही समाप्त या कम हो जाती है। कार्य की निरन्तरता अल्पकालीन भी हो सकती है तथा दीर्घकालीन भी। भूखा व्यक्ति भोजन पाने का तब तक ही निरन्तर प्रयास करता है जब तक कि उसे भोजन नहीं मिल जाता। भोजन प्राप्त होते ही उसके प्रयास या तो समाप्त हो जाते हैं या शिथिल पड़ जाते हैं।
(4) चयनता – प्रेरणायुक्त व्यवहार का एक प्रमुख लक्षण चयनता भी है। प्रेरित व्यक्ति अपनी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार एवं अनुभव का चयन करता है। वह विभिन्न वस्तुओं के बीच से अधिक आवश्यक वस्तु का चयन करने त्था उसे पाने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए किसी प्यासे व्यक्ति के सम्मुख विभिन्न प्रकार के व्यंजन परोसे जाने पर भी अन्य व्यंजनों की तुलना में उसका प्रत्येक प्रयास जल को प्राप्त करने के लिए होगा।
(5) लक्ष्य प्राप्त करने की व्याकुलता – प्रेरणायुक्त व्यवहार में लक्ष्य प्राप्त करने की व्याकुलता पाई जाती है। यह व्याकुलता लक्ष्य पूर्ण होने तक बनी रहती है। अतः प्रेरित व्यवहार लक्ष्योन्मुख व्यवहार कहलाता है। परीक्षार्थी में परीक्षा पूर्ण होने तक व्याकुलता बनी रहती है और वह तनावग्रस्त रहता है।
(6) लक्ष्य-प्राप्ति पर व्याकुलता की समाप्ति – व्याकुलता उस समय तक बनी रहती है जब तक कि लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। लक्ष्य-प्राप्ति के उपरान्त व्याकुलता समाप्त हो जाती है। पूर्वोक्त उदाहरण में परीक्षा समाप्त होते ही परीक्षार्थी की व्याकुलता समाप्त हो जाती है और वह तनावमुक्त होकर शान्त हो जाता है। इसी प्रकार भूख से व्याकुल व्यक्ति भोजन प्राप्त होते ही शान्ति लाभ करता है। और उसकी व्याकुलता समाप्त हो जाती है।
प्रश्न 2.
प्रेरणा की अवधारणा के स्पष्टीकरण के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रेरणा के सम्बन्ध में कुछ दृष्टिकोण
प्रेरणा का अभिप्राय व्यक्ति या पशु की ऐसी आन्तरिक अवस्था से होता है जो उसे एक निश्चित लक्ष्य की ओर व्यवहार करने को बाध्य करती है। प्रेरणा के सम्बन्ध में अनेक दृष्टिकोण प्रचलित रहे हैं, उनमें से प्रमुख दृष्टिकोण निम्नलिखित हैं
(1) मूलप्रवृत्तियाँ – प्रेरणा के विषय में वैज्ञानिक अध्ययन प्रसिद्ध विद्वान मैक्डूगल से शुरू हुए। मैक्डूगल ने प्रेरित व्यवहार का कारण मूलप्रवृत्तियाँ बताया है। बाद में, मूलप्रवृत्तियों के दृष्टिकोण की कूओ, लारमैन तथा लैथ्ले आदि मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा जंच की और पाया कि प्रेरित व्यवहार मूलप्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न नहीं होता।
(2) वातावरण के अनुभव – कुओ ने अभिप्रेरित व्यवहार के सम्बन्ध में एक प्रयोग किया। उसने कुछ बिल्लियों को चूहों के बच्चों के साथ पाला और चार महीने बाद पाया कि बिल्लियों ने चूहों के साथ न तो लगाव ही दिखाया और न ही उन पर हमला किया। इन्हीं बिल्ल्यिों को फिर से ऐसी बिल्लियों के साथ रखा गया जो चूहों का शिकार करती थीं। इनमें से 6 बिल्लियाँ साथ में पले हुए 17 चूहों को मारकर खा गयीं। कूओ के इस प्रयोग को निष्कर्ष था कि प्राणी का व्यवहार मूलप्रवृत्तियों से नहीं, प्रारम्भिक वातावरण के अनुभवों से प्रेरित होता है।
(3) आवश्यकता – प्रत्येक प्राणी की कुछ-न-कुछ आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी सन्तुष्टि या असन्तुष्टि से व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित होता है। बोरिंग के अनुसार, “आवश्यकता प्राणी के शरीर की कोई जरूरत या अभाव है।” जब प्राणी के शरीर में किसी चीज की कमी या अति की अवस्था पैदा हो जाती है तो उसे ‘आवश्यकता (Need) की संज्ञा दी जाती है। आवश्यकता की वजह से शारीरिक तनाव या असन्तुलन पैदा होता है जिसके फलस्वरूप ऐसा व्यवहार उत्पन्न करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे तनाव असन्तुलन समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ–‘प्यास’ शरीर की कोशिकाओं में पानी की कमी है, जबकि मलमूत्र त्याग’ शरीर में अनावश्यक पदार्थों का ‘अति में जमा हो जाना है। इस भाति, दोनों ही दशाओं में ‘कमी’ तथा ‘अति’ का बोध तनाव/असन्तुलन को जन्म देता है।
प्रेरणा से सम्बन्धित इस दृष्टिकोण में मनोवैज्ञानिकों ने आवश्यकताओं के दो प्रकार बताये हैं –
(i) शारीरिक आवश्यकताएँ – जैसे-पानी, भोजन, नींद, मल-मूत्र त्याग तथा काम (Sex) की आवश्यकता।
(ii) मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ – जैसे-धन-दौलत, प्रतिष्ठा, उपलब्धि तथा प्रशंसा की आवश्यकता।।
(4) अन्तर्वोद-साटेंन के अनुसार-“अन्तर्नाद ऐसे तनाव या क्रियाशीलता की अवस्था को कहा जाता है जो किसी आवश्यकता द्वारा उत्पन्न होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है। कि अभिप्रेरित व्यवहार का कारण अन्तर्नाद (Drive) है। अन्तर्नाद की उत्पत्ति किसी-न-किसी शारीरिक आवश्यकता से होती है। आवश्यकताओं की तरह से अन्तर्नाद भी शारीरिक व मनोवैज्ञानिक है। शारीरिक आवश्यकताओं से उत्पन्नअन्तर्वोद शारीरिक अन्तर्नाद कहलाते हैं, जबकि मानसिक आवश्यकताओं से उत्पन्न अन्तर्नाद मनोवैज्ञानिक अन्तनोंद कहे जाते हैं। भूख की अवस्था में भूख अन्तर्नाद, प्यास लगने पर प्यास अन्तर्नाद तथा काम (Sex) की इच्छा होने पर काम अन्तनोंद पैदा होता है। हल के मतानुसार, “अन्तर्नाद व्यवहार को ऊर्जा प्रदान करता है, किन्तु दिशा नहीं।” बोरिंग के अनुसार, अन्तर्वोद शरीर की एक आन्तरिक क्रिया या दशा है जो एक विशेष प्रकार के व्यवहार दे लिए प्रेरणा प्रदान करती है।
(5) प्रलोभन या प्रोत्साहन – प्रलोभन या प्रोत्साहन (Incentive) उस लक्ष्य को कहा जाता है। जिसकी ओर अभिप्रेरित व्यवहार अग्रसर होता है। यह वातावरण की वह वस्तु है जो व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है तथा जिसकी प्राप्ति से उसकी आवश्यकता की पूर्ति तथा अन्तनोंद में कमी होती है। उदाहरणार्थ-भूखे व्यक्ति के लिए भोजन एक प्रलोभन या प्रोत्साहन है, क्योंकि यह भूखे व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है। भोजन के उपरान्त व्यक्ति की भूख की आवश्यकता कुछ देर के लिए समाप्त हो जाती है और भूख का अन्तर्वोद भी कम हो जाता है।
(6) प्रेरणा के मुख्य अंग: आवश्यकता, अन्तर्वोद तथा प्रलोभन – आवश्यकता, अन्तर्वोद तथा प्रलोभन (या प्रोत्साहन) ये तीनों ही प्रेरणा के मुख्य अंग हैं जो आपस में गहन सम्बन्ध रखते हैं। प्रेरणा का प्रारम्भ आवश्यकता से होता है और यह प्रलोभन की प्राप्ति तक चलता है। वस्तुत: आवश्यकता एवं अन्तनोंद प्राणी की आन्तरिक अवस्थाएँ या तत्परताएँ हैं, जबकि प्रलोभन बाह्य वातावरण में उपस्थित कोई चीज या उद्दीपक है। प्रेरणा उत्पन्न होने की प्रक्रिया में पहले आवश्यकता जन्म लेती है, उसके बाद अन्तर्नाद उत्पन्न होता है। ये दोनों ही व्यक्ति के भीतर की दशाएँ हैं। अन्तर्नाद की अवस्था में व्यक्ति में तनाव तथा क्रियाशीलता दृष्टिगोचर होती है जिसके परिणामतः वह एक निश्चित दिशा में प्रलोभन की प्राप्ति के लिए कुछ व्यवहार प्रदर्शित करता है। यदि ‘भूख’ प्रेरणा का उदाहरण है तो इसकी प्रक्रिया में भूख की आवश्यकता, भूख का अन्तनोंद तथा भोजन की प्राप्ति तीनों ही सम्मिलित हैं।
इस भाँति, प्रेरणा के सम्बन्ध में उपर्युक्त वर्णित दृष्टिकोण प्रस्तुत हुए हैं। मैक्डूगल के मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्धुित दृष्टिकोण को महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता। इसके विरुद्ध प्रारम्भिक वातावरण के अनुभवों का दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है। प्रेरणा के सम्बन्ध में आधुनिक दृष्टिकोण; आवश्यकता, अन्तर्नाद तथा प्रलोभन के पारस्परिक सम्बन्ध तथा अन्त:क्रिया पर आधारित है और यही प्रेरणा के प्रत्यय की सन्तोषजनक व्याख्या प्रस्तुत करता है।
प्रश्न 3.
