UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 10 Juvenile Delinquency
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध) are part of UP Board Solutions for Class 11 Psychology. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध).
Board | UP Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Psychology |
Chapter | Chapter 10 |
Chapter Name | Juvenile Delinquency (बाल-अपराध) |
Number of Questions Solved | 52 |
Category | UP Board Solutions |
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 10 Juvenile Delinquency (बाल-अपराध)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बाल-अपराध से आप क्या समझते हैं? इसे परिभाषित कीजिए। बाल-अपराधी के लक्षण बताइए।
उत्तर :
बाल-अपराध का अर्थ
(Meaning of Juvenile Delinquency)
कानून की सीमित परिधि में कानूनी नियमों को तोड़ने वाला कार्य ‘अपराध’ और ऐसे कार्य करने वाला व्यक्ति अपराधी है। ‘अपराध’ और ‘अपराधी’ के समाजशास्त्रीय अर्थ में इन शब्दों की परिधि व्यापक हो जाती है—प्रत्येक समाज-विरोधी कार्य ‘अपराध तथा उस कार्य को करने वाला व्यक्ति ‘अपराधी’ कहलाता है। मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में इस समाजशास्त्रीय अर्थ को ही ग्रहण कर लिया गया है। जिसमें कानूनी अर्थ भी समाहित है। उल्लेखनीय रूप से, समाज-विरोधी कार्य करने वाला व्यक्ति यदि वयस्क न होकर बालक है तो उसे ‘बाल-अपराधी’ कहते हैं। बालंक द्वारा किया गया ऐसा कोई भी कार्य जो समाज-विरोधी है और कानूनी नियमों को भी भंग कर सकता है, ‘बाल-अपराध’ कहलाता है।
यह स्पष्ट करना भी उचित है कि प्रत्येक समाज-विरोधी कार्य तो कानून-विरोधी नहीं होता लेकिन प्रत्येक कानून-विरोधी कार्य समाज-विरोधी अवश्य होता है। बाल-अपराध के अन्तर्गत दोनों ही प्रकार के कार्य सम्मिलित किये जाते हैं।
स्पष्टतः बाल-अपराध का निश्चय करने में ‘आयु’ एक प्रमुख एवं अनिवार्य तत्त्व है जिसका निर्धारण प्रत्येक देश के संविधान द्वारा किया जाता है। विभिन्न देशों में बाल-अपराध की आयु सीमा को निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया जा सकता है –
भारत में 18 वर्ष से नीचे के अपराधी बाल-अपराधी हैं और इनके विषय में विभिन्न राज्यों में ‘बाल-अपराध अधिनियम लागू किये गये हैं। ये अधिनियम उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक में निर्मित हो चुके हैं। जहाँ यह अधिनियम निर्मित नहीं हुआ है, वहाँ ‘रिफोर्मेट्री स्कूल अधिनियम (1897)’ लागू किया गया है। इसके अन्तर्गत बच्चों को अपराधी वातावरण से हटाकर सुधार-गृहों में रखने का प्रावधान है। मुम्बई और मध्य प्रदेश में बाल-अपराधी की अधिकतम आयु सीमा 16 वर्ष है। उत्तर प्रदेश में प्रथम अपराधी अधिनियम (First Offenders Act) लागू है, जिसके अन्तर्गत यदि 18 वर्ष से छोटा बालक पहली बार अपराध करता है तो एक ऑफिसर की निगरानी में प्रोबेशन पर छोड़ दिया जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि नवीनतम कानूनी संशोधनों के अनुसार अब हत्या, बलात्कार आदि जघन्य अपराधों के लिए 16 वर्ष की आयु को निर्धारित किया गया है। ऐसे बाल अपराधियों को 2 वर्ष तक सुधार-गृह में रखने के उपरान्त सामान्य अपराधियों के रूप में देखा जाता है।
बालू-अपराध की परिभाषा
(Definition of Juvenile Deliquency)
बाल-अपराध की मनोवैज्ञानिक परख उसकी कानूनी परख से भिन्न और व्यापक समझी जाती है। यही कारण है कि बाल-अपराध की मनोवैज्ञानिक परिभाषा भी उसकी कानूनी परिभाषा से कहीं अधिक व्यापक है। इस सन्दर्भ में कुछ विख्यात मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
(1) होली के अनुसार, “व्यवहार के सामाजिक नियमों से विचलित होने वाले बालक को बाल-अपराधी कहते हैं।”
(2) न्यूमेयर ने बाल-अपराध तथा बाल-अपराधी दोनों ही के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उसके अनुसार, “एक बाल-अपराधी निर्धारित आयु से कम आयु वाला वह व्यक्ति है, जो समाज-विरोधी कार्य करने का दोषी है तथा जिसका दुराचरण कानून का उल्लंघन है।’ बालअपराधी का अर्थ स्पष्ट करने के उपरान्त न्यूमेयर ने बाल-अपराध को इन शब्दों में स्पष्ट किया है, इस अपराध के अन्तर्गत एक समाज-विरोधी व्यवहार सम्मिलित होता है जो व्यक्तिगत और सामाजिक विघटन से मुक्त होता है।”
(3) सिरिल बर्ट के मतानुसार, “किसी बालक को बाल-अपराधी वास्तव में तभी मानना चाहिए जब उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्तियाँ इतना गम्भीर रूप ले लें कि उस पर सरकारी कार्यवाही आवश्यक हो जाए।”
(4) डॉ० सेठना के कथनानुसार, “बाल-अपराध से अभिप्राय किसी स्थान-विशेष के नियमों के अनुसार एक निश्चित आयु से कम के बालक या युवक व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अनुचित कार्य है।” ‘ .
(5) संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, “बाल-अपराधी वह नवयुवक या नवयुवती है जिसने निश्चित आयु के भीतर दण्ड विधान के अन्तर्गत अपराध किया और जिसे न्याय अदालत या बाल-कल्याण समिति जैसी संस्था के सामने पेश किया गया है ताकि उसकी ऐसी चिकित्सा का प्रबन्ध हो सके जिससे वह समाज द्वारा पुनः स्थापित यानि स्वीकृत हो जाए।
(6) भारतीय विद्वान् डॉ० सुशील चन्द्र के शब्दों में, “शैतानीपन जब एक ऐसी आदत के रूप में विकसित हो जाता है, जो समाज में प्रतिष्ठा प्रतिमान की सीमाओं को पार कर जाती है तो उससे जिस व्यवहार का उदय होता है, वही बाल-अपराध कहलाता है।”
बाल-अपराधी की विशेषताएँ या लक्षण
सैद्धान्तिक रूप से राज्य द्वारा निर्धारित किसी भी कानून के बालक द्वारा होने वाले उल्लंघन को बाल अपराध की श्रेणी में रखा जाता है, परन्तु बालकों द्वारा किये जाने वाले कुछ सामान्य कार्यों को जानना आवश्यक है। इस वर्ग के कुछ कार्य या लक्षण निम्नवर्णित हैं
- आमतौर पर चोरी करना। यह घर, विद्यालय या कहीं भी हो सकती है।
- झूठ बोलने की आदत।
- अधिक शैतानी करना, आवारागर्दी करना, बुरा व्यवहार करना तथा उद्दण्डता।
- सार्वजनिक स्थानों पर भीख माँगना।
- धूम्रपान तथा नशाखोरी करना एवं जुआ खेलना।
- समय-समय पर विद्यालय से भाग जाना।
- विद्यालय में वस्तुओं को नष्ट करना, तोड़-फोड़ करना तथा मार-पीट करना।
- सार्वजनिक रूप से नंगपाने या निर्लज्जता का प्रदर्शन।
- अश्लील बातें करना या दीवारों पर गन्दी बातें लिखना।
- लड़कियों या महिलाओं से छेड़खानी करना।
- समलिंगीय या विषमलिंगीय यौन-सम्बन्ध स्थापित करना।
- रात के समय बिना किसी उद्देश्य के सड़कों या रेलवे लाइनों पर घूमना।
- ऐसा कोई भी कार्य करना जिससे स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुँच सकती
- अवैध कामों जैसी तस्करी या नशीली दवाओं का लेन-देन करना।
उपर्युक्त विशेषताओं और लक्षणों के आधार पर निम्नलिखित कृत्यों को बाल-अपराध के अन्तर्गत शामिल किया जा सकता है –
(1) चुनौती देने की प्रवृत्तियाँ
- चोरी करना
- झूठ बोलना
- बिना किसी प्रयोजन के इधर-उधर घूमना
- कक्षा छोड़कर भागना
- लड़ाई-झगड़ा करना
- अन्य बालकों को चिढ़ाना
- स्कूल की चीजें नष्ट करना
- धूम्रपान करना
- प्रताड़ित करना
- ललकारना
- दूसरों को पीड़ा पहुँचाना
- दीवार पर लिखना
- शेखी बघारना।
(2) यौन अपराध –
- हस्तमैथुन
- समलिंगीमैथुन
- निर्लज्ज प्रदर्शन तथा नंगापन
- इच्छा रखने वाले समान आयु के विषमलिंगी सदस्य के साथ कामुक क्रिया
- इच्छा ने रखने वाले छोटी आयु के विषमलिंगी सदस्य के साथ कामुक क्रिया करना आदि।
प्रश्न 2.
बाल-अपराध के कौन-कौन से कारण होते हैं? बाल-अपराध के सामाजिक कारकों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
या
बाल-अपराध के सामाजिक कारणों को बताइए। इन कारणों को दूर करने के लिए घर और विद्यालय द्वारा क्या उपाय किये जा सकते हैं?
