UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

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UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi अलंकार

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काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं-काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। अलंकार के दो भेद होते हैं—(क) शब्दालंकार तथा (ख) अर्थालंकार।

जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द है, वहाँ शब्दालंकार और जहाँ शोभा का कारण उसका अर्थ है, वहाँ अर्थालंकार होता है। जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ विद्यमान हो, वहाँ ‘उभयालंकार’ (उभय = दोनों) होता है। | काव्य में स्थान-मनुष्य स्वभाव से ही सौन्दर्य-प्रेमी है। वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुन्दर और सुसज्जित देखना चाहता है। अपनी बात को भी वह इस प्रकार कहना चाहता है कि जिससे सुनने वाले पर स्थायी प्रभाव पड़े। वह अपने विचारों को इस रीति से व्यक्त करना चाहता है कि श्रोता चमत्कृत हो जाए। इसके साधन हैं उपर्युक्त दोनों अलंकार। शब्द और अर्थ द्वारा काव्य की शोभा-वृद्धि करने वाले इन अलंकारों का काव्य में वही स्थान है, जो मनुष्य (विशेष रूप से नारी) शरीर में आभूषणों का।।

शब्दालंकार और अर्थालंकार में अन्तर-शब्दालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द-विशेष को बदल दिया जाए तो अलंकार समाप्त हो जाता है, किन्तु अर्थालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहता है; जैसे-‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय’ में कनक शब्द की सार्थक आवृत्ति के कारण यमक अलंकार है। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘स्वर्ण’ और दूसरे का ‘ धतूरा’ है। यदि ‘कनक’ के स्थान पर उसका कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो यह अलंकार समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार अलंकार शब्द-विशेष पर निर्भर होने से यहाँ शब्दालंकार है।

अर्थालंकार में शब्द का नहीं, अर्थ का महत्त्व होता है; जैसे—सुना यह मनु ने मधु गुंजार, मधुकरी का-सा जब सानन्द।

इसमें ‘मधुकरी का-सा’ में उपमा अलंकार है। यदि ‘मधुकरी’ के स्थान पर उसका ‘भ्रमरी’ या अन्य कोई पर्याय रख दिया जाए तो भी यह अलंकार बना रहेगा; क्योंकि यहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित है, शब्द पर नहीं। यही अर्थालंकार की विशेषता है।

प्रश्न 1
शब्दालंकार से आप क्या समझते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
शब्दालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण शब्द होता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. अनुप्रास [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)—बार-बार एक ही वर्ण की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं; जैसे-
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।( काव्यांजलि: यमुना-छवि) स्पष्टीकरण-यहाँ पर ‘त’ वर्ण की आवृत्ति हुई है। अत: अनुप्रास अलंकार है।
भेद-अनुप्रास के पाँच भेद हैं–(1) छेकानुप्रास, (2) वृत्यनुप्रास, (3) श्रुत्यनुप्रास, (4) लाटानुप्रास और (5) अन्त्यानुप्रास।
(1) छेकानुप्रास–जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति एक बार होती है अर्थात् एक वर्ण दो बार आता है, वहाँ छेकानुप्रास होता है; जैसे-इस करुणा-कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती। (काव्यांजलि: आँसू)
स्पष्टीकरण-उपर्युक्त पंक्ति में ‘क’ की एक बार आवृत्ति हुई है। अत: छेकानुप्रास है।

(2) वृत्यनुप्रास–जहाँ एक अथवा अनेक वर्षों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है; जैसे-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में ।।

स्पष्टीकरण–यहाँ ‘च’ और ‘ल’ दो से अधिक बार (तीन बार) आया है। अत: वृत्यनुप्रास है।
छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास में अन्तर–एक वर्ण की एक बार आवृत्ति होने पर छेकानुप्रास होता है, जब कि वृत्यनुप्रास में एक अथवा अनेक वर्षों की दो अथवा दो से अधिक बार आवृत्ति होती है; जैसे–‘हे जग- जीवन के कर्णधार!’ में ‘ज’ वर्ण की एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है और ‘फैल फूले जल में फेनिल’ में ‘फ’ वर्ण की दो बार तथा ‘ल’ वर्ण की तीन बार आवृत्ति होने से वृत्यनुप्रास है।

