UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)

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UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India

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Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 12
Subject History
Chapter Chapter 7
Chapter Name Advent of European Powers in India
(यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)
Number of Questions Solved 19
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 7 Advent of European Powers in India (यूरोपीय शक्तियों का भारत में प्रवेश)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1498 ई०
2. 1600 ई०
3. 1664 ई०
4. 1758 ई०
5. 23 जून, 1757 ई०
6. 1765 ई०
7. 1772 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ-संख्या- 134 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्यया असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 135 व 136 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना पर प्रकाश डालिए।
उतर:
सन् 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को-डि-गामा अपने जाहजी बेड़ों के साथ कालीकट पहुँचा। कालीकट के राजा जमोरिन ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पड़ो अल्बरेज काबराल ने 13 जहाजों को एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में वास्को-डि-गामा पुन: भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार कर भारत में पुर्तगाली सत्ता की स्थापना का प्रयास किया।

प्रश्न 2.
भारत में पुर्तगाली शक्ति के उत्थान और पतन पर संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगाली गर्वनर अल्मोड़ा और अल्बुकर्क के प्रयासों से भारत में पुर्तगाली शक्ति का उत्थान हुआ। पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तटों पर गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल, बम्बई तथा बंगाल में हुगली आदि पर अधिकार कर 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग किया। भारत में पुर्तगालियों की शक्ति के पतन के विभिन्न कारण रहे हैं। 1580 ई० में पुर्तगाल स्पेन के साथ सम्मिलित होने से अपनी स्वतंत्रता खो बैठा। मुगलों और मराठों ने भी पुर्तगालियों का विरोध किया। बाद में पुर्तगाली व्यापार के प्रति उदासीन हो गए और राजनीति में अधिक हस्तक्षेप करने लगे, जिससे स्थानीय विरोधों के कारण उनकी आर्थिक शक्ति समाप्त होने लगी, जो उनके पतन का मख्य कारण बनी।

प्रश्न 3.
भारत में डचों की प्रगति के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों के व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। सन् 1602 ई० में भारत में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों में व्यापार करना था। शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर धीरे-धीरे पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर अपने प्रभाव में वृद्धि की।

प्रश्न 4.
कर्नाटक के प्रथम युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
उतर:
अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य कर्नाटक का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध के कारण फ्रांसीसियों के भारत में साम्राज्य स्थापना के सपने को गहरा आघात पहुँचा परन्तु फिर भी भारत में फांसीसियों की धाक जम गई तथा फ्रांसीसी गर्वनर डुप्ले ने और अधिक उत्साह से देश की आन्तरिक समस्याओं में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। इस युद्ध ने विदेशियों पर भारत की दुर्बलता को पुर्णत: प्रकट कर दिया और दोनों शक्तियाँ कर्नाटक के आन्तरिक संघर्षों में हस्तक्षेप करने लगीं।

प्रश्न 5.
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण लिखिए।
उतर:
भारत में पुर्तगालियों की असफलता के दो कारण निम्नलिखित हैं

  • मुगलों एवं मराठों द्वारा पुर्तगालियों का विरोध करना।
  • पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, धर्म-प्रचार एवं स्थानीय स्त्रियों से विवाह करने की नीति।

प्रश्न 6.
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के किन्हीं पाँच कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की पराजय के पाँच कारण निम्नलिखित हैं

  • अंग्रेजी कंपनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना।
  • अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना
  • मुम्बई पत्तन की सुविधा
  • ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता
  • फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य विस्तार पर बल देना।

प्रश्न 7.
अंग्रेजों ने सूरत पर किस प्रकार अधिकार किया?
उतर:
अंग्रेजों ने सूरत में व्यापारिक कोठी की स्थापना करके धीरे-धीरे सूरत पर अधिकार किया।

प्रश्न 8.
इलाहाबाद की संधि क्या थी? उसकी शर्ते का वर्णन कीजिए।
उतर:
इलाहाबाद की संधि( 1765 ई० )- क्लाइव 1765 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) का गर्वनर बनकर पुनः भारत आया। उसने इलाहाबाद जाकर मुगल सम्राट शाहआलम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ अलग-अलग संधि की जो इलाहाबाद की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि की शर्ते इस प्रकार थीं

  • मुगल सम्राट शाहआलम ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा (ओडिशा) की दीवानी अंग्रेजों को प्रदान कर दी।
  • मुगल सम्राट शाहआलम को कड़ा और इलाहाबाद के जिले प्रदान किये गये।
  • अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाहआलम को 26 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया।
  • नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपया देना स्वीकार किया।
  • शुजाउदौला ने बाह्य आक्रमणों के दौरान भेजी जाने वाली अंग्रेजी सेना का खर्चा वहन करना स्वीकार किया।
  • चुनार का दुर्ग अंग्रेजों के पास यथावत रहने दिया।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में यूरोपीय शक्तियों के आगमन की विवेचना कीजिए।
या
सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय कम्पनियों की गतिविधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उतर:
पुर्तगालियों का भारत आगमन- 20 मई, 1498 ई० का दिन भारत और यूरोप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन कहा जा सकता है क्योंकि इस दिन भारत की धरती पर एक पुर्तगाली वास्को-डि-गामा अपने चार जहाजों और एक सौ अठारह नाविकों के साथ उतरा। एडम स्मिथ ने अमेरिका की खोज और आशा अन्तरीप की ओर से भारत के मार्ग की खोज को “मानवीय इतिहास की दो महानतम् और अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएँ बताया है।”