उत्तर :
आधुनिक समय में ‘बाल-अपराध’ (Juvenile Delinquency) अत्यन्त गम्भीर सामाजिक समस्या के रूप में उभर रहे हैं। विश्व के प्रायः समस्त देशों में बाल-अपराधियों की संख्या में निरन्तर तथा अबाध गति से वृद्धि हो रही है। विभिन्न कारकों के प्रभाव से बालकों की प्रवृत्ति समाज-विरोधी । कार्यों की ओर बढ़ती जा रही है। बाल-अपराध जैसे गम्भीर एवं जटिल समस्या निश्चय ही विभिन्न कारकों की क्रियाशीलतों का परिणाम है।
बाल-अपराध के कारण।
(Causes of Juvenile Delinquency)
अपराधशास्त्र की नवीन विचारधाओं के अन्तर्गत बाल-अपराध के विभिन्न कारणों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। कुछ अपराधशास्त्रियों ने इसे दो कारकों में बाँटा है(अ) आन्तरिक कारण–इनमें शारीरिक व मनोवैज्ञानिक कारक सम्मिलित हैं। (ब) बाह्य कारण–इनमें विभिन्न सामाजिक कारण आते हैं। अमेरिकी अपराधशास्त्री लिंडस्मिथ तथा डनहेम ने इनके दो वर्ग बताये हैं – (अ) सामाजिक अपराधी तथा (ब) व्यक्तिगत अपराधी। सामाजिक अपराधी सामाजिक कारणों से तथा व्यक्तिगत अपराधी व्यक्तिगत कारणों से पैदा होते हैं। वाल्टर रैकलैस ने (अ) रचनात्मक–स्वयं व्यक्ति की संरचना में सन्निहित तथा (ब) परिस्थितिगतपरिस्थितिजन्य कारण-दो कारण बताये हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों की दृष्टि में (i) समाजजन्य कारण तथा (i) मनोजन्य कारणों से बाल-अपराधी उत्पन्न होते हैं।
बाल-अपराध के सामाजिक कारण
(Social Causes of Juvenile Delinquency)
बाल-अपराध के सर्वप्रमुख एवं व्यापक कारक सामाजिक कारण हैं। समाज की कुछ परिस्थितियाँ बालक को अपराधी बनने के लिए मजबूर कर देती हैं; इसीलिए इन्हें परिस्थितिजन्य अथवा समाजजन्य कारण भी कहा जाता है। बाल-अपराध के प्रमुख सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं।
(1) परिवार – परिवार एक आधारभूत सामाजिक संस्था है जो सामाजिक नियन्त्रण के लिए अत्यन्त शक्तिशाली साधन भी है। परिवार की सामान्य परिस्थितियाँ यदि अपराध के विरुद्ध सुरक्षा कवच का कार्य करते हैं तो इसके विपरीत परिवार की असामान्य परिस्थितियाँ बालक के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करती हैं। कभी-कभी परिवार ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है। जिनसे विवश होकर बालक अपराध करता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री इलियट तथा मैरिल ने बाल-अपराध का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण परिवार का दुष्प्रभाव माना है। हीली तथा ब्रोनर ने अमेरिका में घनी आबादी वाले शिकागो एवं बोस्टन नगर के 4000 बाल-अपराधियों का अध्ययन किया। इनमें से 20% वे किशोर थे जो पारिवारिक परिस्थितियों के दुष्प्रभाव से अपराधी बने थे। परिवार की वे प्रमुख परिस्थितियाँ जिनसे प्रेरित होकर बालक अपराध करता है निम्नलिखित हैं
(i) भग्न परिवार – ऐसा परिवार जिसमें पति-पत्नी में मतैक्य न हो, उनमें पृथक्करण हो गया हो, एक ने दूसरे को तलाक दे दिया हो या दोनों में से कोई एक मर गया हो अथवा अन्य किसी कारण से परिवार अपूर्ण हो तथा उसमें संगठन का अभाव हो, भग्न परिवार कहलाता है। इन परिवारों में बालकों की उपेक्षा होने लगती है, उनकी इच्छाएँ या आवश्यकताएँ अधूरी रहती हैं तथा उनमें विचारों के संघर्ष उठा करते हैं। ऐसे अस्थिर मन और असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण वे अनुचित एवं अनैतिक कार्य कर बैठते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिकांश बाल-अपराधी भग्न परिवारों की देन हैं।
(ii) अन-अपेक्षित एवं अधिक बच्चे – अधिक बच्चों वाले परिवार में बालक की उपेक्षा स्वाभाविक है। एक शोध कार्य का निष्कर्ष था कि 6 बच्चों वाले 336 परिवारों में 12% बच्चे अपराधी बने गये। अन-अपेक्षित बालक असामान्य दशाओं में पलते हैं। कभी-कभी अपने माता-पिता के सान्निध्य से वंचित रहकर उन्हें किसी अनाथालय आदि की शरण लेनी पड़ती है; अत: उन्हें माता-पिता का लाड़-प्यार नहीं मिल पाता। इसके अतिरिक्त उन्हें समाज की घृणा ही सहनी पड़ती है। इसके फलस्वरूप संवेगात्मक संघर्ष के कारण उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और वे अपने विरोधी पक्ष के प्रति असामान्य व उग्र व्यवहार प्रदर्शित करने लगते हैं। परिवार में अधिक बच्चों या अन-अपेक्षित बच्चों की सामान्य आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पातीं जिनकी क्षतिपूर्ति वे अपराधों द्वारा करते हैं।
(iii) माता-पिता का असमान या उपेक्षापूर्ण व्यवहार – माता-पिता को बच्चों का साथ असमान या उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी अपराध का कारण बनता है। प्रायः माता-पिता सबसे बड़े या सबसे छोटे बच्चो को अधिक लाड़-प्यार करते हैं जिससे वह बच्चा स्वयं को दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण समझने लगता है और अपने अधिकारों के प्रति आवश्यकता से अधिक जागरूक हो जाता है। दूसरे भाई-बहन ‘स्वयं को तिरस्कृत एवं उपेक्षित महसूस कर उससे ईष्र्या रखने लगते हैं। वे शनैः-शनैः असामाजिक होने लगते हैं तथा समाज-विरोधी कृत्यों द्वारा अपराध की ओर उन्मुख होते हैं।
(iv) विमाता या विपिता का दुर्व्यवहार – सौतेली माँ का दुर्व्यवहार बच्चे को घर से भाग जाने तथा बुरी संगत में फँस जाने को बाध्य करता है। माँ के प्रेम से वंचित तथा अपने को अपेक्षित समझने वाले ये बच्चे प्रतिक्रिया स्वरूप विरोध प्रकट करने के लिए समाज-विरोधी कार्यों में जुट जाते हैं। ऐसी विधवा स्त्री जिसकी पहले पति से सन्तान हों, यदि दूसरा विवाह कर लेती है तो उसकी पूर्व सन्तानों को अपने नये पिता से वांछित व्यवहार नहीं मिल पाता। ऐसी दशाओं में भी बच्चे अपराध की दुनिया में कदम रख देते हैं।
(v) परिवार के अन्य सदस्यों का अनैतिक प्रभाव – बालक अधिकांश बातें अनुकरण से सीखते हैं। अतः परिवार के अन्य सदस्यों; जैसे – बालक के भाई-बहन, चाचा, मामा, मौसी, बुआ आदि का कोई भी अनैतिक व्यवहार या समाज-विरोधी कार्य स्वभावतः उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। प्रायः अपराधी प्रवृत्ति के बड़े भाई-बहन का आचरण छोटे बालक को अपराधी की दिशा में मोड़ देता है। मिस इलियट ने अपराधी बालिकाओं से सम्बन्धित एक अध्ययन में पाया कि 67% अपराधी लड़कियाँ अनैतिक परिवारों की थीं।
(vi) माता-पिता की बेकारी – जिन परिवारों में माता-पिता बेरोजगार होते हैं तथा धनोपार्जन नहीं कर पाते, ऐसे परिवारों में अभावग्रस्तता के कारण बच्चों को अपने निर्वाह के विषय में स्वयं सोचना पड़ता है। इन परिवारों के बच्चे, असामाजिक, अनैतिक व कानून-विरोधी कार्य करना शुरू कर देते हैं।
(2) विद्यालय – परिवार की भाँति विद्यालय भी बालक के समाजीकरण तथा सामाजिक प्रशिक्षण का एक सशक्त माध्यम है। विद्यालय की शिक्षा, साहचर्य तथा प्रशिक्षण बालक के व्यक्तित्व पर जीवन-पर्यन्त असर रखते हैं। बालक को अपराधी बनाने में विद्यालय का भी बड़ा योगदान है। आदर्शात्मक व्यवहार को विकसित करने का अभिकरण समझी जाने वाली ‘कुंछ शिक्षा संस्थाएँ तो बाल-अपराधों के प्रशिक्षण केन्द्र का कार्य कर रही हैं। विद्यालयों की शिक्षा न तो बालकों के लिए रुचिपूर्ण है और न ही सार्थक विद्यालय बालकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता, बल्कि अधिकांश बालकों के लिए वह दिन का कारावास है। अमनोवैज्ञानिक शिक्षण, शिक्षक का दुर्व्यवहार, दुरूह पाठ्यक्रम, कठोर अनुशासन और दण्ड बालक को स्कूल से भागने के लिए प्रेरित करता है। स्कूल से भागा हुआ बच्चा आवारागर्दी करता है; वह चोरी, लड़ाई-झगड़ा, फिल्म तथा यौन अपराधों की शरण लेता है। अधिकांश किशोर पेशेवर अपराधियों के चंगुल में फंस जाते हैं। बहुत-से विद्यालयों के किशोर मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं तथा उसी के दुश्चक्र में फंसकर अपराधी बन जाते हैं। स्पष्टत: आज के विद्यालयों का वातावरण बाल-अपराधियों की संख्या में वृद्धि करने वाला है।
(3) अपराधी क्षेत्र या समुदाय – कुछ सामाजिक क्षेत्र अथवा समुदाय ऐसे हैं जहाँ कोई सामाजिक नियम लागू नहीं होता जिसके परिणामस्वरूप वहाँ अपराधियों तथा अपराधों की संख्या बढ़ जाती है। भिन्न-भिन्न बस्तियों में बाल-अपराध की भिन्न-भिन्न दर पायी जाती है। महानगरों की झोंपड़-पट्टियाँ (Slums) अस्थिर बस्तियाँ होती हैं, इनमें सबसे निचले वर्ग के गरीब और अशिक्षित लोग रहते हैं। इन स्थानों पर निर्धनता, अशिक्षा, बीमारी, पारिवारिक विघटन, मानसिक विकार आदि की विषम परिस्थितियाँ बनी रहती हैं तथा मनोरंजन के स्वस्थ साधनों का पूर्ण अभाव रहता है। इन्हीं कारणों से यहाँ अपराध पनपते हैं और अपराधी लोग शरण भी पाते हैं। अपराध की दर बस्ती की सघनता के साथ चलती है। कम बसी हुई बस्तियों में कम अपराध तथा घनी बसी हुई बस्तियों की अपराध दर अधिक होती है। कुछ नगरों में विशेष रूप से अपराध-क्षेत्र बन जाते हैं; जैसे-लालबत्ती क्षेत्र जो वेश्यावृत्ति का स्थान होता है। यहाँ चोर-उचक्के, जुआरी, जेबकतरे, दलाल तथा विभिन्न असामाजिक धन्धे करने वाले बहुतायत से मिलते हैं। इन क्षेत्रों से सम्बन्धित बालक इसके गम्भीर दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते। इसके अतिरिक्त पुलिस के रिकॉर्ड में कुछ अपराधी जातियों, जिन्हें जरायमपेशा जातियाँ कहते हैं, दर्ज होती हैं। इनके लिए अपराध एक पेशे के रूप में मान्य हैं; अत: इनके अनुभवी व बुजुर्ग लोग अपने बालकों को चोरी, उठाईगिरि, सेंध लगाना तथा जेब काटना आदि स्वयं सिखाते हैं।
(4) बुरी संगति – बुरी संगति बालक को अपराध की ओर ले जाती है। जिन घरों के पड़ोस में चोर-उचक्के, गुण्डे, शराबी या वेश्याओं का निवास होता है, उनसे प्रभावित बालक उन्हीं की तरह की क्रियाएँ करने लगते हैं। चरित्रहीन एवं अनैतिक प्रौढ़ों के सम्पर्क में रहने वाले बालकों में गन्दी आदतें पड़ जाती हैं। कुछ प्रौढ़ समलिंगी दुराचार के आदी होते हैं तथा छोटी आयु के बालकों को अपना शिकार बनाते हैं। ऐसे बालक जल्दी ही यौन विकारों के शिकंजे में फंस जाते हैं। इसी प्रकार समवयस्क साथियों की बुरी संगति भी बालक को आवारा और अपराधी बना देती है।
(5) सामाजिक विघटन – समाज के विघटन की स्थिति में नैतिक मूल्यों के टूटने से व्यक्ति का विघटन प्रराम्भ हो जाता है जिसके फलस्वरूप बाल-अपराधियों की संख्या बढ़ने लगती है। सामाजिक विघटन के बहुत-से कारण हैं; जैसे—भूकम्प, तूफान, बाढ़, सूखा एवं अन्य प्राकृतिक कारण, युद्ध, औद्योगीकरण तथा आर्थिक कारण। इन कारणों से मुसीबत और यातनाओं के शिकार लोग समाज की प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा मूल्य का खुलेआम उल्लंघन करते हैं और अपराध करने लगते हैं। उनका अनुकरण करके बालक भी कानून तोड़ते हैं और अपराधोन्मुख होते हैं।