(3) श्रुत्यनुप्रास-जहाँ कण्ठ, तालु आदि एक ही स्थान से उच्चरित वर्गों की आवृत्ति हो, वहाँ श्रुत्यनुप्रास होता है; जैसे—
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । (काव्यांजलि: विनयपत्रिका)
स्पष्टीकरण–इस पंक्ति में ‘स्’ और ‘न्’ जैसे दन्त्य वर्णो (अर्थात् जिह्वा द्वारा दन्तपंक्ति के स्पर्श से उच्चरित वर्षों) की आवृत्ति के कारण श्रुत्यनुप्रास है।
(4) लाटानुप्रास–जहाँ एक ही अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, किन्तु अन्वय की भिन्नता से अर्थ बदल जाता है, वहाँ लाटानुप्रास होता है; जैसे-

पूत सपूत तो क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?

स्पष्टीकरण–यहाँ उन्हीं शब्दों की आवृत्ति होने पर भी पहली पंक्ति के शब्दों का अन्वय ‘सपूत’ के साथ और दूसरी का ‘कपूत के साथ लगता है, जिससे अर्थ बदल जाता है। (पद्य का भाव यह है कि यदि तुम्हारा पुत्र सुपुत्र है तो धन-संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह स्वयं कमाकर धन का ढेर लगा देगा। यदि वह कुपुत्र है तो भी धन-संचय निरर्थक है; क्योंकि वह सारा धन व्यसनों में उड़ा देगा।) इस प्रकार यहाँ लाटानुप्रास है।।
(5) अन्त्यानुप्रास-यह अलंकार केवल तुकान्त छन्दों में ही होता है। जहाँ कविता के पद या अन्तिम चरण में समान वर्ण आने से तुक मिलती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है; जैसे-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई।
सौंह करै भौहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ ॥( काव्यांजलि: भक्ति एवं श्रृंगार)

स्पष्टीकरण-यहाँ दोनों पंक्तियों के अन्त में ‘आइ’ की आवृत्ति से अन्त्यानुप्रास है।

2. यमक [2010, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब कोई शब्द या शब्दांश अनेक बार आता है और प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट करता है, तब यमक अलंकार होता है; जैसे-

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है और दोनों बार उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा है और दूसरे का ‘सोना’। अतः यहाँ यमक अलंकार है।
भेद-यमक अलंकार के दो मुख्य भेद होते हैं—
(1) अभंगपद यमक–जहाँ दो पूर्ण शब्दों की समानता हो। इसमें शब्द पूर्ण होने के कारण दोनों शब्द सार्थक होते हैं; जैसे-‘कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।’
(2) सभंगपद यमक–यहाँ शब्दों को भंग करके (तोड़कर) अक्षर-समूह की समता बनती है। इसमें एक या दोनों अक्षर समूह निरर्थक होते हैं; जैसे-

पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।। (काव्यांजलिः छत्रसाल प्रशस्ति)

3. श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

प्रश्न 2
अर्थालंकार किसे कहते हैं ? इसके भेदों का उदाहरणसहित वर्णन कीजिए।
उत्तर
अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए
प्रश्न (क)
मनो चली आँगन कठिन तातें राते पाय ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा

प्रश्न (ख)
मकराकृति गोपाल के, सोहत कुंडल कान ।
धरयो मनौ हिय धर समरु, यौढ़ी लसत निसान ।।
उत्तर
उत्प्रेक्षा।

प्रश्न (ग)
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (घ)
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (इ)
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक से दूसरो ऑक नहीं ।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।।
उत्तर
श्लेष।

प्रश्न (च)
का पूँघट मुख मूंदहु अबला नारि ।
चंद सरग पर सोहत यहि अनुहारि ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न (छ)
पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के ।।
उत्तर
यमक।

प्रश्न (ज)
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि औरै कछु, जिहिं बस होत सुजान ।।
उत्तर
अनुप्रास।