आधुनिक अन्वेषणों से पता चलता है कि वास्को-डि-गामा स्वयं भारत नहीं पहुंचा था, बल्कि वह मोजांबिक पहुँचने पर एक भारतीय व्यापारी के जहाज के पीछे-पीछे चलकर कालीकट तक पहुँच पाया। अत: भारत तक उसकी यात्रा ‘वास्को-डि-गामा की नवीन खोज’ न थी। एक प्रकार से उसने इस मार्ग का अनुसरण किया था। कुछ भी हो, कालीकट पहुँचने पर वहाँ के हिन्दू राजा जमोरिन ने उसका स्वागत और आतिथ्य-सत्कार किया। लेकिन पुर्तगालियों ने इस स्वागत और सम्मान का अनुचित लाभ उठाया। 1500 ई० में पेड्रो अल्वरेज काबराल ने 13 जहाजों का एक बेड़ा और सेना लेकर जमोरिन को नष्ट करने की कोशिश की। 1502 ई० में पुन: वास्को-डि-गामा भारत आया और मालाबार तटों पर क्षेत्रीय अधिकार के कुछ प्रयास किए।

आल्मीड़ा या अल्मोडा भारत में पहला पुर्तगाली गवर्नर था। 1509 ई० में अल्बुकर्क नामक पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आया। विश्वासघात और पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर नवम्बर, 1510 में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया। इन्होंने ईसाईयत का मनमाने ढंग से प्रचार किया और व्यापार को बढ़ाया। गोवा के अतिरिक्त दमन, दीव, सालीसट, बेसीन, चोल और बम्बई (मुम्बई), बंगाल में हुगली तथा मद्रास (चेन्नई) तट पर स्थित सान-थोम पुर्तगालियों के अधिकार में चले गए। 150 वर्षों तक सत्ता का उपभोग करने के उपरान्त भारत में उनकी सत्ता का पतन होने लगा और उनके अधिकार में केवल गोवा, दमन और दीव रह गए थे।

भारत में डचों का आगमन- भारत में पुर्तगालियों को व्यापारिक लाभ से प्रोत्साहित होकर हॉलैण्ड निवासी, जिन्हें डच कहा जाता है, ने अपना ध्यान भारत की ओर केन्द्रित किया। उनका पहला व्यापारिक बेड़ा मलाया द्वीप-समूह में आया। केप ऑफ गुड होप होते हुए भारत में 1596 ई० में आने वाला कार्निलियस छूटमैन प्रथम डच नागरिक था। उनके द्वारा भी अन्य यूरोपीय देशों की भाँति भारत में व्यापार हेतु 1602 ई० में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत व अन्य पूर्वी देशों से व्यापार करना था।

शीघ्र ही डचों ने मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और धीरे-धीरे उन्होंने पुर्तगाली शक्ति को समाप्त कर दिया। डचों ने पुर्तगालियों को मलक्का (1641 ई०) और श्रीलंका (1658 ई०) के तटीय भागों से भगा दिया और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव में वृद्धि की। डचों ने भारत में सूरत, भड़ौच, कैम्बे, अहमदाबाद, कोचीन, मसूलीपट्टम, चिन्सुरा और पटना में अनेक व्यापारिक केन्द्र बनाए। वे भारत में सूती वस्त्र और कच्चा रेशम, शोरा, अफीम और नील निर्यात करते थे, परन्तु शीघ्र ही वे भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच की स्पर्धा का शिकार हुए। डचों की कम्पनियाँ शीघ्र ही प्रभावहीन हो गई, जिसका प्रमुख कारण डच सरकार का कम्पनी के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप था। सरकारी प्रभुत्व को ज्यादा महत्व दिया गया, व्यापार को कम। यह माना जाता है कि डचों की हार का प्रमुख कारण कम्पनी का सरकारी संस्था होना था।

सर्वप्रथम डच और अंग्रेज लोग मित्रों की भाँति पूर्व में आए ताकि कैथोलिक धर्मानुयायी देश पुर्तगाल तथा स्पेन का सामना कर सकें। परन्तु शीघ्र ही यह मित्रता की भावना लुप्त हो गई तथा आपसी विरोध आरम्भ हो गया। अंग्रेजों की स्पेन समर्थक नीति ने आंग्ल-डच मित्रता पर आघात किया तथा दोनों में एक गम्भीर संघर्ष आरम्भ हो गया। अम्बोयना में हुए अंग्रेजों के हत्याकाण्ड (1623 ई०) के कारण समझौते की सब आशाओं पर पानी फिर गया। गर्म मसाले के द्वीपों में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा तथा डचों ने अपनी स्थिति को वहाँ सुदृढ़ बनाए रखा।

अंग्रेजों का भारत आगमन- महारानी एलिजाबेथ प्रथम के शासनकाल में 1599 ई० में लन्दन में लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में भारत के साथ सीधा व्यापार करने के लिए एक संस्था बनाने पर विचार हुआ, जो ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ नाम से शुरू की गई। 31 दिसम्बर, 1600 ई० को महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कम्पनी को एक अधिकार-पत्र प्रदान किया। प्रारम्भ में कम्पनी को साहसी लोगों की मण्डली कहा गया क्योंकि इसके सदस्य लूटने में दक्ष थे।

1608 ई० में अंग्रेजों का पहला जहाजी बेड़ा हॉकिन्स के नेतृत्व में भारत आया था। 1613 ई० में सूरत में अंग्रेजों की व्यापारिक कोठी की स्थापना की। 1615 ई० में सर टामस रो व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल सम्राट जहाँगीर के दरबार में आगरा आया और यहाँ तीन वर्ष तक रहा। प्रारम्भ में मुगल दरबारों में पुर्तगालियों का अधिक प्रभाव होने के कारण उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु अन्ततः वह शहजादा खुर्रम से व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने में सफल हुआ।

