UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास)

UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास) are the part of UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास).

Board UP Board
Textbook NCERT
Class Class 11
Subject Pedagogy
Chapter Chapter 22
Chapter Name Emotional Development (संवेगात्मक विकास)
Number of Questions Solved 21
Category UP Board Solutions

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संवेग का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। संवेगों की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

संवेग का अर्थ
(Meaning of Emotion)

‘संवेग’ को अंग्रेजी में ‘Emotion’ कहते हैं। Emotion शब्द ‘Emovre’ से बना है, जिसका अर्थ है-उत्तेजित होना’। इस प्रकार संवेग की स्थिति में व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है और उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। संवेग व्यक्ति के वैयक्तिक तथा आन्तरिक अनुभव हैं। प्रत्येक व्यक्ति सुख, दु:ख, पीड़ा तथा क्रोध का अनुभव करता है। जब तक ये अनुभव अपने साधारण रूप में रहते हैं, तब इन्हें राग या भाव (feeling) कहा जाता है, परन्तु जब किसी विशेष कारण या घटना से राग या भाव उग्र रूप धारण कर लेते हैं, तो उन्हें संवेग कहा जाता है।

संवेग की परिभाषा
(Definition of Emotion)

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने संवेगों को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है

1. किम्बाल यंग के अनुसार, “संवेग प्राणी की उत्तेजित, मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक दशा है, जिसमें शारीरिक क्रियाएँ तथा भावनाएँ एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से बढ़ जाती हैं।

2. टी० पी० नन के अनुसार, संवेग सम्पूर्ण प्राणी का वह मूलत: मनोवैज्ञानिक तीव्र विघ्न डालने वाला व्यवहार है, जिसमें चेतना, अनुभूति, व्यवहार तथा अन्तरावयव की क्रियाएँ शामिल रहती हैं।”

3. वुडवर्थ के अनुसार, “संवेग, प्राणी की उत्तेजित अथवा उद्वेग अवस्था है। यह अनुभूति की उस रूप में उत्तेजित अवस्था है, जिसमें व्यक्ति स्वयं अनुभव करता है। यह पेशीय तथा ग्रन्थीय क्रिया की गड़बड़ी है, जैसा कि बाहर से प्रतीत होता है।”

4. जेम्स ईवर के अनुसार, “संवेग शरीर की जटिल अवस्था है, जिसमें श्वास लेना नाड़ी, ग्रन्थियाँ, उत्तेजना, मानसिक दशा तथा अवरोध आदि का अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है एवं मांसपेशियाँ एक विशेष व्यवहार करने लगती हैं।”

5. जर्सिल्ड के अनुसार, “संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

संवेग की विशेषताएँ (लक्षण)
(Characteristics of Emotion)

संवेग की विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर संवेग की निम्नांकित विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता

1. भावनाओं से सम्बन्धित- डॉ० जायसवाल के अनुसार, “संवेगों का सम्बन्ध भावनाओं और वृत्तियों से होता है। बिना भावना के संवेग सम्भव नहीं है। भावनाएँ एक प्रकार से संवेगों की पृष्ठभूमि है अथवा संवेगों के गर्भ में भावनाओं का ही बल है। वास्तव में भावात्मक प्रवृत्ति का बढ़ा हुआ रूप ही संवेग है।

2. वैयक्तिकता- संवेग की अन्य विशेषता उसका वैयक्तिक होना है। एक ही परिवेश में दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न संवेगों का अनुभव करते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए-एक रोती हुई महिला को देखकर एक व्यक्ति दया से द्रवित हो जाता है, तो दूसरा व्यक्ति उसे ढोंगी समझकर उससे घृणा करने लगता है।

3. तीव्रता- संवेग की अनुभूति अत्यन्त तीव्र होती है। संवेग को यदि एक प्रकार का उद्वेग कहा जाए तो अनुचित नहीं है। वे व्यक्ति की मन:स्थिति को तीव्रता के कारण अस्त-व्यस्त कर देते हैं, परन्तु इनकी तीव्रता में अन्तर भी होता है। एक शिक्षित व्यक्ति में अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा संवेग की तीव्रता कम होती है, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है।

4. व्यापकता- संवेग वैयक्तिक होते हुए भी सर्वानुभूति और सर्वव्यापक होते हैं। संवेगों का अनुभव समस्त प्राणी करते हैं। स्टाउट के अनुसार, “निम्न श्रेणी के प्राणियों से लेकर उच्चतर प्राणियों तक एक ही प्रकार के संवेग पाये जाते हैं।” अन्तर केवल मात्रा का होता है। किसी को क्रोध अधिक आता है और किसी को कम।