प्रश्न (झ)
चरण कमल बंद हरिराई ।।
उत्तर
रूपक।

प्रश्न 2
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(क) उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार में मूलभूत अन्तर बताइए और उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण अपनी पाठ्य-पुस्तक से लिखिए।
(ख) श्लेष अलंकार का लक्षण लिखकर उदाहरण दीजिए।
(ग) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों में अन्तर स्पष्ट करते हुए उदाहरण दीजिए।
(घ) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकारों का अन्तर स्पष्ट कीजिए और दोनों में से किसी एक का उदाहरण लिखिए।
(ङ) उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में मूलभूत अन्तर स्पष्ट कीजिए और अपनी पाठ्य-पुस्तक से उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(च) रूपक अलंकार के भेद लिखिए और किसी एक भेद का लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(छ) सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर बताइए। अपनी पाठ्य-पुस्तक से भ्रान्तिमान अलंकार का एक उदाहरण लिखिए।
(ज) ‘यमक’ अथवा ‘श्लेष अलंकार का लक्षण लिखिए और एक उदाहरण दीजिए।
(झ) ‘रूपक’ तथा ‘उपमा अलंकारों में मूलभूत अन्तर बताइए और दोनों में से किसी एक अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
(ञ) ‘उपमा’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखकर एक उदाहरण दीजिए।
(ट) ‘अनुप्रास’ अथवा ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार का लक्षण लिखिए तथा उस अलंकार को एक उदाहरण दीजिए।
(ठ) ‘श्लेष’, ‘उपमा’ तथा ‘सन्देह अलंकारों में से किसी एक अलंकार की परिभाषा देते हुए उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर

श्लेष [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)–-जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या दो से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब श्लेष अलंकार होता है; जैसे-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं-
वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानु की पुत्री (राधा)।
वृषभ + अनुजा = बैल की बहन (गाय)।
हलधर = (1) बलराम, (2) बैल। इस प्रकार यहाँ ‘वृषभानुजा’ में श्लेष अलंकार है।
यमक और श्लेष में अन्तर-जब एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आकर भिन्न-भिन्न अर्थ देता है तो यमक कहलाता है और जब एक शब्द बिना आवृत्ति के ही कई अर्थ देता है तो श्लेष कहलाता है। यमक में एक शब्द की आवृत्ति होती है और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द एकाधिक अर्थ देता है।

अर्थालंकार और उसके भेद जहाँ काव्य की शोभा का कारण अर्थ होता है; वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके निम्नलिखित भेद होते हैं-

1. उपमा [2010, 11, 12, 13, 15, 16, 17]

लक्षण (परिभाषा)—उपमेय और उपमान के समान धर्मकथन को उपमा अलंकार कहते हैं; जैसे
(1) मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कले।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं-
(1) उपमेय–जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में मुख, गंगा ।।
(2) उपमान-उपमेय की जिसके साथ तुलना (उपमा) की जाती है; जैसे-चन्द्रमा, तापसबाला।
(3) साधारण धर्म-जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे–सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)।।
(4) वाचक शब्द–जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे—समान, सी, तुल्य, सदृश, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमालंकार होता है; जैसा उपर्युक्त उदाहरणों में है।
भेद-उपमा अलंकार के चार भेद होते हैं—(क) पूर्णोपमा, (ख) लुप्तोपमा, (ग) रसनोपमा और (घ) मालोपमा।
(क) पूर्णोपमा-[ संकेत-ऊपर बताया जा चुका है।

(ख) लुप्तोपमा–जहाँ उपमा के चारों अंगों (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और वाचक शब्द) में से किसी एक, दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार निम्नलिखित चार प्रकार का होता है-

  1. धर्म-लुप्तोपमा–जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे-तापसबाला-सी गंगा ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘सुन्दरता रूपी गुण का लोप है।
  2. उपमान-लुप्तोपमा–जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे-
    जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।।
    कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं ॥
    सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते।।
    स्पष्टीकरण–यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह उपमान ज्ञात नहीं है।
  3. उपमेय-लुप्तोपमा–जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे–
    कल्पलता-सी अतिशय कोमल ।।
    स्पष्टीकरण-यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कौन है कल्पलता-सी कोमल-यह नहीं बताया गया है।।
  4. वाचक-लुप्तोपमा–जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
    नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज-नयन ।
    स्पष्टीकरण-यहाँ वाचक शब्द ‘समान’ या उसके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अत: इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।

(ग) रसनोपमा–रसनोपमा अलंकार में उपमेय और उपमान एक-दूसरे से उसी प्रकार जुड़े रहते हैं, जिस प्रकार किसी श्रृंखला की एक कड़ी दूसरी कड़ी से; जैसे-