इसके बाद अंग्रेजों ने सूरत, आगरा, अहमदाबाद तथा भड़ौच में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुमति प्राप्त की। 1640 ई० में अंग्रेज कम्पनी ने मद्रास (चेन्नई) में एक सुदृढ़ फोर्ट (सेंट जॉर्ज) की स्थापना की। 1642 ई० में बालासोर में भी अंग्रेजों ने एक व्यापारिक कोठी बनाई। 1668 ई० में कम्पनी को बम्बई (मुम्बई) प्राप्त हुआ जो ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय को 1661 ई० में पुर्तगाली राजकुमारी ब्रेगाजा की केथरीन से विवाह करने पर दहेज के रूप में मिला था। इसी प्रकार 1651 ई० में अंग्रेजों ने एक फैक्ट्री हुगली में और इसके बाद बंगाल में, कलकत्ता (कोलकाता) और कासिम बाजार में कई कोठियाँ स्थापित कीं।

ईस्ट इण्डिया के विरोधी सौदागरों ने 17 वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में एक नई कम्पनी स्थापित की, जिसका नाम ‘न्यू कम्पनी रखा गया। इस नई कम्पनी ने भी घूस व रिश्वत की नीति अपनाई। शीघ्र ही दोनों कम्पनियों में परस्पर स्वार्थवश टकराव हो गया। अन्त में 1702 ई० में दोनों कम्पनियों ने एक संयुक्त कम्पनी बनाकर अपना व्यापार तेजी से बढ़ाया और स्थानीय राजाओं व नवाबों से भी सम्बन्ध स्थापित किए। 1707 ई० में इस कम्पनी ने मुगल बादशाह फर्रुखसियार से व्यापारिक अधिकारों का एक फरमान (अधिकार-पत्र) प्राप्त किया। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों शक्तियों ने भारत के देशी राजाओं के पारस्परिक झगड़ों तथा उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप कर भूमि, धन व अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली।

अंग्रेजों का डचों तथा फ्रांसीसियों से व्यापारिक संघर्ष हुआ, जिसमें अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई। मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् तो अंग्रेजों का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभाव बढ़ा। हॉलैण्ड तथा पुर्तगाल यूरोप के दुर्बल राष्ट्रों में थे। अतः वे अंग्रेजों के आगे न टिक सके और व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता से बाहर हो गए। अब अंग्रेजों की केवल फ्रांसीसीयों से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी। दक्षिण भारत में फैली राजनीतिक अव्यवस्था के कारण दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ जाग्रत हो उठीं और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए दोनों के बीच तीन युद्ध (1746-1763 ई०) हुए। यूरोप में भी 1756-63 ई० तक दोनों में सप्तवर्षीय संघर्ष चला, जिसमें फ्रांस का पराभव हुआ। अन्त में भारत में अंग्रेजों को निर्णायक सफलता मिली। धीरे-धीरे अंग्रेजों का भारतीय व्यापार पर ही नहीं सम्पूर्ण भारत पर पूर्णरूपेण अधिकार हो गया।

प्रश्न 2.
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज क्यों सफल हुए? विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिए।
उतर:
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज निम्नलिखित कारणों से सफल रहे
(i) अंग्रेजी कम्पनी का स्वरूप- ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक प्राइवेट कम्पनी थी, जिसमें ब्रिटिश सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करती थी। प्राइवेट होने के कारण इस कम्पनी के सदस्य अत्यधिक परिश्रमी थे, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी एक सरकारी कम्पनी थी। अत: प्रत्येक निर्णय के लिए फ्रांसीसी कम्पनी फ्रांसीसी सरकार पर निर्भर रहती थी।

(ii) अंग्रेजी कम्पनी का व्यापारिक तथा आर्थिक दृष्टि से श्रेष्ठ होना- अंग्रेजी कम्पनी व्यापारिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठ थी। अंग्रेजों के पास व्यापार हेतु पूर्वी समुद्र-तट और बंगाल का समुद्र प्रान्त था, जहाँ से उन्हें अत्यधिक व्यापारिक लाभ होता था, जिससे उन्हें आर्थिक संकट का बिलकुल भी भय नहीं रहता था। जबकि फ्रांसीसियों के पास ऐसा कोई व्यापारिक स्थान न था, जहाँ से समुचित मात्रा में व्यापारिक लाभ की प्राप्ति होती हो।

(iii) अंग्रेजों की शक्तिशाली नौसेना-
अंग्रेजों की नौसेना फ्रांसीसी नौसेना की तुलना में अधिक शक्तिशाली थी। परिणामस्वरूप वे सदैव अपने व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित रखने में सफल रहे, जबकि फ्रांसीसी नौसेना कमजोर होने के कारण सैनिक और व्यापारियों को किसी प्रकार की सहायता प्रदान न कर सकी।

(iv) मुम्बई पत्तन की सुविधा-
अंग्रेजों की समुद्री-शक्ति का स्थान मुम्बई था, जिसके कारण वे अपने जहाज मुम्बई में सुरक्षित
रख सकते थे। इसके विपरीत फ्रांसीसियों की समुद्री-शक्ति का अड्डा फ्रांस के द्वीप में था, जो बहुत दूर स्थित था। अत: वे | शीघ्र कोई कार्यवाही नहीं कर सकते थे।

(v) डूप्ले की वापसी-
डूप्ले फ्रांस का एक योग्यतम गवर्नर था। उसने भारत में फ्रांसीसी प्रभाव में वृद्धि की थी, किन्तु उसे फ्रांसीसी सरकार ने थोड़ी-सी असफलता प्राप्त होने पर ही वापस बुला लिया, जिससे अंग्रेजों के उत्साह में और अधिक वृद्धि हो गई।

