UP Board Solutions for Class 12 Samanya Hindi वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

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वाणिज्य सम्बन्धी निबन्ध

कुटीर एवं लघु उद्योग

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. कुटीर उद्योगों की स्वतन्त्रतापूर्व स्थिति,
  3. कुटीर उद्योगों की आवश्यकता,
  4. गाँधी जी का योगदान,
  5. कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप,
  6. उपसंहार

प्रस्तावना–वर्तमान सभ्यता को यदि यान्त्रिक सभ्यता कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। पश्चिमी देशों की सभ्यता यान्त्रिक बन चुकी है। हाथ से बनी वस्तु और यन्त्र से निर्मित वस्तु में किसी प्रकार की होड़ हो ही नहीं सकती; क्योंकि यन्त्र-युग अपने साथ अपरिमित शक्ति एवं साधन लेकर आया है। परन्तु विज्ञान की यह वरदान मानव-शान्ति के लिए अभिशाप भी सिद्ध हो रहा है। इसलिए युग-पुरुष महात्मा गाँधी ने यान्त्रिक सभ्यता के विरुद्ध कुटीर एवं लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की आवाज उठायी। वे कुटीर एवं लघु उद्योगों के माध्यम से ही गाँवों के देश भारत में आर्थिक समता लाने के पक्ष में थे।

थोड़ी पूँजी द्वारा सीमित क्षेत्र में अपने हाथ से अपने घर में ही वस्तुओं का निर्माण करना कुटीर तथा लघु उद्योग के अन्तर्गत है। यह व्यवसाय प्रायः परम्परागत भी होता है। दरियाँ, गलीचे, रस्सियाँ बनाना, खद्दर, मोजे, शाल बुनना, लकड़ी, सोने, चाँदी, ताँबे, पीतल की दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं का निर्माण करना आदि अनेक प्रकार की हस्तकला के कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं।

कुटीर उद्योगों की स्वतन्त्रतापूर्व स्थिति-औद्योगिक दृष्टि से भारत का अतीतकाल अत्यन्त स्वर्णिम एवं सुखद था। लगभग सभी प्रकार के कुटीर एवं लघु उद्योग अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर थे। ‘ढाके की मलमल अपनी कलात्मकता में बहुत ऊँची उठ गयी थी। मुसलमानी बादशाहों और नवाबों के द्वारा भी इसे विशेष प्रोत्साहन मिला। देश को आर्थिक दृष्टि से कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि प्राय: प्रत्येक गाँव स्वयं में अधिक-से-अधिक आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त कर सके। किन्तु अंग्रेजी शासन की विनाशकारी आर्थिक नीति तथा यान्त्रिक सभ्यता की दौड़ में न टिक सकने के कारण ग्रामीण जीवन की। औद्योगिक स्वावलम्बता छिन्न-भिन्न हो गयी। देश की राजनीतिक पराधीनता इसके लिए पूर्ण उत्तरदायी थी। ग्रामीण-उद्योगों के समाप्त होने से ग्राम्य जीवन का सारा सुख भी समाप्त हो गया।

कुटीर उद्योगों की आवश्यकता–भारत की दरिद्रता का प्रधान कारण कुटीर एवं लघु उद्योगों को विनाश ही रहा है। भारत में उत्पादन का पैमाना अत्यन्त छोटा है। देश की अधिकांश जनता अब भी छोटे-छोटे व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती है। भारत के किसानों को वर्ष में कई महीने बेकार बैठना पड़ता है। कृषि में रोजगार की प्रकृति मौसमी होती है। इस बेरोजगारी को दूर करने के लिए कुटीर-उद्योग का सहायक साधनों के रूप में विकास होना आवश्यक है। जापान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस आदि सभी देशों में गौण-उद्योग की प्रथा प्रचलित है।

भारत में कुटीर उद्योगों और छोटे पैमाने के कला-कौशल के विकास के महत्त्व इस रूप में भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यदि हम अपने बड़े पैमाने के संगठित उद्योगों में चौगुनी-पंचगुनी वृद्धि कर दें तो भी देश में वृत्तिहीनता की विशाल समस्या सुलझायी नहीं जा सकती। ऐसा करके हम केवल मुट्ठी भर व्यक्तियों की रोटी का ही प्रबन्ध कर सकते हैं। इस जटिल समस्या के सुलझाने का एकमात्र उपाय बड़े पैमाने के साथ-साथ कुटीर एवं लघु उद्योगों का समुचित विकास ही है, जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों को सहायक व्यवसाय और किसानों को अपनी आय में वृद्धि करने का अवसर मिल सके।