(6) स्वस्थ मनोरंजन का अभाव – मनोरंजन के स्वस्थ एवं उपयुक्त साधनों का बालक के व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनोरंजन के साधनों का अभाव या उनका दूषित होना बालक के हित में नहीं है। आजकल फिल्में मनोरंजन का सर्वसुलभ और सबसे सस्ता साधन समझी जाती हैं। किन्तु; फिल्मों में दर्शायी गयी हिंसा, मारधाड़, अश्लीलता तथा समाज-विरोधी कार्यों के तौर-तरीके बालक-बालिकाओं के अपरिपक्व मस्तिष्क को प्रदूषित करते हैं। इनसे स्वस्थ मनोरंजन के स्थान पर असामाजिक कृत्य, गन्दी भाषा, कामुकता तथा अपराधी प्रवृत्तियाँ ही प्राप्त होती हैं। बर्ट द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार 7% बाल-अपराधी फिल्मों के बेहद शौकीन थे। जहाँ एक ओर मनोरंजन के दूषित साधन बालकों को अपराध की दिशा में मोड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्वस्थ मनोरंजन का अभाव भी अपराध बढ़ाने में सहायक है। मनोरंजन के अभाव में बालक ऐसे अनुचित साधनों से मन बहलाने लगते हैं जिनसे न केवल उनका समय व्यर्थ होता है, बल्कि उनमें असामाजिक प्रवृत्तियाँ भी उभरती हैं। ऐसे बालक सड़कों पर आवारा घूमते हुए, खेलकूद मचाते हुए, काँच की गोलियाँ खेलते हुए, भाँडों का नाच देखते हुए या जुए जैसे खेलों में रत पाये जाते हैं। बर्ट का यह निष्कर्ष उचित ही है कि सबसे ज्यादा बाल-अपराधी सड़कछाप मनोरंजन द्वारा बनते हैं।
(7) स्थानान्तरण – नौकरीपेशे वाले बहुत-से माता-पिता जल्दी-जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके बालकों में उच्छृखलता बढ़ जाती है। ऐसे बालक छात्रावासों से, मकान मालिकों के घरों से या पास-पड़ोस सम समाज-विरोधी कार्यों की दीक्षा लेते हैं और धीरे-धीरे निजी अपराध-क्षेत्र का विकास कर लेते हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा किये गये एक अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार बाल-अपराधी स्थानान्तरण वाले क्षेत्रों में बहुतायत से पाये जाते हैं।
(8) युद्ध – युद्ध भय एवं आतंक से युक्त समाज की एक आपात स्थिति है। इस स्थिति में तथा इसके बीत जाने पर बाल-अपराध की दरें बढ़ जाती हैं। युद्ध में हिंसा का खुला प्रदर्शन किशोरों के मन में सोती हुई हिंसक प्रवृत्तियों को जगा देता है जिससे हत्या व लूटमार को बढ़ावा मिलता है। युद्धकाल में सैनिकों और उनके परिवारजनों की भारी व्यस्तता के कारण बालकों पर से नियन्त्रण कम हो जाता है। इसके परिणामत: किशोर-किशोरियों को आपस में सम्पर्क करने की पूरी छूट मिल जाती है और यौन-अपराध होने लगते हैं। युद्ध के दौरान खाली मकानों में होने वाली लूटमार तथा आगजनी आदि प्राय: किशोरों द्वारा ही सम्भव है। स्पष्टतः युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ भी बाल-अपराध को जन्म देती
सामाजिक कारणों से छुटकारा दिलाने में घर एवं विद्यालय का योगदान
समाज-वैज्ञानिकों के अनुसार घर या परिवार समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था है। घर का शान्त एवं स्वस्थ वातावरण, बालक के अनुकूल आन्तरिक परिस्थितियाँ तथा समृद्ध परम्पराएँ बालक में स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करती हैं। सुसंस्कारित घर में पालित-पोषित बालक समाज का उपयोगी नागरिक बनाता है; अत: घर के मुखिया तथा अन्य सदस्यों को भरपूर प्रयास करना चाहिए कि घर का वातावरण व आन्तरिक परिस्थितियाँ हर प्रकार से बालक के अनुकूल हों।
माता-पिता तथा बालकों के आपसी सम्बन्ध भी बालकों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार मातृविहीन, पितृविहीन अथवा इकलौते बालक वाले परिवारों की संरचना समस्याग्रस्त हो सकती हैं जो बालक के व्यवहार को समस्यामूलक बना देती हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे अत्यधिक प्यार, घोर नियन्त्रण, तिरस्कार या किन्हीं बच्चों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार–सभी प्रकार के सम्बन्धों के दोषों से बचें। बच्चों को जीवन की वास्तविकताओं से साक्षात्कार के अवसर मिलने चाहिए तथा उनमें आत्मानुशासन विकसित करने का अभ्यास कराया जाना चाहिए।
घर में बालक के विकास में जिस भूमिका का निर्वाह माता-पिता करते हैं, वही भूमिका विद्यालय में शिक्षक निभाता है। विद्यालय में बालक के व्यवहार को प्रभावित करने वाले तीन प्रधान तत्त्व हैं-शिक्षक, वातावरण तथा उसके मित्र। शिक्षक की क्रियाएँ बालक में स्वस्थ प्रौढ़ता को जन्म दें। विद्यालय का वातावरण बालक के अनुकूल हो और उसे आकर्षित करे। बालक के मित्र चरित्रवान तथा अध्ययनशील हों। यदि स्कूल की परिस्थितियाँ बालक के अनुकूल होंगी, शिक्षक उसकी पढ़ाई में कमजोरी सम्बन्धी दुर्बलताओं को दूर करेंगे, उनकी उपेक्षा नहीं होगी तथा विद्यालय में अनुशासन के विशिष्ट नियमों का पालन होगा तो बालक में अध्ययन के प्रति लगाव उत्पन्न होगा। इसके अतिरिक्त विद्यालय के शिक्षकों को पारस्परिक कलह या अवांछनीय (राजनीतिक) व्यवहार से भी बचना चाहिए। इस भाँति घर तथा विद्यालय उन सभी सामाजिक कारकों से बालक को छुटकारा दिलाने में भारी योगदान कर सकते हैं जो उसे अपराध जगत् की ओर ठेल देते हैं।
प्रश्न 3.
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों पर प्रकाश डालिए। घर और विद्यालय में क्या उपाय अपेक्षित हैं जिससे बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों से छुटकारा पाया जा सके? आपका उत्तर व्यावहारिक हो और प्रतिदिन के जीवन पर आधारित हो।
या
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों को बताइए। इन कारणों को दूर करने के लिए घर और विद्यालय क्या उपाय कर सकते हैं?
उत्तर :
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण
(Psychological Causes of Juvenile Delinquency)
बाल-अपराध के सामाजिक एवं आर्थिक कारणों के समान ही मनोवैज्ञानिक कारण भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मन; व्यक्ति के समस्त आचरण और व्यवहार का मूल कारण है। स्वाभाविक रूप से मन का विकार अपराध का कारण बन सकता है।
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज की जीवन-वृत्त विधि एवं मनोविश्लेषण विधि के आधार पर अध्ययन के उपरान्त ज्ञात होता है कि बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों का (क) मानसिक या बौद्धिक कारण, (ख) संवेगात्मक कारण, (ग) व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ तथा (घ) विशेष प्रकार के मानसिक रोग शीर्षकों के अन्तर्गत उल्लेख किया जा सकता है। बाल-अपराध के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं(क) मानसिक या बौद्धिक कारण मानसिक या बौद्धिक कारणों में अनेक कारण सम्मिलित हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
(1) मानसिक हीनता – अपराधियों में मानसिक हीनता बहुत अधिक होती है। गिलिन एवं गिलिन ने इसके समर्थन में कहा है कि “मानसिक दुर्बलता अपराधी बनाने में एक शक्तिशाली कारक है। सामान्य बुद्धि की कमी से युक्त बालक किसी भी कार्य की अच्छाई-बुराई या उसके परिणामों के विषय में भली प्रकार नहीं सोच सकते, उनकी चिन्तन शक्ति ठीक से काम नहीं करती। मानसिक दृष्टि से दुर्बल बालक समाज से अपना उचित समायोजन करने तथा अच्छे ढंग से आजीविका कमाने में असमर्थ रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति नहीं कर पाते। ऐसे बालक अपने स्वार्थ की सिद्धि गलत उपायों से करने लगते हैं और अपराध की ओर उन्मुख हो जाते हैं।’
(2) अति तीव्र बुद्धि – आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार केवल बुद्धि की दुर्बलता को अपराध का कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। टरमेन ने तीव्र बुद्धि वाले बालकों से सम्बन्धित अध्ययन के आधार पर कहा है कि ऊँचे प्रकार के अपराधी तथा गिरोहों के सरदार सामान्य से काफी ऊँचे बुद्धि स्तर वाले होते हैं। अति तीव्र बुद्धि वाले बालक अपराध के नये तरीके खोजने तथा पुलिस को धोखा देने में भी माहिर होते हैं और इसीलिए ये गिरोह के सरगना बन जाते हैं। इस भाँति तीव्र बुद्धि का बाल-अपराध से सीधा सम्बन्ध है।
(3) मानसिक योग्यताओं का निम्न स्तर – व्यक्ति में निहित मानसिक योग्यताएँ जीवन के विविध कार्यों में व्यक्ति की सहायता करती हैं तथा उसके समायोजन में सहायक होती हैं। किसी बालक में कार्य-विशेष की पूर्ति हेतु वांछित योग्यताओं में कमी उसे गलत मार्ग अपनाने तथा अपराध करने की प्रेरणा देती है।
(ख) संवेगात्मक कारण
विभिन्न संवेगात्मक कारणों में से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
(1) अति संवेगात्मकता – कुछ बालक भावना-प्रधान होते हैं। संवेगात्मक स्थिति में विवेक उनका साथ नहीं देता और वे उचित-अनुचित का निर्णय लिये बिना बड़े-से-बड़ा अपराध कर बैठते हैं। बर्ट ने अपने अध्ययन में 9% बाल-अपराधियों में तीव्र संवेगात्मकता प्राप्त की है। सर्वशक्तिमान संवेग दो हैं-क्रोध और कामुकता। क्रोध के आधिक्य में बालक का व्यवहार आक्रामक होता है तथा कामुकता की अधिकता में वे काम-सम्बन्धी अपराध कर बैठते हैं।
(2) स्वभावगत अस्थिरता – इस विशेषता के कारण व्यक्ति किसी एक सिद्धान्त या बात पर टिक नहीं पाता और उसके व्यवहार का मानदण्ड परिवर्तित होता रहता है। बर्ट द्वारा 34% अपराधी बालकों में स्वभावगत अस्थिरता बतायी गयी। यह अस्थिरता बालक में उसके शैशव की प्रतिकूल परिस्थितियों; जैसे-असुरक्षा भावना, स्नेह व सहानुभूति का अभाव, कठोर अनुशासन व दण्ड विधान, प्रारम्भ से अपर्याप्तता/हीनता की भावना, नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ तथा असन्तोष व विद्रोहात्मक प्रवृत्ति आदि; के कारण उत्पन्न होती है जिसके परिणामतः वह नैतिक मूल्यों का परित्याग और असामाजिक कार्य करने लगता है।
(3) समायोजन दोष – बालक अपने अहम्, नैतिक मन तथा इदम् के मध्य साम्य स्थापित करने की कोशिश करता है। यदि बालक का अहम् (Ego) तथा नैतिक मन (Super Ego) कमजोर पड़ जाते हैं तो साम्य स्थापित नहीं हो पाता और समायोजन सम्बन्धी दोष उत्पन्न होने लगते हैं। समायोजन के दोष बालक को गलत राह के लिए अभिप्रेरित करते हैं।