(vi) ब्रिटिश अधिकारियों की योग्यता-
ब्रिटिश कम्पनी को योग्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त हुई। क्लाइव, लारेंस, आयरकूट आदि योग्य ब्रिटिश अधिकारी थे। उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर ब्रिटिश कम्पनी को उन्नत बनाया, जबकि फ्रांसीसी अधिकारी इतने योग्य नहीं थे। वे आपस में लड़ते-झगड़ते थे। अत: वे फ्रांसीसी कम्पनी की उन्नति में अपना योगदान न दे सके।

(vii) फ्रांसीसियों द्वारा व्यापार की अपेक्षा राज्य–
विस्तार पर बल देना- फ्रांसीसियों की एक बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने व्यापार की अपेक्षा राज्य–विस्तार की महत्वाकांक्षा पर अधिक बल दिया। उनका सारा धन युद्धों में व्यर्थ चला गया। फ्रांसीसी सरकार यूरोप तथा अमेरिका में व्यस्त रहने के कारण डूप्ले की महत्वाकांक्षी योजनाओं का पूर्ण समर्थन करने की स्थिति में नहीं थी। दूसरी ओर अंग्रेज अपने व्यापार की कभी उपेक्षा नहीं करते थे।

(viii) यूरोप में अंग्रेजों की विजय-
भारत में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच होने वाला संघर्ष यूरोप में होने वाला फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच संघर्ष का एक भाग था। यूरोप में अंग्रेजों की विजय हुई और फ्रांसीसी पराजित हुए। इसका प्रभाव भारत में भी पड़ा। भारत में अंग्रेज जीतते गए और फ्रांसीसी पराजित होते गए।

(ix) विलियम पिट की नीति-
1758 ई० में इंग्लैण्ड में विलियम पिट ने युद्धमन्त्री का कार्यभार सम्भालते ही क्रान्तिकारी परिर्वतन कर कुछ इस प्रकार की नीति अपनाई कि फ्रांस यूरोपीय मामलों में बुरी तरह फँस गया और हार गया।

(x) लैली का उत्तरदायित्व-
लैली अत्यन्त ही कटुभाषी व क्रोधी व्यक्ति था। अत: कोई भी फ्रांसीसी अधिकारी उसके साथ काम करने से हिचकिचाता था। वास्तव में वह भारत में फ्रांसीसियों के पतन के लिए अधिक उत्तरदायी था।

प्रश्न 3.
डूप्ले की नीति की समीक्षा कीजिए तथा फ्रांसीसियों की असफलता के कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर:
डूप्ले की नीति- डूप्ले की नीति को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है
(i) भारतीय शासकों के मामलों में हस्तक्षेप- डूप्ले ने भारत की राजनीतिक स्थिति के अनुसार अनुमान लगा लिया कि सफलता प्राप्त करने के लिए राजाओं के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप करना, व्यापार व राजनीतिक अधिकारों के लिए लाभकारी है, अतः उसने इस नीति का अनुसरण किया। हैदराबाद और कर्नाटक के झगड़ों में उसे सफलता प्राप्त भी हुई।

(ii) फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना-
डूप्ले फ्रांसीसी सरकार तथा फ्रांसीसी व्यापारियों के लाभ हेतु यहाँ पर भारत के अन्य क्षेत्रों में भी साम्राज्य स्थापित करने की नीति में विश्वास करता था और साम्राज्य स्थापना के लिए वह अत्यधिक सक्रिय हो गया था।

(iii) व्यापारिक नीति में परिवर्तन-
डूप्ले प्रारम्भ में अपने देश की समृद्धि के लिए भारत में व्यापार की वृद्धि करने आया। उसने फ्रांसीसी कम्पनी को भारत में सुदृढ़ नींव पर खड़ा करने का प्रयास किया, परन्तु बाद में वह समझ गया था कि अंग्रेजों के विरुद्ध सफल होने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना भी अनिवार्य है। अतः व्यापार की वृद्धि के लिए वह राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में जुट गया। इस प्रकार डूप्ले ने फ्रांसीसी कम्पनी की व्यापारिक नीति में परिवर्तन किया तथा दक्षिणी भारत में फ्रांस के राजनीतिक प्रभुत्व की स्थापना की ओर ध्यान दिया।

(iv) भारतीय सैन्य-बल पर प्रयोग-
डूप्ले फ्रांसीसी सेनाओं की दुर्बलताओं से भली-भाँति परिचित था। अत: उसने सैन्य बल का लाभ उठाने की नीति अपनाई थी। उसने भारतीय राजाओं की सेनाओं को पाश्चात्य ढंग से प्रशिक्षण देना शुरू किया।

(v) उपहार ग्रहण करना-
धन की अभिवृद्धि के लिए डूप्ले ने भारतीय राजाओं से उपहार ग्रहण करने की नीति अपनाई। यह नीति राजनीतिक दृष्टिकोण से डूप्ले द्वारा लिया गया अविवेकपूर्ण निर्णय था।

फ्रांसीसियों की असफलता के कारण- फ्रांसीसियों की असफलता के निम्नलिखित कारण हैं
(i) गोपनीयता- डूप्ले अपनी भावी योजना को अन्य समकक्ष अधिकारियों से छिपाकर रखता था। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी और फ्रांसीसी सरकार उसकी समय पर सहायता न कर सकी और इस तरह डूप्ले की गोपनीय योजना की यह नीति फ्रांसीसियों के पतन का प्रमुख कारण बन गई।