गाँधी जी का योगदान–गाँधी जी का विचार था कि बड़े पैमाने के उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन न देकर विशालकाय मशीनों के उपयोग को रोका जाए तथा छोटे उद्योगों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आवश्यक वस्तुएँ उत्पादित की जाएँ। कुटीर-उद्योग मनुष्य की स्वाभाविक रुचियों और प्राकृतिक योग्यताओं के विकास के लिए पूर्ण सुविधा प्रदान करता है। मशीन के मुंह से निकलने वाले एक मीटर टुकड़े को भी कौन अपना कह सकता है, जबकि वह भी उसी मजदूर के खून-पसीने से तैयार हुआ है। हाथ से बनी हुई प्रत्येक वस्तु पर बनाने वाले के नैतिक, सांस्कृतिक तथा आत्मिक व्यक्तित्व की छाप अंकित होती है, जबकि मशीन की स्थिति में इनका लोप हो जाता है और व्यक्ति केवल उस मशीन का एक निर्जीव पुर्जा मात्र रह जाता है।

कुटीर एवं लघु उद्योगों में आधुनिक औद्योगीकरण से उत्पन्न वे दोष नहीं पाये जाते, जो औद्योगिक नगरों की भीड़-भाड़, पूँजी तथा उद्योगों के केन्द्रीकरण, लोक-स्वास्थ्य की पेचीदा समस्याओं, आवास की कमी तथा नैतिक पतन के कारण उत्पन्न होते हैं।

कुटीर, लघु उद्योग थोड़ी पूँजी के द्वारा जीविका-निर्वाह के साधन प्रस्तुत करते हैं। पारस्परिक सहयोग से कुटीर उद्योग बड़े पैमाने में भी परिणत किया जा सकता है। कुटीर-उद्योग में छोटे-छोटे बालकों एवं स्त्रियों के परिश्रम का भी सुन्दर उपयोग किया जा सकता है। कुटीर-उद्योग की इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित होकर बड़े- बड़े औद्योगिक राष्ट्रों में भी कुटीर एवं लघु उद्योग की प्रथा प्रचलित है। जापान में 60 प्रतिशत उद्योगशालाएँ कुटीर एवं लघु उद्योग से संचालित हैं। कहा जाता है कि जर्मनी में प्रत्येक मनुष्य को रोटी देने का प्रबन्ध करने के लिए हिटलर ने कुटीर-उद्योगों की ही शरण ली थी।

कुटीर उद्योगों का नया स्वरूप—इस समय देश में छोटे कारखानों की संख्या मोटे तौर पर एक करोड़ से अधिक आँकी गयी है, परन्तु तेल की घानियाँ, खाँडसारी और ऐसी वस्तुओं के छोटे कारखाने, जिन्हें केवल एक आदमी चलाती है आदि को मिलाकर इनकी संख्या बहुत कम है। पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य उद्योगों को आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने का रहा है। अतः मुख्य रूप से ध्यान इस पर दिया जाएगा कि उद्योगों का विकास विकेन्द्रीकरण के आधार पर हो, शिल्पिक कुशलता में सुधार किया जाए और उत्पादकता बढ़ाने के लिए सहायता देकर छोटे उद्योग वालों की आय बढ़ाने में सहायता की जाए तथा दस्तकारों को सहकारिता के आधार पर संगठित करने के प्रयास किये जाएँ। इससे छोटे उद्योगों में उत्पादन का क्षेत्र बढ़ेगा। | उपसंहार—छोटे उद्योगों की गाँवों में स्थापना से न केवल ग्रामीण दस्तकारों की स्थिति में सुधार हुआ है, बल्कि गाँवों में रोजगार की सुविधा भी बढ़ी है। अत: ग्राम विकास कार्यक्रमों में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिए हमारी सरकार इन्हें वैज्ञानिक पद्धति से सहकारिता के आधार पर संचालित करने की व्यवस्था कर रही है। इसकी सफलता पर ही हमारे जीवन में पूर्ण शान्ति, सुख और समृद्धि की कल्याणकारी गूंज ध्वनित हो सकेगी।

आर्थिक उदारीकरण एवं निजीकरण की नीति

प्रमुख विचार-बिन्दु-

  1. प्रस्तावना,
  2. पं० नेहरू की विचारधारा,
  3. भारतीय अर्थव्यवस्था,
  4. उदारीकरण की अर्थ,
  5. निजीकरण का अर्थ,
  6. नयी औद्योगिक नीति,
  7. उपसंहार

प्रस्तावना-आजकल ‘उदारीकरण’ शब्द का प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हो गया है और इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे देश की जर्जर अर्थव्यवस्था का उद्धार केवल यही पद्धति कर सकती है। इस व्यवस्था के पक्षधरों का मानना है कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत ने आर्थिक विकास हेतु जिस नीति का अनुगमन किया वह सरकारी नियन्त्रण पर आधारित रही और निजी उद्यमिता इससे :भावित हुई। फलतः देश की आर्थिक उन्नति में अपेक्षित उन्नति नहीं हुई। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि ‘परमिट लाइसेंस राज ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में गतिरोध ही उत्पन्न किया है।