प्रेरणाओं का हमारे जीवन में महत्त्व बताइए।
या
मानव जीवन में अभिप्रेरणा का क्या महत्त्व होता है?
उत्तर :
प्रेरणा (प्रेरक) का महत्व
(Importance of Motivation)
प्रेरणा एक विशेष आन्तरिक अवस्था है जो प्राणी में किसी क्रिया या व्यवहार को आरम्भ करने की प्रवृत्ति जाग्रत करती है। यह प्राणी में व्यवहार की दिशा तथा मात्रा भी निश्चित करती है। वस्तुतः मनुष्य एवं पशु, सभी का व्यवहार प्रेरणाओं से युक्त तथा संचालित होता है। इस भाँति, मनुष्य के जीवन में उसके व्यवहार और अनुभवों के सन्दर्भ में प्रेरणाओं का उल्लेखनीय स्थान तथा महत्त्व है।
मानव-व्यवहार तथा अनुभवों में प्रेरकों की भूमिका
(Role of Motives in the Human Behaviour and Experiences)
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार व्यक्ति के व्यवहार और उसके जीवन के अनुभवों में प्रेरणा (प्रेरक) की विशिष्ट एवं निर्विवाद भूमिका है। इसका प्रतिपादन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) व्यवहार-प्रदर्शन एवं प्रेरक – मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार के पीछे प्रेरणा का प्रत्यय निहित रहता है। कोई मनुष्य एक विशेष व्यवहार क्यों प्रदर्शित करता है-यह विषय प्रारम्भ से ही जिज्ञासा, चिन्तन तथा विवाद का रहा है उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति अपना क्या जीवन लक्ष्य निर्धारित करता है। वह अन्य व्यक्ति या वस्तुओं में रुचि क्यों लेता है, वह किन वस्तुओं का संग्रह करना पसन्द करता है और क्यों, वह उपलब्धि के लिए क्यों प्रयासशील रहता है, उसकी आकांक्षा का स्तर क्या है, उसकी विशिष्ट आदतें क्या हैं और ये किस भाँति निर्मित हुईं?–ये सभी प्रश्न ‘मनोवैज्ञानिकों के लिए महत्त्वपूर्ण रहे हैं, जिनका अध्ययन प्रेरणा के अन्तर्गत किया जाता है।
(2) उपकल्पनात्मक-प्रक्रिया – प्रेरणा एक उपकल्पनात्मक प्रक्रिया (Hypothetical Process) है, जिसका सीधा सम्बन्ध व्यवहारे के निर्धारण से होता है। प्रेरक व्यवहार का मूल स्रोत है। और मानव के व्यवहार की नियन्त्रण अनेक प्रकार के प्रेरक करते हैं। जैविक (या जन्मजात) प्रेरक प्राणी में जन्म से ही पाये जाते हैं। ये जीवन के आधार हैं और इनके अभाव में प्राणी जीवित नहीं रह सकता। इन प्रेरकों में भूख, प्यास, नींद, मल-मूत्र त्याग, क्रोध, प्रेम तथा काम आदि प्रमुख हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण में रहने से उसमें अर्जित प्रेरक पैदा होते हैं। व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य, आकांक्षा का स्तर, रुचि, आदत तथा मनोवृत्तियाँ आदि व्यक्तिगत प्रेरणाएँ हैं जो व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से सीखी जाती हैं। सामुदायिकता, प्रशंसा व निन्दा तथा आत्मगौरव जैसी सामाजिक प्रेरणाएँ व्यक्ति में सामाजिक प्रभाव के कारण निर्धारित होती हैं। इस भाति, प्रेरणा एक उपकल्पनात्मक-प्रक्रिया है और जैविक एवं अर्जित प्रेरक ही व्यक्ति को क्रियाशील बनाकर विशिष्ट व्यवहार करने की प्ररेणा प्रदान करते हैं और इसी कारण मानव के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
(3) लक्ष्य निर्देशित व्यवहार – प्रत्येक प्रकार की प्रेरणा से सम्बन्धित व्यवहार का कोई-न-कोई लक्ष्य या उद्देश्य अवश्य होता है। इसे लक्ष्य या उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्यक्ति हर सम्भव प्रयास करता है और उसका प्रयास तब तक जारी रहता है जब तक कि वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेता। प्यासी व्यक्ति, पानी की प्राप्ति का लक्ष्य लेकर तब तक भटकता रहता है जब तक वह पानी पीकर प्यास नहीं बुझा लेता। लक्ष्य निर्देशित व्यवहार किसी भी प्रकार को हो सकता है; जैसे-किसी पर आक्रमण करना, किसी वस्तु का संग्रह करना या किसी वस्तु पर अधिकार जमाना और अपना जीवन-लक्ष्य निर्धारिते करना आदि।
(4) श्रेष्ठ कार्य निष्पादन – प्रेरणाएँ मनुष्य के व्यवहार को असाधारण व्यवस्था प्रदान करती हैं। जिसके परिणामस्वरूप वह स्वयं को अधिक ऊर्जा एवं चेतना से परिपूर्ण पाता है। प्रेरित व्यवहार की अवस्था में उत्पन्न जागृति, आन्तरिक तनाव, तत्परती अथवा शक्ति के कारण ही व्यक्ति सामान्य अवस्था से अधिक कार्य कर पाता है। इतना ही नहीं, उसके कार्य का निष्पादन श्रेष्ठ प्रकार का होता है।
(5) महान सफलता या उपलब्धि के लिए प्रयास – प्रेरित व्यवहार के कारण व्यक्ति महान सफलता या उपलब्धि के लिए क्रियाशील हो जाता है। वह व्यवहार के किसी क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए प्रयास कर सकता है; क्योंकि व्यक्ति उन्हीं कार्यों को अधिकाधिक करते हैं जिनमें वे अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पाते हैं, प्रायः देखा जाता है कि सम्बन्धित जीवन-क्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धि या सफलता पाने तथा अपने जीवन को अधिक उन्नत बनाने के लिए व्यक्ति अभिप्रेरित हो उठता है। इस भाँति, महान सफलता या उपलब्धि की प्रेरणा मानव-जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।।
(6) सामूहिक जीवन की प्रवृत्ति – व्यक्ति समूह में रहना अधिक पसन्द करता है। समूह में वह निर्भीक रहता है तथा अन्य लोगों के सहयोग से सुखी एवं सुविधापूर्ण जीवन-यापन करता है। समूह में रहते हुए उसे आत्म-अभिव्यक्ति के अवसर मिलते हैं, अनेक आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की सन्तुष्टि होती है। मैत्री तथा यौन इच्छाएँ भी समूह में सन्तुष्ट हो पाती हैं। इसके साथ ही व्यक्ति को समाज की परम्पराओं, प्रथाओं तथा आदर्शों के अनुरूप सामाजिक कार्य करने के अवसर प्राप्त होते हैं। किन्तु आधुनिक समय में सामाजिक परिवर्तनों , सामाजिक गतिशीलताओं तथा जटिल अन्त:क्रियाओं के कारण सामूहिक जीवन की प्रवृत्ति में कमी दृष्टिगोचर हो रही है। परिणाम यह है कि विश्व स्तर पर जीवन का आनन्द खोता जा रहा है और मानसिक तनाव बढ़ते जा रहे हैं। सामूहिकता की प्रेरणा व्यक्ति को सुखमय एवं आनन्ददायक जीवन-यापन के लिए उत्साहित करती है।
(7) तर्क-निर्णय एवं संकल्प – प्रायः व्यक्ति के जीवन में ऐसी स्थितियाँ आती हैं कि जब वह कोई उचित निर्णय नहीं ले पाता और मानसिक तनाव व संघर्ष के कारण व्याकुलता अनुभव करती है। ऐसी दशा में उपस्थित विकल्पों पर तर्क-वितर्क या विचरण करके तथा अभिप्रेरणाओं के गुण-दोषों पर विचार करके निर्णय की प्रक्रिया शुरु होती है। व्यक्ति कई विकल्पों में से सबसे ज्यादा उचित विकल्प के चुनाव का निर्णय लेता है और प्रेरण को कार्यान्वित करता है। यदि व्यक्ति अपने निर्णय को तत्काल कार्यान्वित नहीं कर पाता तो ऐसी अवस्था में उसे संकल्प की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरणार्थ– पढ़ाई करने तथा नौकरी करने के बीच उत्पन्न मानसिक संघर्ष में तर्क-वितर्क के बाद एक युवक पढ़ाई करने का निर्णय लेता है और कष्ट उठाकर भी इस संकल्प को पूरा करता है। इस तरह से तर्क, निर्णय एवं संकल्प की प्रेरणाएँ व्यक्ति को मानसिक संघर्ष से निकालकर उपयुक्त निर्णय को क्रियान्वित करने हेतु संकल्पवान बनाती हैं।
निष्कर्षत: प्रेरक मानव-जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनका व्यवहार एवं अनुभवों में विशिष्ट स्थान है।
प्रश्न 4.