(4) भावना ग्रन्थियाँ एवं मनोविक्षेप – पारिवारिक एवं सामाजिक निषेधों के कारण बालकों और किशोरों को अपनी इच्छाओं, प्रवृत्तियों तथा भावनाओं आदि का दमन करना पड़ता है। दबी हुई इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ भावना ग्रन्थियों (Complexes) को जन्म देती हैं जो उनके अचेतन मन में जाकर बस जाती हैं। शनैः-शनैः मानसिक संघर्ष और भावना ग्रन्थियाँ उनमें मनोविक्षेप (Psychoneuroses) को जन्म देती हैं। बालकों में समाज के प्रति विद्रोह के भाव जगने लगते हैं। ये उन्हें बदले की भावना से भर देते हैं। इसका परिणाम बाल-अपराधों के रूप में सामने आता है। बर्ट ने अपने अध्ययन में 75% अपराधी बालकों को भावना ग्रन्थियों तथा मानसिक संघर्षों से ग्रसित पाया।
(5) किशोरावस्था के परिवर्तन – किशोरावस्था में व्यक्ति में उत्पन्न होने वाले शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन परिस्थितियों से उनका सन्तुलन बिगाड़ देते हैं। स्टैनली हाल ने उचित ही कहा है, ‘किशोरावस्था बल एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।’ उन्होंने इसे ‘अपराध की अवस्था (Criminal Age) का नाम दिया है, क्योंकि मानसिक-सांवेगिक तनाव एवं असन्तुलन की स्थिति में वे बिना सोचे-समझे समाज-विरोधी कार्य कर बैठते हैं। इस प्रकार किशोरावस्था के क्रान्तिकारी परिवर्तन बाल-अपराधों को जन्म दे सकते हैं।
(6) मनोवैज्ञानिकं आवश्यकताओं की पूर्ति न होना – प्रत्येक बालक और किशोर की कुछ जन्मजात एवं अर्जित मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ हैं; जैसे-आत्मप्रदर्शन, प्रेम, सुरक्षा, काम आदि। इनकी सामान्य ढंग से पूर्ति या तृप्ति न होने पर बालक में कुण्ठा का जन्म होता है जिसके फलस्वरूप उसमें हीनता, क्रोध तथा आक्रमण की भावना जन्म लेती है। इसके अतिरिक्त दूसरी अनेक असामाजिक प्रवृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं और बालकअपराध की ओर प्रवृत्त होता है।
(ग) व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ
प्रमुख मनोवैज्ञानिकों एवं अनुसन्धानकर्ताओं ने बाल-अपराधियों से सम्बन्धित अपने अध्ययनों के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व में कुछ विशिष्टताओं को पाया है। बाल-अपराधियों में सामान्य बालकों से भिन्नता रखते हुए ये गुण मुख्य रूप में मिलते हैं –
- अत्यधिक हिंसात्मक प्रवृत्ति
- अनियन्त्रण एवं असंयम
- स्वच्छन्द स्वभाव
- अनुशासन का अभाव
- अस्थिरता, निर्णय न ले सकना तथा मानसिक अशान्ति
- विद्रोही नकारात्मक व्यवहार
- शंकालु स्वभाव
- दूसरों को पीड़ित करके सुख पाना
- सांवेगिक अपरिपक्वता
- बहिर्मुखी स्वभाव तथा
- समाज से कुसमायोजन।
अपराध करने वाले बालक के व्यक्तित्व की ये विशेषताएँ उसे सामाजिक परिस्थितियों व स्वीकृत मानदण्डों से समायोजित नहीं होने देतीं और वह कुसमायोजन का शिकार हो जाता है। कुसमायोजित बालक में धीरे-धीरे अन्य मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जो उसे अपराध की ओर उन्मुख करते हैं।
(घ) विशेष प्रकार के मानसिक रोग
टप्पन, ग्लूक एवं ग्लूक सहित अनेक मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि कुछ विशेष प्रकार के . मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगी भी अपराध किया करते हैं। इन मानसिक रोगों का वर्णन अग्र प्रकार है –
(1) मनोविकृति – बालपन में स्नेह, सहानुभूति, प्रेम तथा नियन्त्रण के अभाव, अन्यों के दुर्व्यवहार से मिली पीड़ा व यन्त्रणा तथा वंचना के कारण उत्पन्न मनोविकृति का मानसिक रोग बालक और किशोर को शुरू से ही समाज-विरोधी, निर्दयी, ईष्र्यालु, झगड़ालू, शंकालु, द्वेष तथा प्रतिशोध की भावना से युक्त बना देता है। ऐसे बालक सामान्य से उच्च बौद्धिक स्तर वाले तथा आत्मकेन्द्रित प्रकृति के होते हैं तथा बिना किसी प्रायश्चित्त के हिंसा या हत्या कर सकते हैं।
(2) मेनिया – ‘मेनिया’ एक प्रकार का पागलपन है जिसका उपचार सम्भव होता है। यह अनेक प्रकार का है; जैसे—आग लगाने, चोरी करने तथा तोड़-फोड़ का मेनिया। मेनिया से ग्रस्त बालक अपराध करने लगते हैं और धीरे-धीरे अपराध के आदी हो जाते हैं।
(3) बाध्यता – इस मानसिक रोग से पीड़ित बालक ऐसे कार्य करने के लिए बाध्य होता है जो उसके अवचेतन में निर्मित ग्रन्थि से सम्बन्धित हैं, लेकिन बालक को इस बात का पता नहीं होता, वह तो बस बाध्य या विवश होकर उस हानिकारक कार्य को करता जाता है। इन कार्यों में आग लगाना, तोड़-फोड़ करना तथा सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना आदि सम्मिलित हैं। स्पष्टत: बाध्यता का मनोरोग भी बाल-अपराध का एक मुख्य कारण है।
मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति हेतु घरं एवं विद्यालय द्वारा किये जाने वाले उपाय
बालक अपने आरम्भिक जीवन को दो ही स्थानों पर अधिकांशतः व्यतीत करता है—इनमें पहला स्थान घर का है और दूसरा विद्यालय का। अपराध की दुनिया में कदम रखने वाले बालक विभिन्न मनोवैज्ञानिक कारणों एवं मानसिक दशाओं से उत्प्रेरित हो सकते हैं। इन कारकों एवं दशाओं का सीधा सम्बन्ध घर-परिवार और विद्यालय के वातावरण से होता है; अतः घर एवं विद्यालय, बाल-अपराध से सम्बद्ध मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति हेतु अनेक उपाय कर अपनी भूमिका निभा सकते हैं।
परिवार के प्रौढ़ एवं उत्तरदायी सदस्यों को चाहिए कि वे घर के बालक को एक खुली किताब समझें और उसकी योग्यताओं, क्षमताओं, आदतों, रुचियों, अभिरुचियों तथा उसके व्यक्तित्व के प्रत्येक पक्ष का आकलन करें। बालक के साथ भावात्मक एवं संवेगात्मक तादात्म्य स्थापित करें और उसकी भावनाओं, इच्छाओं वे आदतों को समझकर व्यवहार करें। बालक के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए प्रेम, सुरक्षा, अभिव्यक्ति, स्वतन्त्रता, स्वीकृति, मान्यता आदि मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ परमावश्यक हैं। इन आवश्यकताओं से वंचित रहकर बालक हीन-भावना से ग्रस्त हो जाता है और उसमें चिड़चिड़ापन, संकोच, लज्जा, भय, क्रूरता एवं क्रोध जैसी भावना पैदा हो जाती है। अन्ततोगत्वा ईष्र्या, द्वेष तथा आत्म-प्रदर्शन से अभिप्रेरित बालक में अपराधी वृत्तियाँ पनपने लगती हैं और वह अपराध करने लगता है। इसी प्रकार से घर-परिवार से अमान्य या तिरस्कृत बालक विद्रोही और आक्रामक बन जाता है। स्पष्टत: घर का दायित्व है कि वह बालक में मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के कारण कुण्ठाओं को जन्म न लेने दें।
इसी प्रकार से विद्यालय भी कुछ ऐसे उपाय अपना सकता है जिनसे किशोर बालकों को अपराध के लिए प्रेरित करने वाले मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति मिल सके। विद्यालय के बालकों की बुद्धि-लब्धि का आकलन कर उनका बौद्धिक स्तर ज्ञात किया जाना आवश्यक है। अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि बालक में बुद्धि की कमी अपराध का मूल कारण है। कक्षा में दुर्बल बुद्धि, सामान्य बुद्धि तथा तीव्र बुद्धि के बालकों का वर्गीकरण कर दुर्बल बुद्धि के बालकों के साथ विशिष्ट उपचारात्मक तरीके अपनाये जाने चाहिए। इसी प्रकार तीव्र बुद्धि के बालकों के साथ भी तदनुसार व्यवहार के प्रतिमान निर्धारित किये जाएँ। कक्षा में शिक्षक का अपने छात्रों के प्रति व्यवहार आदर्श होना चाहिए। शिक्षक को न तो आवश्यकता से अधिक ढीला नियन्त्रण करना चाहिए और न ही अत्यधिक कठोर, क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में बालक कक्षा से बचते हैं और विद्यालय से पलायन कर जाते हैं। यह कक्षा-पलायन ही उनकी आपराधिक वृत्तियों के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर देता है। छात्रों की अध्ययन सम्बन्धी तथा अन्य परिस्थितियों को समझा जाना चाहिए तथा उनके प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित किया जाना चाहिए। शिक्षक का व्यवहार अपने छात्र के प्रति ऐसा हो कि वह अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ भी शिक्षक से अभिव्यक्त कर सके। कुल मिलाकर शिक्षक की भूमिका एक मित्र और निर्देशक की होनी चाहिए।
इस भाँति घर और विद्यालय उपर्युक्त सुझावों के आधार पर ऐसा वातावरण तैयार कर सकते हैं। ताकि बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों से छुटकारा मिल सके।
प्रश्न 4.
बाल-अपराध के आर्थिक कारणों को स्पष्ट कीजिए।
या
बाल-अपराध के आर्थिक कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
बाल-अपराध के आर्थिक कारण
(Economic Causes of Juvenile Delinquency)
आर्थिक विषमता तथा अपराधशास्त्र का अत्यन्त निकट का और गहरा सम्बन्ध है। बौंगर एवं फोर्नासिरी विर्सी के शोध-कार्य का निष्कर्ष है कि निर्धनता अपराध की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती है। निर्धन परिवारों के आय के अच्छे एवं पर्याप्त साधन नहीं होते जिसके फलस्वरूप उनके बच्चों की अधिकांश इच्छाएँ अतृप्त रह जाती है। इन इच्छाओं को तृप्त करने के लिए निर्धन घर के बच्चे अपराधों का सहारा लेते हैं। इसके अतिरिक्त निर्धनता के कारण उत्पन्न हीनमन्यता एवं विद्रोह की भावना के कारण भी किशोर अपराध की ओर उन्मुख होते हैं।
आर्थिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर भी बालक अपराध करता है। बाल-अपराध के प्रमुख आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं –
(1) निर्धनता – बर्ट के अनुसार, “आधे से अधिक अपराधी बालक निर्धन परिवारों के होते हैं। निर्धनता के कारणं जीवन में ऐसी अनेक परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जो बालकों को अपराध के लिए उकसाती हैं तथा मजबूर कर देती हैं। निर्धनता के कारण बहुत-से गरीब परिवारों की आवश्यकताएँ व इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं। वे अपने आस-पास के वातावरण में लोगों को अच्छा खाता-पीता तथा आकर्षक साधनों को प्रयोग करता देखते हैं जिससे उनके अन्दर भी उन साधनों को पाने की लालसा उत्पन्न होती है। इन वस्तुओं एवं साधनों को वे अपने घर से तो प्राप्त नहीं कर पाते; अतः इन्हें वे चोरी से ठगी करके, छीनकर पाने का प्रयास करते हैं। वहीं से उनके अपराधी जीवन की शुरुआत हो जाती है।’
निर्धनता से उत्पन्न ऐसी प्रमुख असुविधाएँ तथा परिस्थितियाँ जो बाल-अपराध की मुख्य आर्थिक परिस्थितियाँ कहीं जाती हैं, निम्नलिखित हैं –
(i) भुखमरी – निर्धनता के कारण बहुत-से गरीब घरों के बच्चे भरपेट भोजन के लिए तरसते हैं। कभी-कभी तो उन्हें कई वक्त बिना भोजन के रहना पड़ता है। ऐसी विषम दशाओं में बालक आदरपूर्ति के लिए अनेक प्रकार के अपराधों की शरण लेते हैं। कहा भी गया है-‘बुभुक्षितं किं न करोति पापम–अर्थात् भूखा कौन-सा पाप नहीं करता?