पं० नेहरू की विचारधारा--ज्ञातव्य है कि सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र किसी भी उन्नतिशील देश के विकास के मूल में होते हैं और इन्हीं से उस देश की आर्थिक प्रक्रिया नियन्त्रित होती है। पं० जवाहरलाल नेहरू का विचार था कि यदि देश का सर्वांगीण विकास करना है तो प्रमुख उद्योगों को विकसित किया जाना आवश्यक होगा। उनका विचार था कि दुनिया में अनेक आर्थिक विचारधाराओं में संघर्ष हो रहा है। मुख्यतः दो धाराएँ हैं-एक ओर तो तथाकथित पूँजीवादी विचारधारा है और दूसरी ओर तथाकथित सोवियत रूस की साम्यवादी विचारधारा। प्रत्येक पक्ष अपने दृष्टिकोण की यथार्थता का कायल है। लेकिन इससे जरूरी तौर पर यह नतीजा नहीं निकलता है कि आप इन दोनों पक्षों में से एक को स्वीकार करें। बीच के कई दूसरे तरीके भी हैं। पूँजीवादी औद्योगिक व्यवस्था ने उत्पादन की समस्या को अत्यधिक सफलता से हल किया है। लेकिन उसने कई समस्याओं को हल नहीं भी किया है। यदि वह इन समस्याओं को हल नहीं कर सकता तो कोई और रास्ता निकालना होगा। यह सिद्धान्त का नहीं कठोर तथ्य का सवाल है। भारत में यदि हम अपने देश की भोजन, वस्त्र, मकान आदि की बुनियादी समस्याएँ हल नहीं कर सकते तो हम अलग कर दिये जाएँगे और हमारी जगह कोई और आएगा। इस समस्या के हल के लिए चरमपंथी तरीका ही नहीं वरन् बीच का रास्ता भी अपनाया जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था--भारत में जिस प्रकार की अर्थव्यवस्था प्रारम्भ हुई उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। मिश्रित अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है ऐसी व्यवस्था जहाँ कुछ क्षेत्र में सरकारी नियन्त्रण रहता है तथा अन्य क्षेत्र निजी व्यवस्था के अधीन रहते हैं और क्षेत्रों का वर्गीकरण पूर्णतया पूर्व सुनिश्चित रहता है।

हिन्दुस्तान में आजादी से पूर्व किसी सुनियोजित औद्योगिक नीति की घोषणा नहीं हुई थी। स्वातन्त्र्योत्तर प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना पर आधारित थी। सन् 1956 में जो औद्योगिक नीति बनी, वह प्रमुख एवं आधारभूत उद्योगों के त्वरित विकास तथा समाजवादी समाज की स्थापना जैसे लक्ष्यों पर आधारित थी। बाद में उसमें कतिपय नीतिगत परिवर्तन हुए जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में व्याप्त अवरोधों को दूर किया जा सका।

उदारीकरण का अर्थ-आर्थिक प्रतिबन्धों की न्यूनता को ही उदारीकरण कह सकते हैं। प्रतिबन्धों के कारण प्रतियोगिता का अभाव रहता है, फलतः उत्पादक वर्ग वस्तु की गुणवत्ता के प्रति उदासीन रहता है किन्तु यदि प्रतिबन्धों का अभाव कर दिया जाए तो इसका परिणाम दूरगामी होता है। उदारवादियों का मानना है और नियन्त्रित अर्थव्यवस्था या सरकारीकरण से उद्यमिता का विकास बाधित होता है।

यहाँ पर उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि निजीकरण को सम्प्रति विश्व के अधिकांश विकसित एवं अर्द्धविकसित देशों में अपनाया गया है। चूंकि सरकारी उद्योगों में प्रतियोगिता का अभाव रहता है और इसमें उत्पादकता को बढ़ाने का कोई विशेष प्रयास नहीं होता। फलतः इन उद्योगों में कुशलता घट जाती है, किन्तु विकल्प रूप में निजीकरण ही सबसे बेहतर व्यवस्था है, यह भी नहीं कहा जा सकता।

निजीकरण का अर्थ-निजीकरण’ का अर्थ उत्पादनों के साधनों का निजी हाथों में होना है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि निजीकरण का उद्देश्य अल्पकाल में अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। इस कारण यह दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धात्मक बाजार नहीं बनाये रहता। प्रायः सरकारी घाटों को पूरा करने के लिए निजीकरण का तरीका अपनाया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति का निजी हाथों में विक्रय उसी दशा में किया जाना चाहिए जब कि वह राष्ट्रीय ऋण को कम करने में सहायक हो। सन् 1993 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उदारीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप बेरोजगारी और मुद्रा स्फीति दोनों में वृद्धि हुई है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर रुद्र दत्त ने ‘इम्पैक्ट ऑफ इकनॉमिक पॉलिसी ऑन लेबर एण्ड इण्डस्ट्रियल रिलेशन की रिपोर्ट में कहा था कि उदारीकरण ने उत्पादन की संरचना को भी विकृत किया है।