सीखने एवं शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सीखने में प्रेरणा का महत्त्व
(Importance of Motivation in Learning)
शिक्षा के क्षेत्र में और बालकों के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में प्रेरणा निम्न प्रकार से उपयोगी सिद्ध होती है –
(1) लक्ष्यों की स्पष्टता – प्रेरणाओं के लक्ष्य एवं आदर्श स्पष्ट होने चाहिए। लक्ष्यों की स्पष्टता से प्रेरणाओं की तीव्रता में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप प्रेरित विद्यार्थी जल्दी सीख लेता है। यदि समय-समय पर विद्यार्थियों को लक्ष्य प्राप्ति हेतु उनके प्रयासों की प्रगति बतायी जाये तो वे उत्साहित होकर शीघ्र और अधिक सीखते हैं।
(2) सोद्देश्य शिक्षा – प्राप्त की जाने वाली वस्तु जितनी अधिक आवश्यक होगी, उसे प्राप्त करने की प्रेरणा भी उतनी ही अधिक होगी। प्रेरक शिक्षा को विद्यार्थी की आवश्यकताओं से जोड़ देते हैं। जिससे शिक्षा सोद्देश्य बन जाती है और बालक सीखने के लिए प्रेरित एवं तत्पर हो जाते हैं।
(3) सीखने की रुचि उत्पन्न होना – पर्याप्त रुचि के अभाव में कोई भी क्रिया या व्यवहार फलदायक नहीं हो सकता। प्रेरणा से बालकों में रुचि पैदा होती है जिससे उनका ध्यान पाठ्य-सामग्री की ओर आकृष्ट होता है तथा वे रुचिपूर्वक अध्ययन में जुट जाते हैं।
(4) कार्यों के परिणाम का प्रभाव – आनन्ददायक एवं सन्तोषजनक परिणाम वाले कार्यों में बच्चे अधिक रुचि लेते हैं और उन्हें उत्साहपूर्वक करते हैं। विद्यार्थियों को प्रेरित करने की दृष्टि से उन्हीं कार्यों को करवाना श्रेयस्कर समझा जाता है जिन कार्यों के परिणाम सकारात्मक रूप से प्रभावकारी हों।
(5) ग्रहणशीलता – प्रेरणाओं के माध्यम से, बालक द्वारा वांछित व्यवहार ग्रहण करने तथा अवांछित व्यवहार छोड़ने के लिए, उसे प्रेरित किया जा सकता है। इस भाँति उचित ज्ञान को ग्रहण करने की दृष्टि से प्रेरणा अत्यधिक लाभकारी है।
(6) आचरण पर प्रभाव – प्रेरणाओं के माध्यम से बालक को अपने व्यवहार परिवर्तन में सहायता मिलती है तथा वह स्वयं को आदर्श रूप में ढालने का प्रयास करता है। वस्तुतः निन्दा, पुरस्कार तथा दण्ड आदि आचरण पर गहरा प्रभाव रखते हैं और इनके माध्यम से नैतिकता व सच्चरित्रता का विकास सम्भव है।।
(7) व्यक्तिगत एवं सामूहिक कार्य-प्रेरणा – किसी कार्य में दूसरे बालक से आगे बढ़ने की भावना व्यक्तिगत कार्य-प्रेरणा को उत्पन्न करती है। इसी भाँति एक वर्ग या समूह द्वारा दूसरे वर्ग से आगे निकलने का प्रयास सामूहिक कार्य-प्रेरणा को जन्म देता है। व्यक्तिगत कार्य-प्रेरणाएँ ही सामूहिक कार्य-प्रेरणाओं की जननी हैं। विद्यार्थियों की व्यक्तिगत प्रगति अन्ततोगत्वा सामूहिक प्रगति का प्रतीक मानी जाती है।
(8) शिक्षण विधियों की सफलता – प्रेरक से सम्बन्धित करके शिक्षण की विधियों तथा प्रविधियों में वांछित परिवर्तन लाये जाते हैं। प्रेरणाओं पर आधारित विधियाँ प्रभावशाली एवं सफल शिक्षण को जन्म देती हैं।
(9) खेल के माध्यम से सीखना – शिक्षा में खेलकूद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। खेल प्रत्यक्ष प्रेरणा के गुणों से युक्त होते हैं; अतः इन्हें अध्ययन कार्य का साधन बनाना सरल है। इनके द्वारा गम्भीरतम विषयों की शिक्षा भी सहज ही प्रदान की जा सकती है।
(10) अनुशासन – आत्मानुशासन श्रेष्ठ अनुशासन माना जाता है और यह प्रेरणाओं पर आधारित है। प्रेरणा का प्रयोग विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने में किया जाता है।
प्रश्न 5.
प्रेरकों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए तथा मुख्य जन्मजात प्रेरकों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या
जन्मजात अथवा जैविक प्रेरकों से आप क्या समझते हैं? मुख्य जन्मजात प्रेरकों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
प्रेरक का अर्थ
(Meaning of Motive)
मैक कॉक (Mc Couch) ने ‘प्रेरक का इस प्रकार वर्णन किया है, “व्यक्ति की वह दशा जो उसे किसी दिये हुए लक्ष्य की ओर अभ्यास करने का संकेत देती है और जो उसकी क्रियाओं की पर्याप्तता और लक्ष्य की प्राप्ति पर प्रकाश डालती है, प्रेरक कहलाती है। मनोवैज्ञानिकों ने प्रेरक के अनेक वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; यथा-शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक, आन्तरिक एवं बाह्य तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक आदि। इस सन्दर्भ में प्रेरक को अनेक शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है-आवश्यकता (Need), प्रेरक (Motive), उदीरणा या ईहा (Drive), प्रवृत्तियाँ (Propensities) तथा मूलप्रवृत्तियाँ (Instincts) इत्यादि।
मैस्लो (Maslow) द्वारा प्रेरकों का विभाजन अध्ययन की दृष्टि से सुविधाजनक है। उसने प्रेरक को मुख्य दो भागों में बाँटा है–(i) जन्मजात प्रेरक और (ii) अर्जित प्रेरक।
जन्मजात (जैविक) प्रेरक
(Innate Motives)
जन्मजात या आन्तरिक प्रेरक व्यक्ति में जन्म से ही पाये जाते हैं और इन्हें सीखना (अर्जित करना) नहीं पड़ता है। इसी कारण इन्हें शारीरिक या प्राथमिक प्रेरक भी कहा जाता है। ये प्रेरक व्यक्ति के जीवन का आधार हैं, जिनके पूर्ण न होने से शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। प्रमुख जन्मजात प्रेरकों को संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है –
(1) भूख – भूख एक प्रबल तथा महत्त्वपूर्ण जन्मजात प्रेरक है। निश्चय ही, भूख (Hunger) जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में से एक है जिसकी सन्तुष्टि से शरीर का विकास एवं पोषण होता है और काम करने की शक्ति प्राप्त होती है। भोजन की कमी (अर्थात् भूख) के कारण वेदना उत्पन्न होने लगती है और शरीर में बेचैनी बढ़ जाती है। ‘भूख-वेदना’ आमाशय एवं आँत की सिकुड़न से सम्बन्धित है तथा यह रक्त की रासायनिक दशा पर निर्भर है। भूख से प्रेरित होकर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के सामान्य तथा असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करता है। भूख महसूस करने पर व्यक्ति भोजन खोजने का प्रयास करता है। भोजन प्राप्त होनेपर भूख का यह प्रेरक कुछ समय के लिए सन्तुष्ट हो जाता है, किन्तु पुनः एक निश्चित समय पर प्रकट हो जाता है।
(2) प्यास – भूख के समान ही जन्मजात प्रेरकों में प्यास का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्यास एक शारीरिक आवश्यकता है जो व्यक्ति को क्रिया करने की प्रेरणा प्रदान करती है। जैसे-जैसे शरीर में जल की मात्रा कम होने लगती है, वैसे-वैसे शरीर में कष्टकारी प्रतिक्रियाएँ होने लगती हैं, शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है और प्राणी क्रियाशील हो उठता है। इस दशा में मुंह और गला सूख जाता है। प्यास का यह आवश्यक प्रेरक व्यक्ति को पानी खोजने के लिए मजबूर करता है।
(3) काम – काम सम्बन्धी जन्मजात प्रेरक सन्तानोत्पत्ति का मूल आधार है और जीवन में विशेष महत्त्व रखता है। ‘काम’ के महत्त्व को शोपेन हावर ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “यह प्रवृत्ति युद्ध का कारण, शान्ति का लक्ष्य, गम्भीरता का आधार, न्यायोचितता का लक्ष्य, हँसी पैदा करने वाली बातों का स्रोत एवं समस्त रहस्यमय संकेतों का आधार है।” विरोधी लिंग के प्रति आकर्षित होने की इच्छा काम-वासना या कामेच्छा कहलाती है। काम का प्रेरक पशु, पक्षी तथा मनुष्य सहित प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है तथा व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालता है। काम सम्बन्धी इच्छाओं की तुष्टि आवश्यक है। जिसकी सर्वोच्च सामाजिक स्वीकृति विवाह एवं पारिवारिक जीवन में निहित है। जिन व्यक्तियों की काम-वासना पूरी नहीं हो पाती उनका व्यवहार असामान्य रूप धारण कर लेता है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमण्डै फ्रायड ने ‘काम’ की मूलप्रवृत्ति को ही सम्पूर्ण मानव घ्यवहार एवं क्रियाओं को उद्गम स्वीकार किया है।
(4) नींद – नींद का प्रेरक भी एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक है। यह प्रेरक थकान तथा उद्दीपनों के अभाव की स्वाभाविक प्रतिक्रिया समझा जाता है। मनुष्य दैनिक जीवन में विभिन्न कार्य करते हैं। इन कार्यों को करने में शारीरिक कोषों की क्षति होती है तथा शरीर में कुछ रासायनिक परिवर्तन घटित होते हैं। मनुष्य की मांसपेशियाँ अशक्त हो जाती हैं जिससे थकान का अनुभव होता है। थकान की अवस्था में व्यक्ति विश्राम करने की आवश्यकता का अनुभव करता है। आवश्यकतानुसार विश्राम कर लेने के पश्चात् नींद का यह प्रेरक समाप्त हो जाता है।
(5) प्रेम – प्रेम का प्रेरके मनुष्य में जन्म से ही पाया जाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक आवश्यकता है। प्रेम की आवश्यकता अनुभव होने पर व्यक्ति के शरीर और मन में एक प्रकार का तनाव उत्पन्न होता है। यह तनाव प्रेम-प्रदर्शन या प्रेम-प्राप्ति के उपरान्त ही शान्त हो पाता है।