(ii) अनुपयुक्त निवास-स्थान – निर्धनता के कारण गरीब लोगों को अपने बच्चों के साथ छोटे, गन्दे, सीलन-भरे, अन्धेरे तथा अस्वास्थ्यप्रद घरों में रहना पड़ता है। छोटी-सी जगह में परिवार के सभी लोग एक साथ ही रात बिताते हैं। स्त्री-पुरुष के यौन सम्बन्धों को देखकर बालक कच्ची उम्र में ही यौन सम्बन्धों को जान जाते हैं तथा उनमें रुचि रखने लगते हैं। वे एक ओर तो यौन सम्बन्धी अपराधी करने लगते हैं, दूसरी ओर इन बस्तियों के अनपढ़ तथा भ्रष्ट लोगों के बीच में रहकर अपराधों में लिप्त हो जाते हैं।
(iii) पारिवारिक संघर्ष – निर्धन एवं अभावग्रस्त परिवारों के सदस्य छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। सांवेगिक असन्तुलन के कारण वे मानसिक विक्षोभ तथा मानसिक तनाव के शिकार हो जाते हैं। इनकी अन्तिम परिणति अपराध की ओर ले जाती है।
(iv) छोटे बालकों का नौकरी करना – निर्धन परिवारों के छोटे बालकों को मजबूरन धनी परिवारों, फैक्ट्रियों, सिनेमाघरों, होटलों तथा खेतों आदि में काम करना पड़ता है। इस वजह से वे न केवल शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, बल्कि बीड़ी पीना, जुआ खेलना, शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, चोरी । इत्यादि गन्दी आदतों के शिकार भी हो जाते हैं।
(2) बेकारी – जीविकोपार्जन का कोई उचित साधन न मिलने के कारण बेकार बालकों या किशोरों का मन बुरे कामों की ओर प्रवृत्त होता है। जब उन्हें माँ-बाप या अन्य परिवारजनों की कटी-जली बातें सुनने को मिलती हैं तो वे घर से भाग जाते हैं तथा अपराध करके पैसा कमाते हैं। प्रायः अशिक्षित लोग किशोर अवस्था में ही लड़कों का विवाह कर देते हैं। इन बेरोजगार युवकों को घर-गृहस्थी का बोझ उठाने के लिए नौकरी तो मिल नहीं पाती; अतः ये असामाजिक कार्यों द्वारा जीविकोपार्जन करने लगते हैं।
(3) अरुचिकर व्यवसाय – क्षमताओं के प्रतिकूल और अरुचिकर व्यवसाय में मन न लगने के कारण किशोरों को जल्दी ही थकान हो जाती है। वे व्यवसाय से असन्तुष्ट रहने के कारण चिन्तित एवं चिड़चिड़े स्वभाव वाले बन जाते हैं। इन परिस्थितियों में वे जरा-जरा सी बात पर मालिक या अधिकारी के प्रति उग्र हो उठते हैं तथा उनसे बदला लेने के लिए असामाजिक कार्य कर सकते हैं। व्यावसायिक असन्तोष से उत्पन्न मानसिक अस्थिरता के वशीभूत होकर वे कोई भी अपराध कर सकते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बाल-अपराध और साधारण अपराध में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उतर :
बाल-अपराध और साधारण अपराध दोनों ही समाज और कानून के विरुद्ध कृत्य हैं। इन दोनों के ही कारण समाज का वातावरण दूषित होता है तथा उसे हानि पहुँचती है। कुछ समानताओं के बावजूद भी विभिन्न कारणों एवं मौलिक भेदों के कारण एक ही प्रकार के कानून-विरोधी कार्य को कभी बाल-अपराध, तो कभी साधारण अपराध मान लिया जाता है बाल-अपराध तथा साधारण अपराध में निम्नलिखित अन्तर हैं –
प्रश्न 2.
बाल-अपराध के पर्यावरणीय कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर :
बाल-अपराधियों के विकास के लिए कुछ पर्यावरणीय या सामाजिक कारक भी जिम्मेदार होते हैं। बाल-अपराध के पर्यावरणीय कारकों में सबसे मुख्य कारक है-परिवार का असामान्य वातावरण। वास्तव में बाल-अपराधी पारिवारिक विघटन के ही प्रतीक होते हैं। भग्न या विघटित परिवारों के बालक शीघ्र ही अपराधों की ओर उन्मुख हो जाते हैं। यदि परिवारों में बच्चों की संख्या अधिक हो या अन-अपेक्षित बच्चे हों तो भी उनके अपराधी बनने की आशंका बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त बच्चों के प्रति माता-पिता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार, विमाता या विपिता का दुर्व्यवहार तथा परिवार के अन्य सदस्यों का अपराधों में लिप्त होना भी बाल-अपराध के पारिवारिक पर्यावरण सम्बन्धी कारक हैं। विद्यालय का प्रतिकूल वातावरण भी बाल अपराध का एक पर्यावरणीय कारक है। विद्यालय में अमनोवैज्ञानिक शिक्षण, शिक्षक का दुर्व्यव्यहार, दुरुह पाठ्यक्रम, कठोर अनुशासन तथा दण्ड की अधिकता के कारण बालक प्राय: स्कूल से भागने लगते हैं तथा आवारागर्दी करने लगते हैं। ये बालक शीघ्र ही बाल-अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। इन कारकों के अतिरिक्त कुछ अन्य पर्यावरणीय कारक भी बाल अपराध के लिए जिम्मेदार हैं, जैसे कि अपराधी-क्षेत्र या समुदाय का प्रभाव, बालक की बुरी संगति, सामाजिक विघटन, स्वस्थ मनोरंजन का अभाव, अधिक स्थानान्तरण तथा युद्ध का प्रभाव।
प्रश्न 3.
बाल-अपराध के जैविकीय तथा शारीरिक कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
अनेक मनोवैज्ञानिकों तथा अपराधशास्त्रियों ने अपने अध्ययन और खोजों के आधार पर बाल-अपराधियों के जैविकीय तथा शारीरिक कारणों की पुष्टि की है। हूटन ने 668 अपराधियों तथा अपराधी की परस्पर तुलना करके बताया कि अपराध को मुख्य कारण ‘जैविकीय हीनता’ है। बर्ट, हीली व ब्रोनर, ग्ल्यूक तथा हिर्श व थर्स्टन ने संकेत दिया है कि अपराधियों में शारीरिक कारक (Physical Factors) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार गिलिन एवं गिलिन के अध्ययनों से पता चला है कि शारीरिक दोषों के कारण बहुत-से बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे बहुत से समाज-विरोधी कार्यों में लग जाते हैं। अन्धापन, बहरापन, लँगड़ाना, हकलाना, तुतलाना, बहुत ज्यादा मोटे-पतले या नाटे तथा इसी तरह से विकृतियों के कारण बालक सामान्य बालकों से अलग हो जाते हैं जिससे उसके आचरण में भिन्नता आ जाती है। कुरूप, काने और लँगड़े बालकों को अक्सर लोग चिढ़ाते हैं जिसकी प्रतिक्रिया में वे असामाजिक कार्य कर डालते हैं निष्कर्षत: शारीरिक हीनता व विकृति के कारण बालक को समाज में असफलता मिलती है जो उसके अपराध का कारण बनती है।
बाल-अपराध से सम्बन्धित प्रारम्भिक अध्ययनों से ज्ञान होता है कि अपराधी बालकों में वंशानुक्रम या पैतृकता (Heredity) का भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। वंशानुक्रम तथा पर्यावरण दोनों ही अपराध के लिए उत्तरदायी हैं। एक जन्मजात कारक है और दूसरा अर्जित कारक। बालक में कुछ जन्मजात गुण निहित होते हैं और ये गुण किन्हीं निश्चित परिस्थितियों से एक विशेष प्रकार का परिणाम देते हैं। अच्छी परिस्थतियों में अच्छा परिणाम तथा बुरी परिस्थितियों में बुरा परिणाम निकलता है। गाल्टन, गोडार्ड तथा डगडेल के निष्कर्षों से पुष्ट होता है कि वंशानुक्रम ही अपराध का प्रमुख कारण है, क्योंकि ‘ज्यूक्स’ तथा कालीकाक’ आदि अपराधी वंशों में उत्पन्न अधिकांश सन्तानें बड़ी होकर अपराधी बनीं। सीजर, लाम्ब्रोसो तथा फैरी का कथन है कि बाल-अपराधों का सम्बन्ध शारीरिक विशेषताओं से है। विभिन्न शारीरिक गुण; यथा स्नायविक संस्थान, रक्त की संरचना, ग्रन्थीय बनावट आदि वंशानुक्रम द्वारा ही संक्रमित होते हैं जिनकी विशिष्ट अवस्थाएँ बालक को अपराध करने के लिए प्रेरित करती हैं।
प्रश्न 4.
बाल-अपराध-निरोध के सन्दर्भ में सर्टीफाइड स्कूल का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
बाल-अपराध-निरोध का एक उपाय ‘सर्टीफाइड स्कूल’ है। सर्टीफाइड स्कूल ‘बाल अधिनियम’ (Children Act) के अन्तर्गत भारत के लगभग सभी राज्यों में स्थापित किये जा चुके हैं। बाल अधिनियम; बाल-अपराध-निरोध में पर्याप्त रूप से लाभदायक सिद्ध हुआ। समाज में रहने वाले बालकों की प्रवृत्ति अपराधों की ओर न जाए, इस उद्देश्य से बाल अधिनियम लागू किया गया था। सर्टीफाइड स्कूलों में छोटे-छोटे अपराध करने वाले बालकों को रखा जाता है। 14 वर्ष तक के बालक जूनियर स्टफाइड स्कूलों में तथा 14-16 वर्ष तके के बालक सर्टीफाइड स्कूलों में रखे जाते हैं। इन। स्कूलों में 5वीं से 8वीं कक्षा तक शिक्षा प्रदान की जाती है। कुछ राज्यों में बालक और बालिकाओं के अलग-अलग स्कूल हैं किन्तु कुछ राज्यों में ये स्कूल सम्मिलित प्रकार के हैं। सर्टीफाइड स्कूल महाराष्ट्र, बंगाल; आन्ध्र प्रदेश, केरल तथा तमिलनाडु में पर्याप्त संख्या में खुल चुके हैं। कुछ राज्यों में ‘स्वयं सेवी संस्थाएँ भी इस प्रकार के स्कूल चलाती हैं; यथा – महाराष्ट्र में ‘उपयुक्त व्यक्ति संस्थाएँ, कोलकाता में ‘आवारा बच्चों का शरणालय’ तथा ‘कोलकाता विजिलेन्स समिति शरणालय’, आन्ध्र प्रदेश में ‘कुटी नेल्लोडी बाल शरणालय’ तथा ‘गिन्दी बाल शरणालय’ एवं मैसूर में ‘बेलारी का सर्टीफाइड स्कूल’ आदि बाल सुधार की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
प्रश्न 5.
बाल-अपराध के उपचार के उपायों के सन्दर्भ में सुधार स्कूलों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
सुधार स्कूल के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर :
बाल-अपराधियों के सुधार के लिए विभिन्न उपाय किये जा रहे हैं। इन उपायों में से एक मुख्य उपाय है-सुधार स्कूलों की स्थापना।’
‘रिफोमेंट्री स्कूल अधिनियम, 1897′ (Reformatory School’s Act, 1897) के अन्तर्गत भारत में चार सुधार स्कूल Reformatories of Reformatory School स्थापित किये गये। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
(1) लखनऊ रिफोर्मेट्री स्कूल – उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के इस स्कूल में 9-15 वर्ष कीआयु के अपराधी बालकों को 4 से 7 वर्ष तक स्कूली शिक्षा प्रदान की जाती है। बालकों को सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त प्रौद्योगिक शिक्षा भी दी जाती है। बालकों को बैण्ड बजाने की प्रशिक्षण भी दिया जाता है। जिसका प्रदर्शन विभिन्न अवसरों पर नगर में किया जाता है। स्कूल के बालकों को जेब खर्च दिया जाता है तथा स्कूल से बाहर जाने का अवकाश प्रदान किया जाता है।
(2) हिसार रिफोर्मेट्री स्कूल – दिल्ली, हरियाणा और पंजाब प्रान्तों से आये अपराधी बालकों के लिए हिसार (हरियाणा) में यह स्कूल स्थापित किया गया है। यहाँ 15 वर्ष से कम आयु के बालक 3-5 वर्ष तक रखे जाते हैं, जिन्हें मिडिल स्तर की शिक्षा के अतिरिक्त कुछ धन्धे भी सिखाये जाते हैं। इनमें सिलाई, बढ़ई, लुहार तथा चकड़े का काम प्रमुख है। स्काउटिंग के साथ स्वस्थ नागरिकता की। शिक्षा दी जाती है। बालक का आचरण अच्छा होने पर उसे पुरस्कार तथा घर जाने हेतु 15 दिन का अवकाश प्रदान किया जाता है।
(3) जबलपुर रिफोर्मेंट्री स्कूल – मध्य प्रदेश के बाल-अपराधियों के लिए यह सुधार स्कूल स्थापित किया गया है। बालकों को सामान्य शिक्षा एवं प्रौद्योगिक प्रशिक्षण दोनों ही प्रदान करने की यहाँ व्यवस्था है। अपराधी बालकों को आत्म-निर्भर बनाने के साथ-साथ विद्यालय जैसी पूर्ण स्वतन्त्रता भी प्रदान की जाती है।
(4) हजारीबाग रिफोर्मेट्री स्कूल – यह सुधार स्कूल बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा तथा असम के बाल-अपराधियों को सुधारने के लिए हैं। स्कूल में प्राथमिक शिक्षा तथा काम-धन्धों के प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया गया है। स्कूल से बाहर के विद्यार्थी भी यहाँ आकर शिक्षा व प्रशिक्षण पा सकते हैं। अच्छे आचरण वाले, योग्य एवं मेधावी बालकों को शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु बाहर की अन्य शिक्षा संस्थाओं में भेजा जाता है।
प्रश्न 6.