‘नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी के प्रमुख शोधकर्ता सुदीप्तो मण्डल का मानना है कि उदारीकरण के परिणामस्वरूप मिल-मालिकों की उग्रता बढ़ी है जबकि श्रमिक वर्ग के जुझारूपन में कमी आयी है।

नयी औद्योगिक नीति–विगत वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक नियन्त्रित एवं विनियमित अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हुई है। 24 जुलाई, 1991 को भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के एक अंग के रूप में विकसित करने के लिए नयी औद्योगिक नीति तैयार हुई जिसे उदार एवं क्रान्तिकारी नीति की संज्ञा दी गयी है। इस नीति का लक्ष्य है

  1. अर्थव्यवस्था में खुलेपन को लाना।
  2. अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नियन्त्रणों से मुक्त रखना।
  3. विदेशी सहयोग एवं भागीदारी को बढ़ावा देना।
  4. रोजगार के अवसर बढ़ाना।
  5. सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना।
  6. आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था को विकसित करना।
  7. निर्यात बढ़ाने के लिए आयातों को उदार बनाना।
  8. उत्पादकता वृद्धि हेतु प्रोत्साहन देना आदि।

वर्तमान औद्योगिक नीति के अन्तर्गत उद्योगों पर लगे प्रशासनिक एवं कानूनी नियन्त्रणों में शिथिलता दी गयी है। सभी मौजूदा उत्पादन इकाइयों को विस्तार परियोजनाओं को लागू करने के लिए पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं है। उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में विदेशी पूँजी के निवेश को 40 प्रतिशत के स्थान पर 51 प्रतिशत तक की अनुमति देने के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को बनाये रखने पर बल दिया गया है। विदेशी तकनीशियनों की सेवाएँ किराये पर लेने तथा स्वदेश में विकसित प्रौद्योगिकी की विदेशों में जॉच करने के लिए अब स्वतः अनुमति की व्यवस्था है।

यह तो ठीक है कि नयी औद्योगिक नीति से उत्पादन वृद्धि, निर्यात संवर्द्धन, औद्योगीकरण, तकनीकी सुधार, प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति का विकास तथा नये उद्यमियों को प्रोत्साहन प्राप्त होगा किन्तु अत्यधिक उदारीकरण एवं विदेशी पूँजी के निवेश की स्वतन्त्र छूट से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय निगमों एवं बड़े औद्योगिक घरानों के चक्र में फंस जाएगी। इस नीति के निम्नलिखित दूरगामी दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं|

  1. आर्थिक विषमता में वृद्धि।
  2. आत्मनिर्भरता में ह्रास।
  3. आयतित संस्कृति को बढ़ावा।
  4. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं विदेशी विनियोजकों को स्वतन्त्र छूट देने से देशी उद्यमियों का प्रतिस्पर्धा में टिक पाना कठिन।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव।
  6. काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि उदारीकरण की हवा पश्चिम से चली है। ठीक है कि निजी उद्योगों की उत्पादन संवृद्धि में विशेष भूमिका हो सकती है किन्तु हस्तक्षेप के अभाव में निजी उद्यमिता विनाशात्मक हो सकती है और किसी भी रूप में निजीकरण सार्वजनिक इकाइयों की त्रुटियों को दूर करने वाला प्रभावपूर्ण उपकरण नहीं हो सकता है। निजीकरण से निजी क्षमता का लाभ होगा और सार्वजनिक इकाइयाँ अस्वस्थ होंगी।

उपसंहार-उदारीकरण से आशय यह नहीं है कि सरकार की भूमिका इसमें कम होती है, अपितु इसमें उसका उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है और आर्थिक उदारीकरण का औचित्य सही मायने में तभी सिद्ध हो सकेगा, जब उससे जन-साधारण लाभान्वित हो सकेगा। उदारीकरण की नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिशील एवं प्रतिस्पर्धात्मक बनाने में सफल हो सकती है। किन्तु विदेशी पूँजी पर आश्रितता, विदेशी आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना एवं बड़े औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बढ़ेगा, जिससे गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि होगी। अतः इस नीति को दूरदर्शितापूर्वक लागू करना होगा अन्यथा अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों के भारत में आने से भारतीय कम्पनियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा, जो कि आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यधिक हानिकारक है।

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