5. स्थानान्तरण- प्रायः संवेग स्थानान्तरित हो जाते हैं। यदि कोई अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर क्रोधित हो जाता है और उसी दशा में यदि कर्मचारी का कोई साथी उसे छेड़ दे तो वह अपने साथी पर क्रोधित होने लगता है।

6. संवेगात्मक सम्बन्ध- संवेग का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार से सम्बद्ध होता है। हम किसी व्यक्ति या विचार के प्रति ही क्रोध या घृणा करते हैं। दूसरे शब्दों में, संवेग का कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है।

7. सुख और दुःख की भावना- संवेग में किसी-न-किसी रूप में सुख या दु:ख का भाव निहित रहता है। जब हम किसी वस्तु को देखकर भयभीत होते हैं तो उसमें दु:ख का भाव निहित होता है। जब हम आशा करते हैं तो उसमें सुख की अनुभूति रहती है। स्टाउट के अनुसार, “अपनी विशेष भावना के अतिरिक्त संवेग में नि:सन्देह रूप से सुख या दु:ख की भांघना होती है।”

8. बाह्यशारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अवस्था में हमारे शरीर में जो बाह्य परिवर्तन होते हैं, वे इस प्रकार हैं-भय या क्रोध में शरीर का काँपना, पसीना आना, रोंगटे खड़े होना, आँखों में लाली छाना या आँसू निकलना, प्रसन्नता में मुस्कराना या हँसना आश्चर्य के समय आँखों का खुला रह जाना।

9. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अनुभूति के समय शरीर में आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं; जैसे-हृदय की धड़कन तीव्र होना, क्रोध की दशा में, पेट में पाचक रस निकलना बन्द होना तथा भोजन की पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अस्त-व्यस्त हो जाना।

10. व्यवहार में परिवर्तन- संवेगात्मक दशा में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। क्रोध से ओत-प्रोत व्यक्ति का व्यवहार उसके सामान्य व्यवहार से पूर्णतया भिन्न हो जाता है।

11. मानसिक तनाव- संवेग की अवस्था में हम एक प्रकार की उत्तेजना, आवेग और मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं।

12. चिन्तन- शक्ति का लोप-संवेग के कारण हमारी चिन्तन-शक्ति का लोप हो जाता है और संवेगात्मक अवस्था में अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता। उदाहरण के लिए-क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति हत्या तक कर देता है।

13. स्थिरता की प्रवृत्ति- संवेग की प्रवृत्ति में स्थिरता होती है। अपने प्रिय की मृत्यु का दु:ख पर्याप्त काल तक हमारे मन में रहता है। इसी प्रकार जब हम किसी पर क्रोधित होते हैं तो पर्याप्त काल तक उसका प्रभाव हमारे मन पर छाया रहता है। उसके सामने आने पर हमारा क्रोध फिर भड़क उठता है।

14. क्रियात्मक प्रवृत्ति का होना- जिस समय हम संवेग का अनुभव करते हैं, तो उस समय कुछ-न-कुछ क्रिया अवश्य होती है। उदाहरण के लिए-जब हम कोई घृणास्पद वस्तु को देखते हैं तो तुरन्त ही हम अपना मुख उसकी ओर से फेर लेते हैं। इसी प्रकार क्रोधित होने पर हम अपने हाथ मलने या दाँत किटकिटाने लगते हैं।

प्रश्न 2
संवेगात्मक विकास से क्या आशय है? संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को उल्लेख कीजिए।
या
उन कारकों का उल्लेख कीजिए,जो संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं।
उत्तर:

संवेगात्मक विकास का आशय
(Meaning of Emotional Development)

शिशु जन्म के उपरान्त क्रमश: संवेगों को प्रकट करना प्रारम्भ करता है। इस प्रकार से संवेगों के क्रमश: होने वाले विकास को ही संवेगात्मक विकास कहा जाता है। संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत व्यक्ति के संवेगों का स्वरूप क्रमश: सरल से जटिल की ओर अग्रसर होता है। संवेगात्मक विकास के अन्तर्गत ही संवेगों को नियन्त्रित करना भी सीखा जाता है। जैसे-जैसे बालक का संवेगात्मक विकास होता है, वैसे-वैसे उसके संवेगों में क्रमशः स्थिरता आने लगती है। संवेगात्मक विकास के ही परिणामस्वरूप व्यक्ति के संवेग उसकी आयु तथा सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप स्वरूप ग्रहण करते हैं। व्यक्तित्व के सुचारु विकास के लिए संवेगात्मक विकास का सामान्य होना अनिवार्य है।

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Influencing Emotional Development)

बालक के संवेगात्मक विकास को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं|

1.शारीरिक स्वास्थ्य- शारीरिक स्वास्थ्य का संवेगों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जो बालक सबल और स्वस्थ होते हैं, उनमें संवेगात्मक स्थिरता निर्बल और अस्वस्थ बालकों की अपेक्षा अधिक होती है। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “बालक के स्वास्थ्य का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।”