बाल-अपराधियों की सुधार योजना के रूप में प्रवीक्षण या प्रोबेशन का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
प्रवीक्षण (Probation); बाल-अपराधियों को सुधारने की सर्वाधिक प्रचलित विधि समझी जाती है। प्रवीक्षण के विषय में क्रेबन का कथन है, “प्रवीक्षण अपराध के विरुद्ध रक्षा की प्रथम पंक्ति है।” (“Probation is the first line of defence against crime.” – Craben) प्रवीक्षण के अन्तर्गत अपराधी बालकों को एक प्रवीक्षण अधिकारी (Probation Officer) के संरक्षण में रखा जाता है। इसके अनुसार न्यायालय द्वारा 18 वर्ष से कम उम्र के किशोर अपराधी को दण्डित नहीं किया जाता, बल्कि उसे एक प्रवीक्षण अधिकारी के पास भेज दिया जाता है। प्रवीक्षण अधिकारी अपने संरक्षण में उसे उसके माता-पिता के पास रखता है और सुधारने का पूरा प्रयास करता है। वह समय-समय पर न्यायालय में उसकी चरित्र सम्बन्धी रिपोर्ट भेजता रहता है।
भारत का प्रथम प्रवीक्षण अधिनियम (First Offenders Probation Act), उत्तर प्रदेश राज्य में 1938 ई० में पास हुआ जिसके अन्तर्गत 7 से 16 वर्ष की आयु तक पहली बार अपराध करने वाले बालक या किशोर को प्रवीक्षण अधिकारी की निगरानी में छोड़ दिया जाता है। ये अपराधी सिर्फ लड़के होते हैं।
प्रवीक्षण के ये उद्देश्य हैं
- पहली बार अपराध करने वाले अवयस्क व्यक्ति (बालक और किशोर) के साथ नरम रुख अपनाना और उसे सुधारने के अवसर प्रदान करना;
- ऐसे अपराधी को चेतावनी देना तथा दण्ड के भय का प्रदर्शन कर अपराध की ओर से हटाना;
- बाल-अपराधी को अपराध से युक्त परिवेश से अलग हटाना, दण्ड या भय के माध्यम से अपराध से दूर रखना;
- अभावग्रस्त परिस्थितियों से अलग करके बालक की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ पूरी करना तथा
- अपराधी बालक की प्रवृत्ति तथा व्यक्तित्व का गहन का सूक्ष्म अध्ययन करके उसके उपचार के उपाय प्रस्तावित करना।
प्रश्न 7.
प्रवीक्षण अधिकारी के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
प्रवीक्षण अधिकारी के मुख्य कार्य हैं
- प्रवीक्षण अधिकारी दोषी बालकों को अपने संरक्षण में रखता है;
- बालक के अपराध का निदान करता है तथा तत्सम्बन्धी कारणों को समझने का प्रयास करता है;
- दोषियों को सुधारने का प्रयास करता है तथा उनके विषय में न्यायालय को समय-समय पर सूचित करता है;
- अपराधी को हर सम्भव उपाय से समाज का अच्छा नागरिक बनाने का प्रयास करता है;
- उसे आजीविका दिलाने की भरपूर कोशिश करता है जिससे कि वह अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर सके तथा
- समाज में रहकर अच्छा आचरण एवं व्यवहार न दिखाने वाले को जेल पहुँचाना।
उत्तर प्रदेश, दिल्ली, तमिलनाडु, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात सहित लगभग सभी राज्यों में प्रवीक्षण कानून लागू कर दिया गया है। सभी स्थानों पर प्रवीक्षण अधिकारी नियुक्त हैं जिनसे हजारों-हजारों बच्चे लाभ उठा रहे हैं। वर्तमान जनतान्त्रिक युग में प्रत्येक सभ्य देश में प्रवीक्षण कानून का प्रयोग किया जा रहा है। प्रवीक्षण के माध्यम से बाल-अपराध को रोकने की दिशा में भारी सफलता प्राप्त हुई है।
प्रश्न 8.
टिप्पणी लिखिए-बाल-अपराधी का मनोवैज्ञानिक उपचार।
या
बाल अपराध के उपचार में मनोचिकित्सा की क्या भूमिका है?
उत्तर :
बाल-अपराध की उत्पत्ति से सम्बन्धित दो प्रमुख कारक हैं – सामाजिक या परिवेशगत कारक तथा मनोवैज्ञानिक कारक। सामाजिक या परिवेशगत कारकों की वजह से उत्पन्न अवयस्क या बाल-अपराध को सुधार-गृहों तथा प्रवीक्षण कानून द्वारा दूर किया जा सकता है, किन्तु इनके माध्यम से व्यक्गित दोषों का निवारण नहीं हो सकता। यदि कोई बालक बौद्धिक कारणों से, संवेगात्मक अस्थिरता, व्यक्तित्व सम्बन्धी असन्तुलन तथा मानसिक विकारों की वजह से अपराध के लिए प्रवृत्त हुआ है तो उसका उपचार सुधार संस्थाओं या प्रवीक्षण द्वारा करना सम्भव नहीं है। अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों के अनवरत अध्ययन तथा अनुसन्धान कार्य से निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि अधिकांश अपराधी बालक मानसिक अस्वस्थता के शिकार होकर अपराध करते हैं, इनके व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता तथा ये विभिन्न मनोवैज्ञानिक दोषों से प्रेरित होते हैं; अतः इन्हें सुधारने के लिए मनोवैज्ञानिक उपायों की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। आजकल सुधार संस्थाओं में मनोवैज्ञानिक उपचार के समुचित साधन उपलब्ध हैं। मनोवैज्ञानिक उपचार का प्रथम सोपान निदान (Diagnosis) अर्थात् अपराध के कारण की खोज है, जिसके लिए मनोवैज्ञानिक विधियो; जैसे—निरीक्षण, परीक्षण, जीवन-वृत्त तथा साक्षात्कार का सहारा लिया जाता है, तत्पश्चात् उपचार की कार्य योजना तैयार की जाती है। बाल-अपराधियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य मनोवैज्ञानिक विधियाँ हैं-क्रीड़ा-चिकित्सा, अंगुलि-चित्रण तथा मनोअभिनय।
प्रश्न 9.
टिप्पणी लिखिए-क्रीड़ा चिकित्सा।
उत्तर :
क्रीड़ा चिकित्सा मनोवैज्ञानिक उपचार की सबसे सरल, सस्ती, स्वाभाविक तथा महत्त्वपूर्ण विधि है। क्रीड़ा चिकित्सा का आधारभूत सिद्धान्त यह बताता है कि बालक की रचनात्मक शक्तियों को स्वाभाविक रूप से अभिप्रकाशित न करने देने के कारण वे विचलित होकर विनाशात्मक प्रवृत्तियों में बदल जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप बालक अपराधी बन जाते हैं। मनोवैज्ञानिक तथ्य के अनुसार बालक अपने मन कुण्ठाओं तथा ग्रन्थियों को खेल के माध्यम से प्रकाशित करता है। खेल के माध्यम से उसकी वृत्तियों को बाहर निकलने का अवसर मिलता है और उसकी रचनात्मक शक्तियाँ विकसित हो पाती हैं। अभावग्रस्त बालकों के मानसिक दोषों को दूर करके उन्हें सन्तुष्टि प्रदान करने के लिए स्वतन्त्र रूपसे रुचि के अनुसार खेलने के अवसर दिये जाने चाहिए। खेल व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। व्यक्तिगत खेल व्यक्तिगत समायोजन में सहायता करते हैं तो सामूहिक खेल बालकों में प्रेम, सहयोग तथा सहकारिता जैसे सामाजिक विशेषताएँ विकसित करते हैं।
क्रीड़ा चिकित्सा को एक उदाहरण के सहायता से भली प्रकार समझा जा सकता है। ‘मोहन’ नाम के एक बारह वर्षीय बालक को पुलिस ने किसी घर में जलता हुआ कपड़ा फेंककर आग लगाने के जुर्म में पकड़ लिया। मोहन ने मानसिक चिकित्सालय में आकर चारों तरफ तोड़-फोड़ मचा दी। वह स्वभाव से विद्रोही लगता था। मनोवैज्ञानिकों ने उसके जीवन इतिहास की खोजबीन करके पता लगाया कि मोहन की असली माँ का बहुत पहले निधन हो चुका था और उसकी विमाता शराबी पिता से मोहन की निर्दयुतापूर्वक पिटाई करवाती थी। अक्सर उसे भूखे पेट ही सो जाना पड़ता था। लगातार उत्पीड़न, यन्त्रणाओं और भीषण अवदमन के शिकार मोहन में धीरे-धीरे कुण्ठा और विद्रोह की भावनाएँ भर गयीं और वह तोड़-फोड़ व आगजनी के सहारे इस समाज से बदला लेने लगा। उसे मनोवैज्ञानिक उपचार के अन्तर्गत पहले व्यक्तिगत खेल में लगाया गया; जैसे—रेत के घरौंदे बनाना, ब्लॉक्स से भवन और पुल आदि बनाना। शुरू में उसने इन चीजों की रचना की फिर उन्हें तोड़ा। धीरे-धीरे उसकी रुचि तोड़ने में कम होती गयी तथा रचना की ओर बढ़ती गयी। अब वह अपने साथियों की तरफ उन्मुख हुआ और सामूहिक क्रीड़ा पद्धति के माध्यम से टीम-भावना (Team Spirit) के साथ तथा नियमानुसार खेलने लगा। इस प्रकार क्रीड़ा चिकित्सा के माध्यम से मोहन एकदम सामान्य हो गया।
प्रश्न 10.
टिप्पणी लिखिए-अंगुलि-चित्रण (Finger Painting)।
उत्तर :
अंगुलि-चित्रण की विधि, क्रीड़ा चिकित्सा के समान ही मनोवैज्ञानिक उपचार की एक स्वाभाविक विधि है जो अपराधी बालक के मानसिक तनावों को दूर कर उसे सामान्य बनाने में सहायक होती है। बालक के सामने सादा सफेद कागज तथा लाल, पीला, नीला, हरा आदि अनेक रंग होते हैं। बालक को मनचाहे रंग तथा अपने ही ढंग से कागज पर चित्र बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। बिना किसी रोक-टोक के रंग पोतने तथा बिखराने में बालक को अपूर्व आनन्द मिलता है, जिससे उसके संवेगात्मक तनाव बाहर निकल जाते हैं और वह तनावमुक्त, स्वस्थ एवं सामान्य बालक की भाँति व्यवहार करने लगता है। कुछ कुशल एवं प्रवीण मनोवैज्ञानिक उँगली से बनाये गये चित्रों के रूप, आकार तथा प्रयुक्त रंगों को देखकर बालक की मनोस्थिति का अनुमान कर लेते हैं। इससे बाल-अपराधी के उपचार में सहायता मिलती है।
प्रश्न 11.