(6) क्रोध – क्रोध प्रत्येक व्यक्ति में जन्मे से विद्यमान रहती है। किसी व्यक्ति की इच्छाओं अथवा कार्यों की पूर्ति न होने की अवस्था में व्यक्ति बाधक वस्तु के प्रति अपनी क्रोध व्यक्त करता है। क्रोध की अवस्था में प्राणी का व्यवहार असामान्य हो जाता है तथा उसका स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रहता। क्रोध का प्रेरक मार्ग की बाधाओं को हटाने के लिए बाध्य करता है। बाधा हट जाने पर क्रोध शान्त हो जाता है और व्यक्ति का व्यवहार भी सामान्य हो जाता है।
(7) मल-मूत्र त्याग – शरीर की आन्तरिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप शरीर में कुछ हानिकारक पदार्थ बनते हैं जिनका शरीर से बाहर होना अत्यन्त आवश्यक है। इस शारीरिक आवश्यकता को तत्काल पूरा करना अनिवार्य है अन्यथा शरीर में एक अजीब-सा तनाव उत्पन्न हो जाता है। शरीर से मल-मूत्र, श्वास तथा पसीने आदि को बाहर निकालने की व्यवस्था हमारे शरीर में है। मल-मूत्र आदि का त्याग करने पर तनाव की दशा स्वत: ही समाप्त हो जाती है।
(8) युयुत्सा – युयुत्सा एक जन्मजात प्रेरक है। इससे संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है। जब व्यक्ति अपने लक्ष्य के मार्ग में कोई बाधा पाता है तो वह उस बाधक वस्तु को हटाना चाहता है या उस पर विजय प्राप्त करना चाहता है। बाधा हटने तक उसमें शरीर सम्बन्धी, आन्तरिक या संवेगात्मक
असन्तुलन बना रहता है। उत्पन्न असन्तुलन को सन्तुलित अवस्था में लाने का प्रयास जिस व्यवहार के ” माध्यम से किया जाता है, वह युयुत्सा नामक प्रेरक के कारण है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि मानव-व्यवहार में जैविक प्रेरकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है |
प्रश्न 6.
अर्जित प्रेरकों से क्या आशय है? मुख्य अर्जित प्रेरकों को सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
या
अर्जित प्रेरक किन्हें कहते हैं? मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों तथा सामाजिक अर्जित प्रेरकों को सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
अजित प्रेरक
(Acquired Motives)
जन्मजात प्रेरकों के अलावा व्यक्ति में उसके समाज तथा पर्यावरण के प्रभाव से भी बहुत से प्रेरक विकसित होते हैं। इस प्रकार के प्रेरकों को जो समाज में रहकर अर्जित किये जाते हैं, अर्जित या सामाजिक प्रेरक कहकर पुकारा जाता है। इन प्रेरकों में मनुष्य के व्यवहार के वे चालक सम्मिलित हैं। जिन्हें वह शिक्षा या वातावरण के सम्पर्क से अपने जीवनकाल में आवश्यकतानुसार अर्जित करता है। अर्जित प्रेरकों का एक नाम गौण आवश्यकताएँ भी है, क्योकि इन्हें व्यक्ति सामाजिक समायोजन के लिए प्राप्त करता है; ये सार्वभौमिक (Universal) नहीं होते। अर्जित प्रेरक मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं – (अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक। अब हम इनका अलग-अलग संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे –
(अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक
एन० एल० मस ने व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों को इस प्रकार समझाया है, “व्यक्तिगत प्रेरक वे प्रेरक हैं जो किसी विशेध संस्कृति में स्वयं प्रधान नहीं होते अपितु वे शारीरिक तथा सामान्य सामाजिक प्रेरकों से सम्बन्धित होते हैं। इनके विभिन्न प्रकारों का वर्णन निम्नलिखित है –
(1) जीवन लक्ष्य – हर व्यक्ति अपना एक जीवन-लक्ष्य निर्धारित करता है जो उसकी भावनाओं, विचारों, इच्छाओं, योग्यताओं, क्षमताओं तथा प्रेरणाओं पर आधारित होता है। लक्ष्य-निर्धारण के पश्चात् व्यक्ति उसे प्राप्त करने हेतु चेष्टाएँ करता है। व्यक्ति के जीवन की क्रियाएँ तथा व्यवहार इन्हीं जीवन-लक्ष्यों के अनुरूप होते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य डॉक्टर बनना है तो वह ऐसी क्रियाएँ करेगा जो उसे डॉक्टर बनने में सहायता दे सकें।
(2) आकांक्षा-स्तर – प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वयं को जीवन के किसी अभीष्ट स्तर तक पहुँचाने की इच्छा होती है, यही आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration) कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षा का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। स्पष्ट रूप से यह आकांक्षा का स्तर व्यक्ति के लिए प्रेरक का कार्य करता है। जीवन में प्रगति करने के लिए अथवा महान् कार्य करने के लिए आकांक्षा-स्तर से अत्यधिक प्रेरणा प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ–12वीं की बोर्ड परीक्षा में प्रथम स्थान पाने की आकांक्षा वाला मेधावी विद्यार्थी अपने समस्त प्रयास उस ओर लगा देगा।
(3) मद-व्यसन – मद-व्यसन एक प्रबल अर्जित प्रेरक है। बहुत से व्यक्तियों में नशे के सेवन की प्रवृत्ति इतनी बढ़ जाती है कि वे उस विशेष नशे के बिना नहीं रह पाते। यह नशा उनके लिए एक अत्यधिक प्रबल प्रेरक का कार्य करता है, जिसके अभाव में उनका शारीरिक सन्तुलन समाप्त हो जाता है तथा वे अशान्ति एवं तनाव अनुभव करने लगते हैं। उदाहरण के लिए—बीड़ी सिगरेट, तम्बाकू, भाँग, चरस, गाँजा, अफीम, शराब और यहाँ तक कि चाय व कॉफी पीने की आदत डालना मद-व्यसन के अन्तर्गत आते हैं।
(4) आदत की विवशता – यदि किसी कार्य को नियमित रूप से बार-बार दोहराया जाए तो वे आदत बन जाते हैं। ये आदतें स्वचालित (Automatic) हो जाती हैं और एक विशिष्ट उत्तेजक आदत की प्रक्रिया को चालित कर देती हैं। उदाहरण के लिए-माना कोई व्यक्ति सुबह 4.30 बजे जागकर चाय पीता है तो इस क्रिया को बार-बार लगातार करने पर यह उसकी आदत बन जाएगी। आदत बन जाने के उपरान्त व्यक्ति उसी के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हो जाता है।
(5) रुचि – रुचि अधिक अच्छी लगने की एक प्रवृत्ति है और प्रबल प्रेरक का कार्य करती है। व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण में विविध प्रकार की वस्तुएँ पाता है, किन्तु सम्पर्क में रहकर वह किन्हीं विशेष वस्तुओं को अधिक पसन्द करने लगता है और उन्हें पाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। व्यक्ति की यह पसन्दगी या रुचि उन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि भिन्न हो सकती है जिसमें आयु के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ-एक बच्चा अखबार पाकर ‘बाल-स्तम्भ’ के अन्तर्गत कहानियाँ-कविताएँ आदि पढ़ने में रुचि दिखाता है, जबकि एक प्रौढ़ व्यक्ति देश-विदेश के समाचारों, लेखों या सम्पादकीय पढ़ने में रुचि प्रदर्शित करता है। स्पष्ट है कि रुचि के वशीभूत होकर व्यक्ति सम्बन्धित कार्य करने को बाध्य हो जाता। है। इस रूप को एक व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक के रूप में माना जाता है।
(6) अचेतन मन – व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करने वाले कारकों में अचेतन मन की प्रेरणा भी विशिष्ट स्थान रखती है। व्यक्ति की अनेक कामनाएँ या इच्छाएँ, जिनकी सन्तुष्टि नहीं हो पाती है, अचेतन मन में दब जाती हैं; किन्तु दबकर भी नष्ट नहीं होतीं, अपितु वहीं से अपनी सन्तुष्टि का प्रयास करती हैं। मन के अचेतन स्तर में बैठी हुई बातें व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक प्रेरित करती हैं। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को नदी में प्रवेश करने से बहुत डर लगता है। पूर्व का इतिहास जानने पर पता लगा है कि वह बचपन में नदी में डूबने से बचा था और नदी से वही डर उसके मन की गहराई में जाकर बैठ गया।
(7) मनोवृत्तियाँ – मनोवृत्ति (Attitude) एक आन्तरिक अवस्था है जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने या छोड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह रुचि से भिन्न प्रेरक है। रुचि में हम अपनी पसन्द के कार्यों में संलग्म हो जाते हैं, जबकि मनोवृत्ति हमारे भीतर पसन्द की वस्तुओं की ओर आकर्षण तथा नापसन्द की वस्तुओं की ओर विकर्षण उत्पन्न कर देती है। उदाहरणार्थ-यदि किसी व्यक्ति को शास्त्रीय गायन पसन्द है तो वह उस ओर आकर्षित होकर गायन सुनेगा, अन्यथा नहीं।
(8) संवेग – संवेगों को कार्य का प्रेरक माना जाता है। भय, क्रोध, प्रेम, दया, वात्सल्य, घृणा तथा करुणा आदि संवेग के उदाहरण हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति ऐसा व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है। जिसकी वह सामान्यावस्था में कल्पना भी नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ- आत्म-सम्मान पर चोट लगने से क्रुद्ध व्यक्ति अपने प्रियजन पर भी आघात कर सकता है।
(ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक
अर्जित प्रेरकों के एक प्रकार को सामाजिक अर्जित प्रेरक कहते हैं। एक समाज के अधिकांश सदस्यों में ये प्रेरक लगभग समान रूप में पाये जाते हैं, परन्तु ये प्रेरके जन्मजात नहीं होते बल्कि समाज के सम्पर्क एवं प्रभाव के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। मुख्य सामाजिक अर्जित प्रेरकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है.