सगुन ज्ञान सम उद्यम, उद्यम सम फल जान ।
फल समान पुनि दान है, दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किये गये हैं; अतः इसमें रसनोपमा अलंकार है।
(घ) मालोपमा–जहाँ उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किये जाएँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-

हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु ।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं ।।।

स्पष्टीकरण-उपर्युक्त उदाहरण में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।।

2. रूपक [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18]

लक्षण (परिभाषा)–जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-

अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥

स्पष्टीकरण-इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी को, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप होने से रूपक अलंकार है। | भेद-रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है ।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ‘सांगरूपक’ होता है; जैसे-

उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरखे लोचन-भंग ॥

स्पष्टीकरण–यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज, मूंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक है।
(ii) निरंगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे–
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर, तरंगों से फेंकी मणि एक।
स्पष्टीकरण-इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यह निरंगरूपक है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे-
बन्दी पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
स्पष्टीकरण–यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल) बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरा रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक है।
उपमा और रूपक अलंकार में अन्तर–उपमा में उपमेय और उपमान में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा के समान है’ में उपमा है, किन्तु ‘मुख चन्द्रमा है’ में रूपक है।

उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार में अन्तर–जहाँ पर उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) में उपमान (उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है) की सम्भावना प्रकट की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-‘मुख मानो चन्द्रमा है। जहाँ उपमेय और उपमान में ऐसा आरोप हो कि दोनों में किसी प्रकार का भेद ही न रह जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-‘मुख चन्द्रमा है।

4. उत्प्रेक्षा [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे-

सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात ॥

स्पष्टीकरण-यहाँ पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रात:कालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। ‘मनौ’ यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो, इव आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं।
भेद-उत्प्रेक्षा अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं
(क) वस्तूत्प्रेक्षा–जब उपमेय (प्रस्तुत वस्तु) में उपमान (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तब वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

वहीं शुभ्र सरिता के तट पर, कुटिया का कंकाल खड़ा है।
मानो बाँसों में घुन बनकर शत शत हाहाकार खड़ा है।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर घुन (प्रस्तुत वस्तु) में हाहाकार (अप्रस्तुत वस्तु) की सम्भावना की गयी है। अत: वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है।
(ख) हेतूत्प्रेक्षा–जहाँ पर काव्य में अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है–

विनय शुक-नासा का धर ध्यान
बन गये पुष्प पलास अराल।

स्पष्टीकरण–यहाँ पर ढाक के फूलों का वक्र आकार होना स्वाभाविक है। नायिका की नुकीली नाक की उससे सम्भावना की जाए यह हेतु नहीं है; परन्तु यहाँ उसे हेतु माना गया है, अतएव अहेतु की सम्भावना होने से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।।

(ग) फलोत्प्रेक्षा–जब अफल में फल की सम्भावना की जाए वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है-

नित्य ही नहाती क्षर सिन्धु में कलाधर है
सुन्दरि ! तवानन की समता की इच्छा से ।

यहाँ पर चन्द्रमा का प्रतिदिन क्षीरसागर में स्नान करने का उद्देश्य सुन्दरी के मुख की समता प्राप्त करने में निहित है। वास्तव में ऐसा नहीं है, परन्तु इस प्रकार की सम्भावना की गयी है। अत: यहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।।

5. भ्रान्तिमान [2009, 10, 14, 15, 16, 18] |

लक्षण (परिभाषा)-जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे—रस्सी (उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।

कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब ।।
जानि अशोक अँगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ।

स्पष्टीकरण-यहाँ सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अँगूठी (उपमेय) में उन्हें अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने से यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

6. सन्देह [2009, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18]

लक्षण (परिभाषा)-जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो, तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे—

परिपूरन सिन्दूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं सक्र को छत्र मढ्यो मानिक मयूख पट ।।

स्पष्टीकरण-यहाँ लाल वर्ण वाले सूर्य में सिन्दूर भरे हुए घट’ तथा ‘लाल रंग वाले माणिक्य में जड़े हुए छत्र’ का सन्देह होने से सन्देह अलंकार है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर–सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं; जैसे-‘यह रस्सी है या साँप’। इसमें रस्सी (उपमेय) में साँप (उपमान) का सन्देह होता है, निश्चय नहीं; किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में उपमान का निश्चय हो जाता है; जैसे—रस्सी को साँप समझकर कहना कि ‘यह साँप है।

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