(ii) व्यापार की दयनीय दशा-
फ्रांसीसियों का व्यापार भी पतनोन्मुख था। ब्रिटिश व्यापारी बहुत चतुर व दक्ष थे। इनका एकमात्र मुम्बई का व्यापार ही सारे फ्रांसीसी व्यापार की तुलना में पर्याप्त था। व्यापारिक अवनति ने भी फ्रांसीसियों का मनोबल कम कर दिया। यह स्थिति फ्रांसीसियों के लिए अंग्रेजों से बराबरी करने में प्रतिकूल सिद्ध हुई। चारित्रिक दुर्बलता- डूप्ले अहंकारी व्यक्ति था। वह अति महत्वाकांक्षी था तथा उसका स्वभाव षड्यन्त्रप्रिय था। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक था परन्तु योग्य सेनानायक न था। इसके विपरीत उसका प्रतिद्वन्द्वी क्लाइव योग्य राजनीतिज्ञ तथा प्रबन्धक तो था ही साथ ही कुशल सेनानायक भी था।

(iv) फ्रांसीसी सरकार का असहयोग-
डूप्ले ने भारतीय राज्यों में अपने हस्तक्षेप की बात कम्पनी के डायेक्टरों से छिपाकर अपनी योजना उनके सामने स्पष्ट नहीं की। इस कारण उसको फ्रांसीसी सरकार से कोई सहायता नहीं मिल सकी बल्कि डायरेक्टर उसकी नीति को शंका की दृष्टि से देखने लगे। मजबूरन डूप्ले को अपनी ही अपर्याप्त शक्ति पर निर्भर रहना पड़ा। फ्रांस की तत्कालीन सरकार ने इन परिस्थितियों में अमेरिका में ही अपने उपनिवेश स्थापित करने की ओर ध्यान दिया भारत की ओर नहीं, क्योंकि भारत की स्थिति को डूप्ले ने छिपाए रखा।

(v) फ्रांसीसी सरकार का अपने प्रतिनिधियों से दुर्व्यवहार-
फ्रांसीसी सरकार अपने प्रतिनिधियों के प्रति समुचित स्नेह और आदर का व्यवहार नहीं करती थी। इससे उनका मनोबल टूट जाता था, जिससे वे कार्यों को आत्मिक भाव से न करके उसे सरकारी समझकर असावधानी बरतते थे। डूप्ले तथा लैली के प्रति दुर्व्यवहार किया गया था। डूप्ले को वापस बुला लिया गया तथा लैली को बाद में मृत्युदण्ड दिया गया।

(vi) चाँदा साहब का पक्ष लेना-
डूप्ले को एक भागे हुए तथा मराठों की कैद में वर्षों रहने वाले चाँदा साहब का पक्ष लेना उसकी अदूरदर्शिता थी। चाँदा साहब का कर्नाटक की राजनीति से सम्बन्ध विच्छेद हो चुका था और वहाँ उसका कोई प्रभाव नहीं था। डूप्ले को मुहम्मद अली का पक्ष लेना चाहिए था, जिसका कर्नाटक की जनता पर प्रभाव था और जिसे जनता द्वारा वास्तव में गद्दी का अधिकारी समझा जाता था।

(vii) अति महत्वाकांक्षी होना-
डूप्ले एक ही समय में हैदराबाद और कर्नाटक दोनों स्थानों पर हस्तक्षेप कर सफलता पाना चाहता था, जबकि फ्रांसीसी साधन दोनों स्थानों पर एक साथ सफलता प्राप्त करने के लिए अपर्याप्त थे। उसने अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने के कारण दोनों स्थानों पर एक साथ हस्तक्षेप किया और दोनों ही स्थानों पर वह असफल रहा।

प्रश्न 4.
अंग्रेज तथा फ्रांसीसियों के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उतर:
भारतीय व्यापार की प्रतिद्वन्द्विता एवं उपनिवेश स्थापना का प्रयास तथा भारत में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापना के प्रश्न पर अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में संघर्ष हो गया। 16वीं तथा 17वीं शताब्दियों में जब मुगलों का चरम उत्कर्ष का काल था तथा केन्द्रीय शक्ति सुदृढ़ थी, यूरोप के व्यापारी विभिन्न छोटे तथा बड़े भारतीय शासकों के दरबारों में प्रार्थी के रूप में आते थे परन्तु अनुकूल परिस्थितियों में उनकी व्यावसायिक प्रवृत्ति धीरे-धीरे साम्राज्यवादी मनोवृत्ति में बदल गई। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त ही मुगल साम्राज्य, केन्द्र में होने वाले राजमहलों के षड्यन्त्रों तथा अपने सूबेदारों की स्वार्थपूर्ण देशद्रोहिता के कारण पतनोत्मुख हो चला था। इसके अतिरिक्त 1739 ई० में नादिरशाह तथा 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली के भयंकर आक्रमणों ने दिल्ली के शाही दरबार की दुर्बलता सबके सामने स्पष्ट कर दी। पेशवाओं के नेतृत्व में मराठे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे जिससे देश की शिथिल केन्द्रीय व्यवस्था नष्ट होने के निकट पहुँच गई थी।

(i) व्यापारिक एकाधिकार की स्थापना का प्रयास- फ्रांसीसी तथा अंग्रेज दोनों ही प्रारम्भ में व्यापारिक एकाधिकार स्थापित करने में संलग्न थे। दक्षिण भारत में दोनों विदेशी जातियों ने अपनी-अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। अत: अंग्रेज तथा फ्रांसीसी संघर्ष अनिवार्य हो गया। दोनों ही राष्ट्रों ने पूर्व में आक्रामक नीति का अनुसरण किया। प्रारम्भ में इन्होंने आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर सेना का निर्माण किया और किलेबन्दी भी की। फिर भारतीय राजाओं और नबाबों के पारस्परिक झगड़ों में हस्तक्षेप किया तथा अपने हित की पूर्ति के लिए अपनी सेना से उनकी सहायता करने लगे। इन संघर्षों में फ्रांसीसी यदि एक ओर होते थे तो अंग्रेज ठीक उसके विपक्षी की ओर। इस प्रकार वे दोनों आपस में लड़ने लगते थे और अपनी-अपनी शक्ति एवं क्षमता का प्रदर्शन करते थे।