(1) सामुदायिकता – सामुदायिकता प्रत्येक सामाजिक प्राणी में पाई जाने वाली सार्वभौमिक भावना तथा एक सामाजिक प्रेरक है। यह भावना ही व्यक्ति को सामाजिक कार्यों के लिए प्रेरित करती है और इस भाँति सामाजिक व्यवहार का प्रेरक बनती है। इसी प्रेरणा के कारण व्यक्ति समूह अथवा समुदाय में रहना पसन्द करता है तथा सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है। सामुदायिकता के कारण व्यक्ति अनेक कार्य एवं व्यवहार करने को बाध्य होता है।
(2) आत्म-गौरव या आत्म-स्थापन – समाज के सम्पर्क एवं अन्य व्यक्तियों के मध्य रहते हुए व्यक्ति में आदर पाने की भावना विकसित होती है। हर एक व्यक्ति अन्य लोगों की तुलना में अधिक अच्छा, अधिक सफल, उन्नत एवं प्रगतिशील रहना चाहता है। वह अपने लक्ष्य के मार्ग की बाधाओं को जीतकर गौरवान्वित होता है, यही आत्म-गौरव की प्रवृत्ति,है। समाज में कार्य करने वाली यह भावना व्यक्ति को ऐसे अनेक कार्यों की प्रेरणा प्रदान करती है जो उसे समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा दिला सकें। एडलर नामक मनोवैज्ञानिक ने आत्म-स्थापन’ अथवा ‘शक्ति की इच्छा को प्रबल प्रेरक स्वीकार किया है।
(3) प्रशंसा तथा निन्दा – प्रशंसा एवं निन्दा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल प्रेरक हैं। प्रशंसा एवं निन्दा व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को पर्याप्त रूप में प्रभावित करते हैं। समाज में व्यक्ति के अच्छे कार्यों की प्रशंसा तथा बुरे कार्यों की निन्दा की जाती है। प्रशंसा प्राप्त करने की लालसा से मनुष्य अच्छे कार्यों को बार-बार दोहराने की प्रेरणा पाता है, जबकि वह निन्दनीय कार्यों को दोहराने का प्रयास नहीं करता।
(4) आत्म-समर्पण – आत्म-समर्पण अर्थात् अन्य व्यक्तियों की श्रेष्ठता के सम्मुख स्वयं को हीन बना देने की भावना भी सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने वाला एक मुख्य प्रेरक है। आत्म-समर्पण के प्रेरक हमें ऐसे कार्य करने के लिए बाध्य करते हैं जिनके माध्यम से हम स्वयं को अपने से श्रेष्ठ व्यक्तित्व के सम्मुख अधीन कर देते हैं तथा उनके विचार एवं मत के अनुसार कार्य करते हैं।
(5) आक्रामक-प्रवृत्ति – आक्रामक-प्रवृत्ति सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करने वाली एक अर्जित प्रवृत्ति है। यह शारीरिक आवश्यकताओं या कुण्ठाओं की सन्तुष्टि के अवरोध में पैदा होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव न तो आक्रामक प्रवृत्ति का है और न ही शान्त प्रवृत्ति का। जब तक उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में अवरोध उत्पन्न नहीं होता वह शान्त दिखाई पड़ता है, किन्तु अवरोध उत्पन्न होते ही वह आक्रामक स्वरूप धारण कर लेता है। उदाहरणार्थ-न्यूगिनी के ‘अरापेश’ जाति के लोग तथा हिमालय की अनेक पहाड़ी जातियाँ एकदम शान्तिप्रिय हैं, जबकि ‘मुण्डुगुमार’ जाति के लोगों को बाल्यावस्था से ही युद्ध प्रिय बनाया जाता है। व्यक्ति के अनेक व्यवहार उसकी आक्रामक प्रवृत्ति के वशीभूत होकर भी सम्पन्न होते हैं। इस रूप में आक्रामक प्रवृत्ति भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक है।
(6) आत्म-प्रकाशन – समाज के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसका रहन-सहन दूसरे व्यक्तियों से अच्छा हो और वह अन्य व्यक्तियों से अच्छा व्यक्त करे। जब कभी इसमें रुकावट पैदा होती है। तो वह क्रोधित हो जाता है और झुंझला उठता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आत्म-प्रकाशन की इच्छा-प्रभुत्व, नेतृत्व आत्म-प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा की भावना आदि में निहित होती है।
(7) अर्जनात्मकता – अर्जनात्मकता अर्थात् किसी वस्तु या वस्तुओं को संचित करने की प्रवृत्ति को भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। वास्तव में व्यक्ति में यदि किसी वस्तु को संचित या एकत्र करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है, तो वह उसके लिए अधिक प्रयत्नशील हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह सम्बन्धित वस्तुओं को संचित करता जाता है, त्यों-त्यों उसे विशेष सन्तोष की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति अभीष्ट वस्तु को संचित नहीं कर पाता तो वह परेशान हो उठता है तथा अधिक तत्परता से विभिन्न प्रयास करता है। इस रूप में अर्जनात्मकता को प्रबल सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। सामान्य रूप से धन सम्बन्धी अर्जनात्मकता प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान होती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रशन 1.
व्यक्ति के व्यवहार सम्बन्धी उन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जो किसी प्रबल प्रेरणा की दशा में देखी जा सकती है।
उत्तर :
किसी भी प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति का व्यवहार सामान्य से भिन्न हो जाता है। इस दशा में व्यक्ति के व्यवहार में सामान्य से काफी अधिक सक्रियता तथा गतिशीलता आ जाती है। व्यवहार सम्बन्धी इस परिवर्तन का कारण प्रेरणा की दशा में होने वाला शक्ति का अतिरिक्त संचालन होता है। वास्तव में, प्रबल प्रेरणा की दशा में कुछ शारीरिक एवं रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण शरीर में शक्ति का अतिरिक्त संचालन होने लगता है। प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार में निरन्तरता तथा परिवर्तनशीलता के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं।
प्रबल प्रेरणा की दशा में व्यक्ति सम्बन्धित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उस समय तक लगातार प्रयास करता रहता है, जब तक निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपने प्रयासों को प्राय: बदलता भी रहता है।’प्रबल-प्रेरणा की दशा में व्यक्ति के व्यवहार की एक अन्य विशेषता व्यवहार में बेचैनी भी है। प्रबल प्रेरणा से ग्रस्त व्यक्ति अपने लक्ष्य को जब तक प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक एक विशेष प्रकार की बेचैनी अनुभव करता रहता है। व्यवहार की यह बेचैनी लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर अपने आप ही समाप्त हो जाती है।
प्रशन 2.