टिप्पणी लिखिए—मनोअभिनय (Psychodrama)।
उत्तर :
मनोअभिनय मानसिक उपचार की एक नवीन और सफल विधि है जिसका शुभारम्भ 1964 ई० में मुरेनो (Mureno) द्वारा अमेरिका में किया गया था। इस विधि में बिना किसी पूर्व योजना के बालकों का समूह नाटक में अपनी काल्पनिक भूमिका करता है। इस भूमिका के सम्बन्ध से ही वह अपने अवचेतन मन में स्थिर संवेगात्मक ग्रन्थियों को अभिव्यक्त करता है। अभिनय द्वारा उसके दमित संवेगों का अभिप्रकाशन होता है, उसका संवेगात्मक रेचन हो जाता है और वह पुनः मानसिक स्वास्थ्य की ओर उन्मुख होता है। मनो अभिनय में बालक ऐसे नाटक करते हैं जिनमें उनकी हिंसात्मक और ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को सन्तुष्टि मिले; यथा—बच्चों से कहा जाए कि, “सामने पहाड़ी पर एक काले भयानक दैत्य का दुर्ग है। उसमें एक सुन्दर राजकुमारी को कैद कर रखा है। आओ, उस दैत्य को मारकर राजकुमारी को छुड़ाएँ।” सभी बालके अपनी-अपनी काल्पनिक भूमिकाएँ चुनकर तद्नुसार अभिनय करते हैं। निरीक्षक अभिनय का निरीक्षण करता है तथा बाल-अपराधी की संवेगात्मक अनुभूतियों को अध्ययन कर निष्कर्ष निकालता है। इस प्रकार के नाटक व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार के हो संकते हैं और इनके द्वारा बालक की प्रगति का मूल्यांकन भी सम्भव है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बाल-अपराध के निदान के उपाय बताइए।
उत्तर :
मनोविज्ञान की संकल्पना के अनुसार बाल-अपराध एक मानसिक रोग है। बाल-अपराधी को सुधारने के लिए सर्वप्रथम उन कारणों का पता लगाया जाती है जिनके कारण से कोई बालक अपराधी बना होता है। यह अपराध की नैदानिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आता है। बाल-अपराधों के कारणों का निदान करते समय निम्नलिखित बातों की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त की जाती है –
- बाल-अपराधी की शारीरिक विशेषताओं की जानकारी
- बालक के बौद्धिक स्तर, मानसिक योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा अन्य विशेषताओं को परीक्षण एवं मूल्यांकन
- उनकी संवेगात्मक संरचना का अध्ययन
- अपराधी बालक के परिवार के लोगों के विषय में जानकारी
- आस-पड़ोस, साथियों, सम्पर्क सूत्रों तथा सामाजिक व्यवहार का अध्ययन
- परिवार की आर्थिक स्थिति तथा आय के साधन
- अपराधी बालक के व्यवसाय (अगर वह कोई धन्धा करता हो) की दशाओं का ज्ञान तथा
- उसके विद्यालयी व्यवहार का लेखा-जोखा तथा उसकी सम्प्राप्तियों का विवरण।
साक्षात्कार – उपर्युक्त विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में आवश्यक सूचना एकत्रित करने के उपरान्त अपराधी बालक से साक्षात्कार करके उसकी उन सभी समस्याओं तथा कारणों का समुचित ज्ञान किया। जाता है जिन्होंने उसे अपराध के लिए प्रेरित किया था।
प्रश्न 2.
बाल-अपराध के कोई दो मनोवैज्ञानिक कारण बताइए।
उत्तर :
बाल – अपराध के दो मुख्य मनोवैज्ञानिक कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –
(i) मानसिक या बौद्धिक कारण – बाल-अपराध के मुख्य मानसिक कारण हैं-बालक को मानसिकहीनता का शिकार होना अथवा अति तीव्र बुद्धि वाला होना। प्रायः अति तीव्र बुद्धि वाला बालक यादि पथ-भ्रष्ट हो जाए तो वह अपराध जगत् में गिरोह का नेता बन जाया करती है। इसके साथ ही बालक यादि मानसिक योग्यताओं से हीन हो, तो भी वह अपराध जगत् की ओर उन्मुख हो सकता है।
(ii) संवेगात्मक कारण – बालक की संवेगात्मक असामान्यता भी उसे अपराध जगत् की ओर उन्मुख कर सकती है। सामान्य रूप से अति सवेगात्मकता, स्वभावगत अस्थिरता, समायोजन की कमी तथा भावना ग्रन्थियों की प्रबलता के कारण भी बालक अपराधी बन जाया करते हैं।
प्रश्न 3.
बोर्टल स्कूल के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर :
सबसे पहले, सर रगल्स ब्राइस (Sir Ruggles Brice) ने 1902 ई० में इंग्लैण्ड के बोल नामक स्थान पर एक गैर-सरकारी जेलखाना खोला था। इसका उद्देश्य किशोर अपराधियों को सुधारना था। उसी स्थान के नाम पर ये बोर्टल स्कूल कहलाने लगे। इन स्कूलों में 16-21 वर्ष तक की आयु के अपराधी रखे जाते हैं तथा अपराधी बालक के व्यक्तित्व को इस तरह निर्मित किया जाता है ताकि वह स्वयं ही अपराधी प्रवृत्ति को त्याग दे। सुधार गृह की भाँति ये मान्यता प्राप्त विद्यालय होते हैं, किन्तु ये एक प्रकार से बन्दीगृह भी हैं। सामान्य रूप से ये जेल विभाग के अन्तर्गत आते हैं। यहाँ सामान्य शिक्षा के साथ-साथ शारीरिक शिक्षा तथा औद्योगिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है। इस प्रकार के स्कूल तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र तथा मैसूर आदि राज्यों में स्थापित किये गये हैं जो किशोर अपराधियों को सुधारने में बहुत सफल हुए हैं।
प्रश्न 4.
बाल-न्यायालय बाल-अपराध को दूर करने में किस प्रकार सहायक है?
या
बाल-न्यायालयों के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
पुलिस द्वारा पकड़े जाने वाले बाल-अपराधियों की सुनवाई के लिए अलग से न्यायालय स्थापित किये गये हैं, जिन्हें बाल-न्यायालय (Juvenile Courts) कहा जाता है। बाल-न्यायालयों की स्थापना का उद्देश्य बाल-अपराधियों को दण्डितं करना नहीं बल्कि उनको सुधार करना है। बाल-न्यायालय बाल-अपराधी की अपराधी-प्रवृत्ति, पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि आदि को ध्यान में रखते हुए उसे बाल-बन्दीगृह, सुधार स्कूल, प्रोबेशन अथवा बोस्ट्रल स्कूल आदि में भेज देता है। आवश्यकता होने पर बाल-अपराधी के मनोवैज्ञानिक उपचार की भी सिफारिश की जाती है। इन समस्त उपायों द्वारा बाल-न्यायालय बाल-अपराध की प्रवृत्ति को समाप्त करने में सहायता देते हैं।
प्रश्न 5.
टिप्पणी लिखिए-बाल-बन्दीगृह।
उत्तर :
बाल-बन्दीगृह सामान्य जेलों से भिन्न एक सुधार संस्था है। उत्तर प्रदेश में बरेली में बोर्टल व्यवस्था के अन्तर्गत एक बाल-बन्दीगृह (Juvenile Jail) स्थापित किया गया था जिसमें 18 वर्ष तक की आयु के अपराधी रखे जाते हैं। यहाँ उन्हें सामान्य शिक्षा के साथ-साथ विभिन्न उद्योगों की शिक्षा भी दी जाती है ताकि वे बन्दीगृह से बाहर जाकर एक उपयोगी जीवन व्यतीत कर सकें। जो बालक आगे पढ़ने के इच्छुक होते हैं, उन्हें जेल से बाहर अन्य विद्यालयों में भेजने की भी व्यवस्था है। जेल छोड़ते समय बाल-अपराधियों को उन्हीं के परिश्रम से उपार्जित धन प्रदान किया जाता है ताकि वे उससे अपना कोई स्वतन्त्र व्यवसाय स्थापित कर सकें।
प्रश्न 6.
टिप्पणी लिखिए-सहायक गृह।
उत्तर :
सहायक गृह सर्टीफाइड स्कूलों के लिए अपराधी बालक लेने का कार्य करते हैं। ये सरकारी और गैर-सरकारी दोनों प्रकार के होते हैं। इन स्कूलों में मिडिल स्तर तक सामान्य शिक्षा के साथ कुछ धन्धे भी सिखाये जाते हैं; जैसे-चटाई बनाना, जिल्द बनाना, बढ़ई-राजगिरि-दर्जी तथा कताई-बुनाई का काम। इनके अलावा स्काउटिंग, प्राथमिक चिकित्सा, संगीत तथा कृषि कार्य भी सिखाया जाता है। यह पाया गया है कि सहायक गृहों से निकले बच्चे बहुत कम संख्या में दोबारा अपराध करते हैं।
प्रश्न 7.
बाल-अपराध-निरोध के सन्दर्भ में चलाये जाने वाले सतर्कता कार्यक्रम का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
सतर्कता कार्यक्रम (Care Programme); भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा बच्चों के पुनर्वास तथा शिक्षण हेतु संचालित किये जाते हैं। इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत विभिन्न राज्यों में 17 सर्टीफाइड स्कूल 9 बोर्टल स्कूल, 5 रिमाण्ड होम्स, 14 लड़कों के क्लब तथा 5 प्रोबेशन होस्टल्स हैं। सरकार द्वारा किशोर अपराधियों के लिए पृथकू से न्यायालय स्थापित किये गये हैं। इस समय देश में 91 किशोर न्यायालय, 100 विशेष विद्यालय तथा अनेक फिट पर्सन्स संस्थाएँ हैं।
प्रश्न 8.
बाल-अपराध की रोकथाम में विद्यालय की दो महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ लिखिए।
उत्तर :
बाल-अपराध की रोकथाम में विद्यालय द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जा सकती है। सर्वप्रथम विद्यालय के शिक्षकों को उन सभी बालकों के प्रति विशेष ध्यान रखना चाहिए जिनकी गतिविधियाँ कुछ असामान्य हों, जैसे कि स्कूल से प्रायः अनुपस्थित रहना, भाग जाना या देर से आना। ऐसे बालकों के अभिभावकों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त विद्यालय के वातावरण को उत्तम, रोचक एवं आकर्षक बनाकर भी बाल-अपराध की प्रवृत्ति को नियन्त्रित किया जा सकता है। विद्यालय की उत्तम अनुशासन व्यवस्था भी बाल-अपराध की प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –
- किसी 13 वर्ष के बालक द्वारा की गयी चोरी को ……………….. की श्रेणी का अपराध कहा जाएगा।
- बाल-अपराध को ……………….. का प्रतीक माना जाता है।
- बाल-अपराध का निर्धारण मुख्य रूप से अपराधी की ……………….. के आधार पर होता है।
- आधुनिक नगरीय समाज में बाल-अपराध की दर में ……………….. हो रही है।
- अधिकांश बाल-अपराधी ……………….. परिवारों से सम्बन्धित होते हैं।
- अमनोवैज्ञानिक शिक्षण, शिक्षक का दुर्व्यवहार, दुरुह पाठ्यक्रम, कठोर अनुशासन तथा दण्ड के कारण कुछ बालक स्कूल से भागने लगते हैं तथा क्रमशः ……………….. बन जाते हैं।
- बालक को स्कूल से प्रायः भाग जाना अपने आप में बाल-अपराध तथा ……………….. है।
- समायोजन का दोष भी बालकों को ……………….. बना सकता है।
- कुछ विशेष प्रेकार के मानसिक रोगों से ग्रस्त बालक भी ……………….. की ओर शीघ्र ही उन्मुख हो जाते हैं।
- बाल-अपराधियों को दण्ड नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें ……………….. के उपाय किये जाते हैं।
- आर्थिक अभावों एवं निर्धनता के कारण भी अनेक बालक ……………….. की ओर उन्मुख होते हैं।
- सर्टीफाइड स्कूल तथा बोर्टल स्कूल का मुख्य उद्देश्य बाल-अपराधियों को ……………….. है।
- परिवीक्षा काल का सम्बन्ध ……………….. को दूर करने या रोकने से होता है।
- बाल-अपराधी सुधार के लिए ……………….. भेजे जाते हैं।
- भारत में प्रथम प्रवीक्षण अधिनियम उत्तर प्रदेश राज्य में सन् ……………….. में पारित हुआ था।
- बाल अंपराध सिद्ध होने पर बालक को ……………….. अधिकारी के पास भेजा जाता है।
- प्रवीक्षण अधिनियम के अनुसार प्रथम बार अपराध करने वाले बालक को ……………….. की निगरानी में छोड़ दिया जाता है।
- बाल-अपराधियों के उपचार के लिए मुरेनो नामक मनोवैज्ञानिक ने ……………….. नामक विधि को खोजा था।
उत्तर :
- बाल-अपराध
- पारिवारिक विघटन
- आयु
- वृद्धि
- विघटित
- बाल-अपराधी
- अन्य अपराधों का कारण भी
- बाल अपराधी
- अपराधों
- सुधारने
- अपराधों
- सुधारना
- बाल-अपराध
- सुधार स्कूल
- 1938
- प्रवीक्षण अधिकारी
- प्रवीक्षण अधिकारी
- मनोअभिनया
प्रश्न II.