(ii) डूप्ले की महत्वाकांक्षा- भारतीय राजनीति में प्रथम राजनीतिक हस्तक्षेप का श्रीगणेश फ्रांसीसियों के गवर्नर डूप्ले ने किया। डूप्ले फ्रांसीसी गवर्नरों में सर्वाधिक साम्राज्यवादी एवं महत्वाकांक्षी था। उसने भारत में फ्रांसीसी व्यापार को उन्नत करने के लिए देशी राजाओं की राजनीति में हस्तक्षेप करना और उन्हें अपने प्रभाव में लाना आवश्यक समझा। अंग्रेज डूप्ले की इस नीति को सहन न कर सके और वे भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने लगे। परिणामस्वरूप दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ।

(iii) यूरोप में ऑस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध-1742 ई० में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसी परस्पर संघर्षरत थे। दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण 1740 ई० में ऑस्ट्रिया और प्रशा के मध्य युद्ध का होना था। इस युद्ध में अंग्रेज ऑस्ट्रिया की ओर तथा फ्रांसीसी प्रशा की ओर थे। यूरोप में हुए दोनों के बीच संघर्ष का प्रभाव भारत में भी पड़ा, जिससे भारत में दोनों के बीच संघर्ष हुआ।।

(iv) भारत की राजनीतिक दशा-
औरंगजेब के पतन के पश्चात् भारत में अनेक नवीन राज्य एवं शक्तियों का उदय हुआ। इनमें से कोई भी राज्य अथवा शक्ति ऐसी न थी, जो सम्पूर्ण भारत पर अपना नियन्त्रण कायम रखने में सक्षम हो। अत: ऐसी स्थिति में अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों को ही व्यापार के साथ-साथ भारत में अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर प्राप्त हुआ।

(v) उत्तराधिकार के संघर्ष में कम्पनी की भागीदारी-
हैदराबाद के निजाम-उल-हक की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार हेतु नासिरजंग और मुजफ्फरजंग के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में व्यापारिक लाभ की कामना से अंग्रेजों ने नासिरजंग और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग का साथ दिया। अत: कहा जा सकता है कि उत्तराधिकार के संघर्ष में दोनों कम्पनियों का भाग लेना दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण था।

प्रश्न 5.
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत पर एक टिप्पणी कीजिए।
उतर:
बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत- प्लासी और बक्सर के युद्ध भारतीय इतिहास के निर्णायक युद्ध थे, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में ब्रिटिश राज्य की नींव पड़ी और भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय का आरम्भ हुआ।

बंगाल एक समृद्धिशाली प्रान्त था। उस समय यह मुगलों के अधीन था। व्यापारिक दृष्टिकोण से बंगाल काफी अग्रसर था। अंग्रेजों ने सन् 1651 ई० में अपनी प्रथम व्यापारिक कोठी हुगली में स्थापित की। उस समय वहाँ का सूबेदार शाहजहाँ का पुत्र शाहशुजा था। उसकी स्वीकृति के बाद उन्होंने अपनी कोठियों का विस्तार कासिम बाजार व पटना तक कर लिया। मुगल सम्राट फर्रुखसियार ने 1717 ई० में अंग्रेजों को अत्यधिक सुविधाएँ दीं। उसने उन पर लगे सभी व्यापारिक कर हटा दिए, जिसका अंग्रेजों ने पूर्णरूप से दुरुपयोग किया। उन्होंने कम्पनी के साथ स्वयं का व्यापार भी बिना कर दिए करना शुरू कर दिया।

वस्तुत: भारत में अंग्रेजी राज का प्रभुत्व सर्वप्रथम बंगाल से ही शुरू हुआ। मुगलों द्वारा अंग्रेजों को दी गई छूट अन्ततः उन्हीं के साम्राज्य के पतन का कारण बन गई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुर्शिदकुली खाँ को बंगाल का सूबेदार बनाया गया। वह एक ईमानदार व योग्य व्यक्ति था। उसके काल के दौरान बंगाल उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। उस समय बंगाल मुगल काल का सबसे समृद्धिशाली प्रान्त था। 1727 ई० में मुर्शिदकुली खाँ की मृत्यु हो गई और उसके दामाद शुजाउद्दीन मोहम्मद खान शुजाउद्दौला असदजंग को बंगाल व उड़ीसा का कार्यभार सौंप दिया गया। उसके काल में भी बंगाल ने काफी उन्नति की। शुजाउद्दौला की मृत्यु के उपरान्त 1739 ई० में उसके पुत्र सरफराज ने बंगाल, बिहार व उड़ीसा का राज्य सँभाला। उसने अलाउद्दौला हैदरजंग की उपाधि प्राप्त की।

1739 ई० में बिहार के नाजिम अलीवर्दी खाँ ने अलाउद्दौला की हत्या कर दी और बंगाल का सूबेदार बन बैठा। वह भी योग्य शासक था। उसके काल में मराठों ने बंगाल में छापे मारने शुरू कर दिए, जिससे मुक्ति पाने के लिए उसने मराठों से सन्धि कर ली। मराठों को उड़ीसा व 12 लाख रुपए उसने चौथ के रूप में दे दिए। तदुपरान्त बंगाल की आंतरिक स्थिति को सुधारकर वहाँ पर शान्ति स्थापित कर दी।