मानवीय प्रेरकों का एक सामान्य वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
व्यक्ति के जीवन में प्रेरकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। व्यक्ति के व्यवहार के परिचालन में अनेक प्रेरकों का योगदान होता है। भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रेरकों के भिन्न-भिन्न वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं। कुछ विद्वानों ने समस्त प्रेरकों को शारीरिक प्रेरक तथा मनोवैज्ञानिक प्रेरकों में बाँटा है, कुछ विद्वान् आन्तरिक प्रेरक तथा बाह्य प्रेरक-दो वर्ग निर्धारित करते हैं। इन वर्गीकरणों के अतिरिक्त एक अन्य वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया गया है जो अधिक लोकप्रिय है। इस वर्गीकरण के अन्तर्गत समस्त प्रेरकों को दो वर्गों में बाँटा गया है। ये वर्ग हैं-जन्मजात प्रेरक तथा अर्जित प्रेरक। जन्मजात प्रेरकों को ही आन्तरिक प्रेरक भी माना जाता है। ये प्रेरक सभी मनुष्यों में जन्म से ही समान रूप में पाये जाते हैं, इन्हें सीखना नहीं पड़ता।
मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, काम, नींद, प्रेम, क्रोध, मल-मूत्र त्याग तथा युयुत्सा। इनसे भिन्न, अर्जित प्रेरक उन प्रेरकों को कहा जाता है जिन्हें व्यक्ति द्वारा अपने जीवन में क्रमशः सीखा जाता है। अर्जित प्रेरकों को भी दो वर्गों में बाँटा गया है-व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा सामाजिक अर्जित प्रेरका व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों का स्वरूप भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न हो सकता है। मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक हैं-जीवन-लक्ष्य, आकांक्षा-स्तर, मद-व्यसन, आदत की विवशता, रुचि, अचेतन मन, मनोवृत्तियाँ तथा संवेग। सामाजिक अर्जित प्रेरक समाज के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं तथा एक समाज के सदस्यों में इन अर्जित प्रेरकों में काफी समानता होती है। मुख्य सामाजिक अर्जित प्रेरक हैं—सामुदायिकता, आत्म-गौरव या आत्म-स्थापन, प्रशंसा तथा निन्दा, आत्म-समर्पण, आक्रामक प्रवृत्ति, आत्म-प्रकाशन तथा अर्जनात्मकता।
प्रश्न 3.
जन्मजात तथा अजित प्रेरकों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
जन्मजात तथा अर्जित प्रेरकों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं –
प्रश्न 4.
प्रेरकों की प्रबलता के मापन की मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए सामान्य रूप से अग्रलिखित तीन विधियों को अपनाया जाता है –
(1) अवरोध विधि – प्रेरकों की प्रबलता-मापन की एक मुख्य विधि अवरोध विधि (Obstruction Method) है। इस विधि की सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि यदि प्रेरक प्रबल है तो सम्बन्धित लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में आने वाले अपेक्षाकृत बड़े अवरोधों को भी व्यक्ति या प्राणी पार कर जाता है। इस विधि के अन्तर्गत प्रेरकों की प्रबलता की माप तुलनात्मक आधार पर की जा सकती है। भिन्न-भिन्न प्रबलता वाले प्रेरकों की दशा में एकसमान अवरोध उपस्थित करके प्राप्त परिणामों के आधार पर उनकी प्रबलता की माप की जा सकती है।
(2) शिक्षण विधि – शिक्षण विधि द्वारा भी प्रेरकों की प्रबलता की माप की जाती है। इस विधि की सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि किसी विषय को सीखने की गति विद्यमान प्रेरक की प्रबलता के अनुपात में होती है अर्थात् यदि प्रबल प्रेरक विद्यमान हो तो शिक्षण की दर अधिक होती है तथा दुर्बल प्रेरक की दशा में शिक्षण की दर कम होती है। प्रेरक के नितान्त अभाव में शिक्षण की प्रक्रिया चल ही नहीं पाती।
(3) चुनाव विधि-प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए अपनायी जाने वाली एक विधि चुनाव विधि’ भी है। इस विधि में प्रेरकों की प्रबलता का मापन तुलनात्मक रूप में ही किया जाता है। चुनाव विधि द्वारा प्रेरकों की प्रबलता को जानने के लिए व्यक्ति के सम्मुख एक ही समय में दो या दो से अधिक प्रेरक उपस्थित किये जाते हैं, तब देखा जाता है कि व्यक्ति पहले किस प्रेरक से प्रेरित होकर सम्बद्ध व्यवहार करता है।
प्रश्न 5.
नवजात शिशु के जीवन में पाये जाने वाले मुख्य प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
नवजात शिशु के व्यवहार को परिचालित करने वाले मुख्य प्रेरकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है –
(1) भूख – भूख प्रत्येक प्राणी के जीवन की आधारभूत आवश्यकता है। जन्म के उपरान्त मानव-शिशु भी भूख की आवश्यकता के कारण स्वाभाविक क्रियाएँ व व्यवहार प्रकट करता है। वस्तुतः भूख लगने पर रक्त के रासायनिक अंशों में परिवर्तन के कारण वेदना उत्पन्न होती है तथा शरीर में व्याकुलता बढ़ती है। नवजात शिशु इस ‘भूख-वेदना’ को अभिव्यक्ति देने के लिए हाथ-पैर हिलाता है या रोता-चिल्लाता है। माँ, बच्चे के इस व्यवहार को पहचानने में सक्षम होती है और उसकी आवश्यकता सन्तुष्ट करने की चेष्टा करती है। आवश्यकता-पूर्ति के बाद भूखे का प्रेरक शान्त हो जाता है।
(2) प्यास – भूखं की तरह ही प्यास भी एक शारीरिक आवश्यकता है। प्यास का प्रेरक शरीर में जल की कमी के कारण है। प्यास के कारण प्राणी का शारीरिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। मानव-शिशु को भी प्यास लगती है जिसके कारण वह व्याकुल होकर शरीर को हिलाता-डुलाता है या रोकर अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करता है। पानी की पूर्ति के बाद पानी के शरीर की विभिन्न नलिकाओं में पहुँचने से शिशु की प्यास का प्रेरक सन्तुष्ट हो जाता है।
(3) नींद – नींद का प्रेरक शिशु के जन्म से ही उससे सम्बन्ध रखता है। यह भी शिशु की एक बहुत बड़ी शारीरिक आवश्यकता है। अपने जन्म के काफी समय बाद तक शिशु का अधिकतम समय नींद में ही व्यतीत होता है। नींद में विघ्न आने पर शिशु बेचैनी अभिव्यक्त करता है। अतः आवश्यकतानुसार उसे भरपूर नींद के प्रेरक की पूर्ति करनी अनिवार्य है।
(4) मल-मूत्र विसर्जन – जन्म के उपरान्त शिशु समय-समय पर वज्र्य पदार्थ मल-मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है। शरीर की आन्तरिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप शरीर में अनेक हानिकारक एवं वर्त्य पदार्थ निर्मित होते हैं जिनका मल-मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकलना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन पदार्थों को तत्काल विसर्जन न किया जाये तो शिशु के शरीर में एक अजीब-सा तनाव पैदा होगा। वह पीड़ा अनुभव कर रोएगा-चिल्लाएगा। मल-मूत्र विसर्जन के उपरान्त शिशु को तनाव एवं पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
जन्मजात प्रेरक क्या हैं?
या
जैविक अभिप्रेरकों को स्पष्ट कीजिए तथा उनके नाम लिखिए।
उत्तर :
प्रेरकों के दो मुख्य प्रकार यावर्ग निर्धारित किये गये हैं, जिन्हें क्रमशः जन्मजात प्रेरक तथा अर्जित प्रेरक कहा गया है। जन्मजात प्रेरकों को आन्तरिक प्रेरक तथा जैविक प्रेरक भी कहा जाता है। जन्मजात या आन्तरिक प्रेरक व्यक्ति में जन्म से ही विद्यमान होते हैं तथा इन्हें सीखना नहीं पड़ता। यही कारण है कि इन्हें प्राथमिक या शारीरिक प्रेरक भी कहा जाता है। ये प्रेरक व्यक्ति के जीवन के आधार हैं। तथा इनके पूर्ण न होने से व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन भी बिगड़ जाता है। व्यक्ति के जीवन में जन्मजात प्रेरकों का अत्यधिक महत्त्व है। जीवन के सुचारु परिचालन में इन प्रेरकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि इन प्रेरकों के अभाव में जीवन का चल पाना प्रायः सम्भव नहीं होता। मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, काम, नींद, तापक्रम, मातृत्व व्यवहार तथा मल-मूत्र त्याग।
प्रश्न 2.
किन्हीं दो जन्मजात प्रेरकों के नाम लिखिए तथा संक्षेप में उनका महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मुख्य जन्मजात प्रेरक हैं-भूख, प्यास, काम, नींद, मातृत्व व्यवहार तथा मल-मूत्र-त्याग।
(i) भूख नामक जन्मजात प्रेरक का व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्व है। इस प्रेरक से प्रेरित होकर व्यक्ति आहार ग्रहण करता है। आहार ग्रहण करने से शरीर का पोषण होता है, ऊर्जा प्राप्त होती है तथा रोगों से मुकाबला करने की शक्ति प्राप्त होती है।
(ii) नींद नामक प्रेरक का भी व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्त्व है। इस प्रेरक से प्रेरित होकर व्यक्ति विश्राम करता है। नींद से व्यक्ति की थकान समाप्त होती है, चुस्ती एवं स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा वह तरो-ताजा महसूस करता है। नींद से स्वभाव एवं व्यवहार की झुंझलाहट समाप्त हो जाती है।
प्रश्न 3.