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
बाल-अपराध का सामान्य अर्थ क्या है?
उत्तर :
किसी बालक (कानून द्वारा निर्धारित आयु से कम) द्वारा ऐसा कोई भी कार्य जो समाज-विरोधी है और जिससे कानून का उल्लंघन होता है, बाल-अपराध कहलाता है।
प्रश्न 2.
सिरिल बर्ट के अनुसार किस बालक को बाल-अपराधी कहा जा सकता है?
उत्तर :
सिरिल बर्ट के अनुसर, किसी बालक को बाल-अपराधी वास्तव में तभी मानना चाहिए जब उसकी समाज-विरोधी प्रवृत्तियाँ इतना गम्भीर रूप ले लें कि उस पर सरकारी कार्यवाही आवश्यक हो जाए।
प्रश्न 3.
‘बाल-अपराध की डॉ० सेठना द्वारा प्रतिपादित परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
डॉ० सेठना के अनुसार, “बाल-अपराध से अभिप्राय किसी स्थान-विशेष के नियमों के अनुसार एक निश्चित आयु से कम के बालक या युवक व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला अनुचित कार्य है।”
प्रश्न 4.
बाल-अपराध के परिवार सम्बन्धी मुख्य कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बाल-अपराध के परिवार सम्बन्धी मुख्य कारण हैं-परिवार का विघटित होना, परिवार में अन-अपेक्षित एवं अधिक बच्चे होना, माता-पिता का असमान या उपेक्षापूर्ण व्यवहार, विमाता या विपिता का दुर्व्यवहार तथा परिवार के अन्य सदस्यों का अपराधों में लिप्त होना।
प्रश्न 5.
विद्यालय को किस प्रकार का वातावरण बालकों को अपराधों की ओर प्रेरित करता है?
उत्तर :
यदि, विद्यालय में अमनोवैज्ञानिक शिक्षण, शिक्षक का दुर्व्यवहार, दुरूह पाठ्यक्रम, कठोर अनुशासन तथा दण्ड जैसे कारक प्रबल हों तो बालक स्कूल से भाग कर अपराधों की ओर प्रेरित हो सकते हैं।
प्रश्न 6.
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारकों को किन वर्गों में बाँटा जाता है?
उत्तर :
बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कराकों को चार वर्गों में बाँटा जाता है –
(क) मानसिक अथवा बौद्धिक कारक
(ख) संवेगात्मक कारक
(ग) व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ तथा
(घ) विशेष प्रकार के मानसिक रोग।
प्रश्न 7.
बाल-अपराध के मुख्य संवेगात्मक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
बाल-अपराध के मुख्य संवेगात्मक कारण हैं –
(क) अति संवेगात्मकता
(ख) स्वभावगत अस्थिरता
(ग) समायोजन दोष
(घ) भावना ग्रन्थियाँ एवं मनोविक्षेप
(ङ) किशोरावस्था के परिवर्तन तथा
(च) मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होना।
प्रश्न 8.
बाल-अपराधियों को सुधारने के मुख्य उपाय क्या हैं?
उत्तर :
बाल-अपराधियों को सुधारने के मुख्य उपाय हैं –
(क) सुधार संस्थाएँ
(ख) अवीक्षण या प्रोबेशन तथा
(ग) मनोवैज्ञानिक चिकित्सा।
प्रश्न 9.
बाल-अपराधियों तथा वयस्क अपराधियों की मुख्य सुधार संस्थाएँ कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर :
बाल-अपराधियों तथा वयस्क अपराधियों की मुख्य सुधार संस्थाएँ हैं – सुधार स्कूल, सर्टीफाइड स्कूल, बोटंल स्कूल तथा बाल-बन्दीगृह।
प्रश्न 10.
बाल-अपराधियों तथा वयस्क अपराधियों में मुख्य अन्तर क्या होता है?
उत्तर :
बाल-अपराधी कच्चे अपराधी होते हैं तथा उनका सुधार सरल होता है, जबकि वयस्क अपराधी पक्के अपराधी होते हैं तथा उनका सुधार काफी कठिन होता है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
किस बालक की कानून-विरोधी गतिविधियों को बाल-अपराध की श्रेणी में रखा जाता है?
(क) जिसकी शिक्षा अधूरी रह गयी हो
(ख) जिसकी समझ विकसित हो गयी हो
(ग) जिसकी दाढ़ी-मूंछ निकल आयी हो
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 2.
दस वर्ष की आयु वाले बालक के द्वारा गम्भीर अपराध करने को कहते हैं –
(क) बाल-अपराधी
(ख) अपराधी
(ग) असामाजिक बालक
(घ) मानसिक विक्षिप्त
प्रश्न 3.
“व्यवहार के सामाजिक नियमों से विचलित होने वाले बालक को बाल-अपराधी कहते हैं।” यह कथन किसका है?
(क) होली
(ख) न्यूमेयर
(ग) बर्ट
(घ) सेठना
प्रश्न 4.
अधिकांश बाल-अपराधी किस प्रकार के परिवारों से सम्बन्धित होते हैं?
(क) धनवान परिवार
(ख) सुसंगठित परिवार
(ग) विघटित परिवार
(घ) संयुक्त परिवार
प्रश्न 5.
बाल अपराध को कारण है –
(क) अच्छी संगति
(ख) स्वस्थ मनोरंजन
(ग) दूषित पारिवारिक वातावरण
(घ) संवेगात्मक स्थिरता
प्रश्न 6.
बाल-अपराध का मनोवैज्ञानिक कारण है –
(क) भग्न परिवार
(ख) संवेगात्मक अस्थिरता
(ग) निर्धनता
(घ) वंशानुगत कारक।
प्रश्न 7.
बाल-अपराध के मानसिक या बौद्धिक कारण हैं –
(क) मानसि हीनता
(ख) अति तीव्र बुद्धि
(ग) मानसिक योग्यताओं का निम्न स्तर
(घ) ये सभी
प्रश्न 8.
बाल-अपराधियों के विकास के लिए जिम्मेदार मानसिक रोग है –
(क) मनोविकृति
(ख) मेनिया
(ग) बाध्यता
(घ) ये सभी
प्रश्न 9.
परिवीक्षा काल का सम्बन्ध है –
(क) अपराध से
(ख) परीक्षा से
(ग) इतिहास से
(घ) बाल-अपराध से
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन बाल-अपराध का आर्थिक कारण नहीं है
(क) निर्धनता
(ख) बेकारी
(ग) भूखमरी
(घ) कुसमायोजन
प्रश्न 11.
बाल-अपराध का आर्थिक कारण होता है
(क) मन्दबुद्धि
(ख) कुण्ठा
(ग) निर्धनता
(घ) कुसमायोजन
प्रश्न 12.
बाल-अपराध के लिए जिम्मेदार सामाजिक कारक हैं –
(क) सस्ते तथा घटिया मनोरंजन के साधन
(ख) बदनाम बस्तियों के निवासियों का प्रभाव
(ग) शिक्षण संस्थाओं के वातावरण का दूषित होना
(घ) उपर्युक्त सभी कारक
प्रश्न 13.
बाल-अपराधियों से सम्बन्धित तथ्य है –
(क) इनके गिरोह सुसंगठित होते हैं।
(ख) भारतीय कानून संहिता में इन्हें कठोर दण्ड देने का प्रावधान है।
(ग) ये सामाजिक विघटन के प्रतीक माने जाते हैं।
(घ) ये कम आयु के कच्चे अपराधी होते हैं, ये पारिवारिक विघटन के प्रतीक होते हैं तथा इनका सुधार हो सकता है।
प्रश्न 14.
निम्नलिखित में कौन बाल-अपराध से सम्बन्धित नहीं है।
(क) बाल न्यायालय
(ख) निर्देशन उपचार शालाएँ
(ग) सुधार स्कूल
(घ) जिला कारागार
प्रश्न 15.
हमारे देश में बाल-अपराधियों के सुधार के लिए कौन-सी संस्था है?
(क) साधारण विद्यालय
(ख) बन्दीगृह
(ग) विकलांग शिक्षण संस्थाएँ
(घ) सुधार स्कूल या रिफोमेंट्री स्कूल
प्रश्न 16.
किस महान बाल-सुधारक ने प्रवीक्षण या प्रोबेशन की धारणा को प्रस्तुत किया था?
(क) फ्रॉयड ने।
(ख) जॉन ऑगस्टस ने
(ग) डॉ० सेठना ने
(घ) मुरेनो ने
प्रश्न 17.
समाज में बाल-अपराधियों की निरन्तर बढ़ती हुई दर को नियन्त्रित करने का मुख्यतम उपाय है
(क) कठोर दण्ड-व्यवस्था लागू की जाए।
(ख) बालकों के लिए अधिक-से-अधिक शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की जाएँ।
(ग) सामाजिक विघटन को रोका जाए।
(घ) पारिवारिक विघटन को रोका जाए तथा पारिवारिक वातावरण को उत्तम बनाया जाए।
प्रश्न 18.
बाल-अपराधियों के उपचार के लिए अपनायी जाने वाली मनोवैज्ञानिक विधि है
(क) क्रीड़ा चिकित्सा
(ख) अंगुलि-चित्रण
(ग) मनो-अभिनय
(घ) ये सभी
प्रश्न 19.
इनमें से कौन बाल-अपराध का लक्षण नहीं हो सकता है?
(क) चोरी
(ख) मद्यपान
(ग) तोड़फोड़
(घ) कक्षा-कार्य को पूरा न कर पाना।
उत्तर :
- (ख) जिसकी समझ विकसित हो गयी हो
- (क) बाल-अपराधी
- (क) हीली
- (ग) विघटित परिवार
- (ग) दूषित पारिवारिक वातावरण
- (ख) संवेगात्मक अस्थिरता
- (घ) ये सभी
- (घ) ये सभी
- (घ) बाल अपराध से
- (घ) कुसमायोजन
- (ग) निर्धनता
- (घ) उपर्युक्त सभी कारक
- (घ) ये कम आयु के कच्चे अपराधी होते हैं, ये पारिवारिक विषटन के प्रतीक होते है तथा इनका सुधार हो सकता है
- (घ) जिला कारागार
- (घ) सुधार स्कूल या रिफोमेंट्री स्कूल
- (ख) जॉन ऑगस्टस ने
- (घ) पारिवारिक विघटन को रोका जाए तथा पारिवारिक वातावरण को उत्तम बनाया जाए।
- (घ) ये सभी
- (घ) कक्षा-कार्य को पूरा न कर पाना।
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