अलीवर्दी खाँ के कोई पुत्र न था। अत: उसने अपनी सबसे छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। राज्यारोहण के समय वह 25 वर्ष का अनुभवशून्य युवक था तथा हठी एवं आलसी होने के कारण उसकी कठिनाइयाँ और भी अधिक बढ़ गई थीं। सर शफात अहमद खाँ के अनुसार- ‘‘सिराजुद्दौला अदूरदर्शी, हठी और दृढ़ था। उसको वृद्ध अलीवर्दी खाँ के लाड़-प्यार ने बिलकुल बिगाड़ दिया था। गद्दी पर बैठने पर भी उसमें कोई सुधार न हुआ। वह झूठा था, कायर था, नीच और कृतघ्न था। उसमें अपने पूर्वजों के कोई गुण न थे और अपने जो गुण थे उनको प्रयोग में लाने की शक्ति उसमें नहीं थी। वह भी अंग्रेजों की कुटिल नीति का उसी तरह शिकार बना जिस तरह दक्षिण के नवाब तथा कुछ अन्य राजा बने थे।

प्रश्न 6.
बक्सर के युद्ध का वर्णन कीजिए तथा उसके परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
बक्सर का युद्ध ( 22 अक्टूबर, 1764 ई० )- अंग्रेजों ने अपदस्थ मीरकासिम के स्थान पर मीरजाफर को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। अंग्रेजों के इस रवैये से असन्तुष्ट होकर मीरकासिम ने मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय एवं नवाब शुजाउद्दौला से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ का निर्माण किया। इनकी संयुक्त सेना में 40-50 हजार सैनिक थे। कम्पनी की सेना में 7027 सैनिक थे और उसका नेतृत्व मेजर मुनरो कर रहा था। इतिहास प्रसिद्ध यह लड़ाई बक्सर नामक स्थान पर 22 अक्टूबर, 1764 को हुई। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए। पराजित मीरकासिम भाग गया। शाहआलम ने अंग्रेजों की शरण ली। इस युद्ध में अंग्रेजों के 847 सैनिक मरे या हताहत हुए, जबकि तीनों की संयुक्त सेना के लगभग 2000 सैनिक मरे या हताहत हुए। परिणामस्वरूप पराजित मीरकासिम इलाहाबाद पहुँचा। वह 12 वर्षों तक भटकता रहा, अन्ततः 1777 ई० में दिल्ली के निकट उसकी मृत्यु हो गई।

बक्सर के युद्ध के कारण- मीरकासिम और अंग्रेजों के मध्य बक्सर युद्ध के निम्नलिखित कारण थे
(i) अंग्रेजों की बेईमानी- यद्यपि मीरकासिम ने कम्पनी को यह आज्ञा दी थी कि कलकत्ता (कोलकाता) में ढाली गई मुद्राएँ तौल और धातु में नवाब की मुद्राओं के समान हों परन्तु कम्पनी घटिया मुद्राएँ ढालती रही तथा जब व्यापारियों ने उन मुद्राओं को लेने से इनकार किया तो कम्पनी की प्रार्थना पर नवाब ने व्यापारियों को दण्ड दिया। फलस्वरूप व्यापारी वर्ग भी कासिम से असन्तुष्ट हो गया।

(ii) कम्पनी का असंयत व्यवहार- मीरकासिम की इतनी ईमानदारी के व्यवहार से भी कम्पनी सन्तुष्ट नहीं थी क्योंकि वह तो नवाब को कठपुतली के समान नचाना चाहती थी। परन्तु मीरजाफर के विपरीत मीरकासिम स्वतन्त्र प्रकृति का व्यक्ति था, वह अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त होना चाहता था।

(iii) राजधानी परिवर्तन- जब मीरकासिम ने देखा कि मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह उनके चंगुल से मुक्त नहीं हो सकता तो उसने अपनी राजधानी मुंगेर बदल ली, यद्यपि इस राजधानी परिवर्तन से अनेक अंग्रेज मीरकासिम से असन्तुष्ट हो गए तथा उसे पदच्युत करने का षड्यन्त्र रचने लगे।

(iv) मीरजाफर से अंग्रेजों का समझौता- अंग्रेजों ने पुन: मीरजाफर को गद्दी पर बैठाने का निश्चय किया। मीरजाफर से गुप्त सन्धि की गई जिसके द्वारा मीरकासिम द्वारा दी गई सभी सुविधाएँ कायम रखी गईं परन्तु नवाब की सैनिक संख्या कम कर दी गई। कम्पनी की नमक के अतिरिक्त सभी वस्तुओं पर चुंगी माफ कर दी गई तथा भारतीयों के लिए 25 प्रतिशत चुंगी लगाने का निश्चय किया गया। इसके अतिरिक्त क्षति पूर्ति के लिए भी मीरजाफर ने वचन दिया।

(v) दस्तक प्रथा का दुरुपयोग- इस समय तक मीरकासिम तथा अंग्रेजों के सम्बन्ध बिलकुल बिगड़ चुके थे। इसका कारण व्यापार से सम्बन्धित था। मुगल सम्राट द्वारा दी गई व्यापारिक सुविधाओं का अंग्रेज दुरुपयोग कर रहे थे। दस्तक लेकर सम्पूर्ण देश में अंग्रेज व्यापारी बिना चुंगी दिए व्यापार कर रहे थे तथा अनेक ऐसी वस्तुओं का व्यापार उन्होंने आरम्भ कर दिया था, जिसके लिए उन्हें आज्ञा प्राप्त नहीं थी।