अर्जित प्रेरक क्या हैं?
या
अर्जित प्रेरकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
प्रेरकों के एक वर्ग को अर्जित प्रेरक (Acquired Motives) के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के प्रेरकों का उदय सामाजिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप होता है। सामाजिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप विकसित होने के कारण इन्हें सामाजिक प्रेरक भी कहा जाता है। अर्जित प्रेरक व्यक्ति के सामाजिक समायोजन में सहायक होते हैं। अर्जित प्रेरकों को दो वर्गों में बाँटा जाता है (i) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ii) सामाजिक अर्जित प्रेरक।
प्रश्न 4.
प्रमुख सामाजिक प्रेरकों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
सामाजिक प्रेरक जन्मजात नहीं होते। ये पूर्ण रूप से अर्जित अर्थात् जन्म के उपरान्त सीखे जाने वाले प्रेरक हैं। इनका सम्बन्ध शारीरिक या प्राणात्मक आवश्यकताओं से नहीं होता। सामाजिक प्रेरकों का विकास एवं सक्रियता सामाजिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप प्रारम्भ होती है। सामाजिक प्रेरकों में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। इनका निर्धारण व्यक्ति की सामाजिक परिस्थितियों द्वारा होता है। सामाजिक प्रेरकों पर शिक्षा का भी प्रभाव पड़ता है। मुख्य सामाजिक प्रेरक हैं—सामुदायिकता, आत्म-गौरव या।। आत्म-स्थापन, प्रशंसा एवं निन्दा, आत्म-समर्पण, आक्रामक प्रवृत्ति, आत्म-प्रकाशन तथा अर्जनात्मकता।
प्रश्न 5.
मूल प्रवृत्ति से क्या आशय है?
उत्तर :
प्राणियों के व्यवहार की व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए प्रेरकों के साथ-ही-साथ मूल प्रवृत्तियों (Instincts) को भी जानना आवश्यक है। वास्तव में, प्राणियों का स्वभावगत व्यवहार मूल रूप से मूल प्रवृत्तियों द्वारा ही परिचालित होता है। मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं तथा प्राणियों के स्वभाव में निहित होती हैं। मूल प्रवृत्तियों का सम्बन्ध संवेगों से होता है। मूल प्रवृत्तियों के अर्थ को मैक्डूगल ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “मूल प्रवृत्ति एक परम्परागत अथवा जन्मजात मनोशारीरिक प्रवृत्ति है, जो उसके अधिकारों के लिए यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति किसी एक जाति की वस्तुओं को प्रत्यक्ष करेगा एवं उन पर ध्यान देगा, किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष के उपरान्त एक उद्वेगात्मक तीव्रता का अनुभव करेगा और उसके सम्बन्ध में एक विशेष प्रकार की क्रिया करेगा या कम-से-कम ऐसी क्रिया करने के आवेग का अनुभव करेगा।”
प्रश्न 6.
मूल प्रवृत्तियों की सामान्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर :
प्राणियों के व्यवहार के एक मुख्य निर्धारक कारक के रूप में मूल प्रवृत्तियों की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं –
- समस्त मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति अथवा प्राणी के स्वभाव में निहित होती हैं।
- प्रायः सभी प्राणियों के अनेक व्यवहार मूल प्रवृत्तियों द्वारा परिचालित होते हैं।
- मूल प्रवृत्ति के कारण सम्पन्न होने वाले व्यवहार को सदैव बहुत अधिक समानता की दृष्टि से देखा जा सकता है।
- सभी मूल प्रवृत्ति के मुख्य उद्देश्य स्पष्ट तथा सामान्य रूप से निश्चित होते हैं।
- प्रत्येक मूल प्रवृत्ति का सम्बन्ध अनिवार्य रूप से किसी-न-किसी संवेग से होता है।
- मूल प्रवृत्तियों के तीन मुख्य पक्ष होते हैं – ज्ञानात्मक, संवेगात्मक तथा क्रियात्मक।
- मूल प्रवृत्तियाँ अनेक हैं तथा वे व्यक्ति के जीवन-काल में भिन्न-भिन्न स्तरों पर स्वत: प्रकट एवं सक्रिय होती हैं।
प्रश्न 7.
मूल प्रवृत्तियों तथा प्रतिक्षेप क्रियाओं में क्या अन्तर है?
उत्तर :
मूल प्रवृत्तियों तथा प्रतिक्षेप क्रियाओं में कुछ समानताएँ होती हैं; जैसे कि दोनों ही जन्मजात तथा स्वाभाविक होती हैं तथा दोनों को ही सीखने की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु इन दोनों प्रकार की क्रियाओं में पर्याप्त अन्तर भी हैं। इन दोनों के अन्तर का विवरण निम्नलिखित है
- मूल प्रवृत्ति द्वारा प्रेरित व्यवहार का सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से होता है, जबकि प्रतिक्षेप क्रिया द्वारा प्रेरित व्यवहार या क्रिया का सम्बन्ध शरीर के किसी एक अंग से ही होता है।
- मूल प्रवृत्ति जन्य व्यवहार व्यापक होता है, जबकि प्रतिक्षेप क्रिया के परिणामस्वरूप होने वाला व्यवहार सीमित होता है।
- मूल प्रवृत्ति जन्य व्यवहार में यदि व्यक्ति चाहे तो कुछ सीमा तक परिवर्तन कर सकता है, परन्तु प्रतिक्षेप क्रियाओं में व्यक्ति कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता।
- मूल प्रवृत्ति-जन्य व्यवहार के तीन पक्ष अर्थात् ज्ञानात्मक, संवेगात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष होते हैं, परन्तु प्रतिक्षेप क्रिया का केवल क्रियात्मक पक्ष ही प्रस्तुत होता है।
- मूल प्रवृत्ति-जन्य व्यवहार पर प्रेरणा, रुचि तथा संवेग आदि कारकों को प्रभाव पड़ सकता है, परन्तु प्रतिक्षेप क्रियाओं पर इन कारकों का सामान्य रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –
- व्यक्ति के कार्यों के पीछे निहित परिचालक कारकों को …………………. कहते हैं।
- कोई भी आन्तरिक उत्तेजक जो प्राणी के व्यवहार या क्रिया को दिशा देकर लक्ष्य से जोड़ता है, …………………. कहलाता है।
- आवश्यकता और उदोलन …………………. की प्रक्रिया के मूलभूत सम्प्रत्यय हैं।
- प्रेरणा के नितान्त अभाव में व्यक्ति के कार्य ………………….
- व्यक्ति की क्रियाओं में अतिरिक्त शक्ति के संचालन का कारण …………………. होती है |
- प्रेरणायुक्त व्यवहार में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए …………………. पायी जाती है।
- प्रबल प्रेरणा के वशीभूत होने वाले कार्य सामान्य से …………………. होते हैं।
- व्यक्ति के कुछ प्रेरक जन्मजात होते हैं तथा कुछ जन्म के उपरान्त जीवन में …………………. किये जाते हैं।
- भूख एक …………………. प्रेरक है।
- जीवन लक्ष्य एक …………………. प्रेरक है।
- आकांक्षा-स्तर एक …………………. प्रेरक है।
- सामुदायिकता तथा प्रशंसा एवं निन्दा …………………. प्रेरक हैं।
- सामाजिक प्रेरकों के विकास के लिए …………………. आवश्यक होता है।
- भिन्न-भिन्न सामाजिक परिस्थितियों में …………………. का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। ।।
- मूल प्रवृत्तियों के आधार पर मानव-व्यवहार की व्याख्या मुख्य रूप से …………………. ने की है।
- …………………. ने अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की व्याख्या मूल प्रवृत्तियों के आधार पर की है।
उत्तर :
- प्रेरक
- प्रेरक
- प्रेरणा
- हो ही नहीं सकते
- प्रबल प्रेरणा
- व्याकुलता
- श्रेष्ठ
- अर्जित
- जन्मजात
- व्यक्तिगत अर्जित
- व्यक्तिगत अर्जित
- सामाजिक अर्जित
- सामाजिक सम्पर्क
- सामाजिक प्रेरकों
- मैक्डूगल
- मैक्डूगल।
प्रश्न I.
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1. प्रेरणा से क्या आशय है?
उत्तर :
किसी प्राणी द्वारा विशेष प्रकार की क्रिया या व्यवहार करने को बाध्य करने वाली आन्तरिक शक्तियों को प्रेरणा कहते हैं।
प्रश्न 2. प्रेरणा की एक सरल, संक्षिप्त एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
किम्बाल यंग के अनुसार, “प्रेरणा एक व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति होती है, जो उसे क्रियाओं की ओर प्रेरित करती है।”
प्रश्न 3. प्रेरणायुक्त व्यवहार के मुख्य लक्षणों अथवा विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
- शक्ति का अतिरिक्त संचालन
- परिवर्तनशीलता
- निरन्तरता
- चयनता
- लक्ष्य-प्राप्त करने की व्याकुलता तथा
- लक्ष्य-प्राप्ति पर व्याकुलता की समाप्ति।
प्रश्न 4. प्रबल प्रेरणा की दशा में सीखने की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
प्रबले प्रेरणा की दशा में सीखने की प्रक्रिया शीघ्रता से तथा सुचारु ढंग से सम्पन्न होती है।
प्रश्न 5. प्रेरकों का सर्वमान्य वर्गीकरण क्या है?
उत्तर :
प्रेरकों के एक सर्वमान्य वर्गीकरण के अन्तर्गत समस्त प्रेरकों को मूल रूप से दो वर्गों में बाँटा गया है – (i) जन्मजात प्रेरक तथा (ii) अर्जित प्रेरक।
प्रश्न 6. चार मुख्य जन्मजात प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) भूख, (ii) प्यास, (iii) नींद तथा (iv) काम।
प्रश्न 7. अजित प्रेरकों को किन-किन वर्गों में बाँटा जाता है?
उत्तर :
अर्जित प्रेरकों को दो वर्गों में बाँटा जाता है- (i) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ii) सामाजिक अर्जित प्रेरक।
प्रश्न 8. चार मुख्य व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) जीवन-लक्ष्य, (ii) आकांक्षा-स्तर, (ii) मद-व्यसन तथा (iv) रुचि।
प्रश्न 9. चार मुख्य सामाजिक अर्जित प्रेरकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) सामुदायिक, (i) आत्म-गौरव या आत्म-स्थापन, (ii) प्रशंसा तथा निन्दा व (iv) आत्म-समर्पण।
प्रश्न 10. प्रेरकों की प्रबलता के मापन के लिए अपनायी जाने वाली विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(i) अवरोध विधि, (ii) शिक्षण विधि तथा (iii) चुनाव विधि।।
प्रश्न 11. नवजात शिशु में कौन-कौन से प्रेरक प्रबल होते हैं?
उत्तर :
नवजात शिशु में (i) भूख, (ii) प्यास, (iii) नींद तथा (iv) मल-मूत्र त्याग नामक प्रेरक प्रबल होते हैं।
प्रश्न 12. मूल प्रवृत्ति की एक समुचित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
“मूल प्रवृत्ति शब्द के अन्तर्गत हम उन सभी जटिल कार्यों को लेते हैं जो बिना पूर्व-अनुभव के उसी प्रकार से किये जाते हैं जिस प्रकार से उस लिंग और प्रजाति के समस्त सदस्यों द्वारा किये जाते हैं।”
प्रश्न 13. मूल प्रवृत्तियों की एक मुख्य विशेषता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
समस्त मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति अथवा प्राणी के स्वभाव में निहित होती हैं।
प्रश्न 14. ‘भूख’ तथा मद-व्यसन किस प्रकार के प्रेरक हैं?
उत्तर :
‘भूख’ एक जन्मजात प्रेरक है, जबकि ‘मद-व्यसन’ एक अर्जित प्रेरक है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
प्रेरक कोई विशेष आन्तरिक अवस्था या दशा है जो किसी कार्य को शुरू करने और उसे जारी रखने की प्रवृत्ति से युक्त होती है। यह कथन किसका है?
(क) गिलफोर्ड
(ख) वुडवर्थ
(ग) किम्बाल यंग
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 2.
व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले कार्यों के पीछे निहित महत्त्वपूर्ण कारक को कहते हैं
(क) संवेग
(ख) प्रलोभन
(ग) चिन्तन एवं कल्पना
(घ) प्रेरणा
प्रश्न 3.
प्रेरणायुक्त व्यवहार का एक मुख्य लक्षण है
(क) सामान्य से अधिक बोलना।
(ख) व्यक्ति का आक्रामक होना
(ग) अतिरिक्त शक्ति का संचालन
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा लक्षण अभिप्रेरित व्यवहार का है?
(क) श्वसन देर में परिवर्तन
(ख) हृदय गति में परिवर्तन
(ग) प्रवलने
(घ) व्यवहार में दिशा
प्रश्न 5.
प्रेरणाओं के नितान्त अभाव की स्थिति में व्यक्ति का व्यवहार
(क) तीव्र हो जाएगा
(ख) उत्तम हो जाएगा।
(ग) हो ही नहीं सकता
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 6.
व्यक्ति (प्राणी) के जीवन में प्रेरणा का महत्त्व है
(क) व्यक्ति के व्यवहार का परिचालन होता है
(ख) सम्बन्धित कार्य शीघ्र तथा अच्छे रूप में सम्पन्न होता है।
(ग) विषय को शीघ्र सीख लिया जाता है।
(घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व
प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा प्रेरक जन्मजात प्रेरक है?
(क) रुचि
(ख) जीवन-लक्ष्य
(ग) भूख
(घ) प्रशंसा एवं निन्दा
प्रश्न 8.
जन्मजात प्रेरक है
(क) प्यास
(ख) उपलब्धि
(ग) आकांक्षा स्तर
(घ) जीवन-लक्ष्य
प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन जन्मजात या प्राथमिक प्रेरक नहीं है?
(क) यौन
(ख) नींद
(ग) संग्रहणशीलता
(घ) भूख
प्रश्न 10.
प्यास है
(क) जैविक अभिप्रेरक
(ख) मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक
(ग) व्यक्तिगत अभिप्रेरक
(घ) अर्जित अभिप्रेरक
प्रश्न 11.
जन्मजात प्रेरकों की विशेषता है
(क) ये जन्म से ही विद्यमान होते हैं तथा इन्हें सीखना नहीं पड़ता
(ख) इनका स्वरूप सभी मनुष्यों में समान होता है
(ग) ये प्रबल होते हैं तथा जीवित रहने के लिए आवश्यक होते हैं।
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
प्रश्न 12.
अर्जित प्रेरकों की विशेषता है
(क) व्यक्ति द्वारा समाज में रहकर सीखे जाते हैं।
(ख) प्रायः सभी व्यक्तियों में इनका स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है।
(ग) इन प्रेरकों की समुचित पूर्ति के अभाव में भी जीवन चलता रहता है।
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
प्रश्न 13.
अनुमोदन अभिप्रेरणा है
(क) जन्मजात
(ख) व्यक्तिगत
(ग) सामाजिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 14.
सम्बन्धन प्रेरक है
(क) जन्मजात
(ख) व्यक्तिगत
(ग) सामाजिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 15.
मैक्डूगल नामक मनोवैज्ञानिक ने प्रेरित व्यवहार का क्या कारण बताया है?
(क) वंशानुक्रम
(ख) उत्तेजना
(ग) मूल प्रवृत्तियाँ
(घ) वातावरण
प्रश्न 16.
मूल प्रवृत्तियों की विशेषताएँ हैं
(क) ये जन्मजात होती हैं।
(ख) ये प्राणियों के स्वभाव में निहित होती हैं।
(ग) मूल प्रवृत्तियाँ किसी-न-किसी संवेग से सम्बद्ध होती हैं।
(घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ।
प्रश्न 17.
मूल प्रवृत्तियों के आधार पर प्रेरणात्मक व्यवहार की व्याख्या की गई
(क) मास्लो द्वारा
(ख) वुण्ट द्वारा
(ग) वाटसन द्वारा
(घ) मैक्डूगल द्वारा
प्रश्न 18.
अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की व्याख्या मूल प्रवृत्तियों के आधार पर किसने की है?
(क) वाटसन
(ख) स्किनर
(ग) मैक्डूगल
(घ) वुण्ट
प्रश्न 19.
ऐसे तनाव या क्रियाशीलता की अवस्था को क्या कहकर पुकारते हैं जो किसी आवश्यकता द्वारा उत्पन्न होती है?
(क) अन्तनोंद
(ख) आवश्यकता
(ग) प्रलोभन
(घ) संवेग
प्रश्न 20.
आमाशय एवं आँत की सिकुड़न से सम्बन्धित तथा रक्त की रासायनिक दशा पर निर्भर कौन-सा प्रेरक है?
(क) क्रोध
(ख) मल-मूत्र त्याग
(ग) प्यास
(घ) भूख
प्रश्न 21.
कौन-सा प्रेरक व्यक्ति को अपने लक्ष्य के मार्ग में बाधा आने पर विजय पाने तथा संघर्ष के लिए अभिप्रेरित करता है?
(क) पलायन
(ख) युयुत्सा
(ग) अनुकरण
(घ) क्रोध
प्रश्न 22.
‘काम की मूल प्रवृत्ति को ही सम्पूर्ण मानव-व्यवहार एवं क्रियाओं का उद्गम स्वीकार करने वाले मनोवैज्ञानिक का नाम क्या है?
(क) सिगमण्ड फ्रॉयड
(ख) ट्रॉटर
(ग) बी० एन० झा
(घ) वुडवर्थ
उत्तर :
- (क) गिलफोर्ड
- (घ) प्रेरणा
- (ग) अतिरिक्त शक्ति का संचालन
- (घ) व्यवहार में दिशा
- (ग) हो ही नहीं सकता
- (घ) उपर्युक्त सभी महत्त्व
- (ग) भूख
- (क) प्यास
- (ग) संग्रहणशीलता
- (क) जैविक अभिप्रेरक
- (घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएं
- (घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
- (ग) सामाजिक
- (ग) सामाजिक
- (ग) मूलप्रवृत्तियाँ
- (घ) उपर्युक्त सभी विशेषताएँ
- (घ) मैक्डूगल द्वारा
- (ग) मैक्डूगल
- (क) अन्तनोंद
- (घ) भूख
- (ख) युयुत्सा
- सिगमण्ड फ्रॉयड।
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