(vi) भारतीयों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार- भारतीय व्यापारियों के प्रति उनका व्यवहार अभद्रतापूर्ण था। उनसे बलपूर्वक माल खरीद लिया जाता था तथा उनसे माल पर चुंगी वसूल की जाती थी। कम्पनी मनमाने मूल्य पर कृषकों की खड़ी फसल तथा व्यापारियों का माल खरीद लेती थी, जिसके कारण भारतीय जनता बहुत दु:खी थी। मीरकासिम ने इस विषय पर कम्पनी को अनेक पत्र लिखे परन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला।

बक्सर के युद्ध के परिणाम- राजनीतिक दृष्टि से बक्सर का युद्ध प्लासी से अधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक था और इसके दूरगामी परिणाम हुए
(i) सैनिक महत्व- बक्सर के युद्ध ने प्लासी के युद्ध के द्वारा आरम्भ किए गए कार्य को पूर्ण किया। प्लासी के युद्ध में तो युद्ध का अभिनय-मात्र हुआ था तथा अंग्रेजों को विजय सैनिक योग्यता के कारण नहीं बल्कि कूटनीति के कारण मिली थी, परन्तु बक्सर युद्ध ने यह निश्चित कर दिया कि अंग्रेज युद्ध में भी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

(ii) अंग्रेजों को दीवानी अधिकार-
इस युद्ध के द्वारा बंगाल तथा बिहार अंग्रेजों के पूर्ण नियन्त्रण में आ गए तथा सम्राट शाहआलम द्वितीय ने बंगाल व
बिहार की दीवानी उन्हें सौंप दी।

(iii) कम्पनी की राजनीतिक प्रतिष्ठा-
अवध भी कम्पनी के प्रभाव में आ गया। इस विजय से कम्पनी का राजनीतिक महत्व स्थापित हो गया। अब वह मात्र व्यापारिक संस्था ही नहीं थी अपितु शासनकर्ता के रूप में उभरी।

(iv) मीरजाफर का पुनः नवाब बनना-
बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त करके अंग्रेजों ने पुन: वृद्ध मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। मीरजाफर ने अंग्रेजों को बिना चुंगी दिए तथा भारतीयों को 25 प्रतिशत चुंगी पर व्यापार की पुन: व्यवस्था कर दी। उसकी सेना 6 हजार सवार और 12 हजार पैदल निश्चित कर दी गई। युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में नवाब ने काफी धन कम्पनी को दिया तथा एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट भी अपने दरबार में रखना स्वीकार कर लिया। नवाब को कठपुतली बनाकर अंग्रेजों ने बंगाल की धन-सम्पदा को लूटना जारी रखा। मीरजाफर का कोष रिक्त था तथा वह असहाय नवाब अंग्रेजों के चंगुल में पूर्णतया फँसा हुआ था। उसका अन्तिम समय अत्यन्त दु:खपूर्ण था। अन्त में 5 जनवरी, 1765 ई० को मृत्यु ने ही उसे इन संकटों से मुक्त किया।

प्रश्न 7.
बंगाल दोहरा-शासन( द्वैध-शासन ) कब लागू हुआ? उसके लाभ व हानियों पर प्रकाश डालिए।
उतर:
बंगाल में दोहरा-शासन( द्वैध-शासन)-1765 ई० में लॉर्ड क्लाइव जब दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया तो उसने बंगाल में ‘दोहरे अथवा द्वैध शासन’ की स्थापना की। इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने राजस्व सम्बन्धी सभी कार्य अपने हाथ में ले लिए और प्रशासनिक कार्य नवाब के हाथों में रहने दिए। क्लाइव द्वारा बंगाल में प्रशासनिक कार्यों के इस तरह विभाजित करने की प्रणाली को इतिहास में दोहरे अथवा द्वैध शासन प्रणाली के नाम से जाना जाता है। बंगाल में यह प्रणाली 1765 से 1772 ई० तक लागू रही। इस प्रणाली से आरम्भ में अनेक लाभ हुए किन्तु इस प्रणाली में अनेक दोष विद्यमान थे। अतः 1772 ई० में वारेन हेस्टिग्स ने इसे समाप्त कर दिया। दोहरे-शासन से लाभ

  • कम्पनी ने बिना उत्तरदायित्व लिए बंगाल पर अंग्रेजी शिकंजा कस दिया, किन्तु प्रशासन का दायित्व नवाब पर डाल दिया। उपनायबों के माध्यम से राजस्व कम्पनी के कोष में जमा होता रहा।
  • कम्पनी की आर्थिक व सैनिक स्थिति सुदृढ़ हो गई।
  • फ्रांसीसियों व डचों की ईर्ष्या से कम्पनी बच गई व ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप भी नहीं बढ़ सका।
  • क्लाइव ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथों में न लेकर कम्पनी को संभावित खतरे से बचा लिया।
  • कम्पनी को लाभ की स्थिति में रखने हेतु उसे केवल व्यापारिक कम्पनी बनाए रखा।
  • दोहरी-शासन प्रणाली से भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव और अधिक मजबूत हो गई। शासन सत्ता की वास्तविक

बागडोर अब अंग्रेजों के हाथ में आ गई और नवाब अब नाममात्र का शासक रह गया। दोहरे-शासन से हानियाँ

  1. दोहरे शासन से न्याय व्यवस्था खोखली हो गई, नवाब तो न्यायाधीशों को समय पर वेतन भी न दे सका। अत: गुलाम हुसैन के अनुसार दोहरे शासन में न्यायाधीशों व राजकर्मचारियों ने न्याय के बहाने अपार धन कमाया।
  2. भू-राजस्व में वृद्धि के साथ-साथ भूमि एक वर्ष के ठेके पर दी जाने लगी। भूमि की उर्वरता की उपेक्षा से भूमि अनुपजाऊ हो गई और किसान भूखों मरने लगे।

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