2. मानसिक विकास- जिन बालकों का मानसिक विकास पर्याप्त हो जाता है, उनमें संवेगात्मक स्थिरता पायी जाती है। निम्न मानसिक विकास विकास के बालक की अपेक्षा प्रतिभाशाली बालक अपने संवेगों पर सफलता से नियन्त्रण स्थापित कर लेता है।

3. थकान- थकान का संवेगात्मक विकास पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जब बालक थका हुआ होता है तो वह शीघ्र क्रोध और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाता है।

4. परिवार का वातावरण- जिस परिवार के सदस्य अत्यधिक, आर्थिक संवेदनशील होते हैं, उस परिवार के बालक भी उसी प्रकार से, संवेदनशील हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि परिवार का वातावरण उल्लासमय, सुखद तथा शान्तिपूर्ण रहता है, तो बालक पूर्ण सुरक्षा का अनुभव करता है और उसका संवेगात्मक विकास सन्तुलित रूप से होता है।

5. माता-पिता के आचरण और व्यवहार- माता-पिता के आचरण तथा व्यवहार का बालक के संवेगात्मक विकास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। जो माता-पिता अपने बालकों की उपेक्षा करते हैं या आवश्यकता से अधिक उनको लाड़-प्यार करते हैं तथा उन्हें इच्छानुसार कार्य करने कीस्वतन्त्रता नहीं देते, उनका यह आचरण बालकों के अवांछनीय संवेगात्मक विकास में योग प्रदान करता है।

6. सामाजिक मान्यता- क्रो एवं क्रो के अनुसार, “यदि बालक को अपने कार्यों की सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं होती तो उनके संवेगात्मक व्यवहार में उत्तेजना या शिथिलता आ जाती है। उदाहरण के लिए–यदि एक बालक स्वयं करि बनाता है, परन्तु उस कविता को जन-समुदाय पसन्द नहीं करता तो बालक निराशा और कुण्ठा से ग्रसित हो जाता है।

7. आर्थिक स्थिति- आर्थिक स्थिति बालकों के संवेगों को प्रभावित करती है। एक निर्धन बालक में अनेक अवांछनीय संवेग स्थायी हो जाते हैं। धनी परिवारों के बालक की वेशभूषा तथा रहन-सहन देखकर निर्धन परिवार के बालक में द्वेष और ईर्ष्या के संवेग प्रबल रूप धारण कर लेते हैं।

8. अभिलाषा- प्रत्येक बालक कोई-न-कोई अभिलाषा रखता है। कोई महान् कवि बनना चाहता है तो । कोई डॉक्टर या इंजीनियर। परन्तु जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं और बालक की अभिलाषाएँ पूरी नहीं हो पाती हैं, तो वह निराशा में डूब जाता है। यह निराशा संवेगात्मक तनाव की जनक होती है।

9. विद्यालय का वातावरण- परिवार के पश्चात् विद्यालय ही वह स्थान है, जो बालकों की भावनाओं को सबसे अधिक प्रभावित करता है। बालक विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संवेगों की अभिव्यंजना करता है। यदि विद्यालय में विभिन्न क्रियाओं का आयोजन इस ढंग से किया जाता है कि बालक अपनी अभिव्यक्ति, इच्छा और रुचियों के अनुकूल कर सके, तो उन्हें आनन्द और उल्लास का अनुभव होता है। परिणामस्वरूप उनके संवेगों का स्वस्थ विकास होता है। इसके विपरीत यदि विद्यालय में आतंक, भय तथा पक्षपात का वातावरण होता है, तो बालक उत्तेजना, क्रोध तथा घृणा से ग्रसित हो जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
शैशवावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Infancy)

शिशु के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में स्किनर तथा हैरीमन ने लिखा है कि “शिशु का संवेगात्मक व्यवहार क्रमशः अधिक स्पष्ट और निश्चित होता जाता है। उसके व्यवहार के विकास की सामान्य दिशा अनिश्चित और अस्पष्ट से विशिष्ट की ओर होती है।” एक शिशु के संवेगात्मक विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं|

  1. जन्म के समय शिशु में कोई विशेष संवेग नहीं होता। वह केवल उत्तेजना का अनुभव करता है। शिशु को रोना, चिल्लाना और हाथ-पैर पटकना उत्तेजना का परिणाम है।
  2. तीन मास का शिशु उत्तेजना के साथ-साथ कष्ट और प्रसन्नता का अनुभव करने लगता है। छ: मास तक वह भय, घृणा तथा क्रोध भी प्रकट करने लग जाता है।
  3. एक वर्ष का शिशु आनन्द और स्नेहका अनुभव करने लग जाता है। दो वर्ष तक बालक के प्रायः सभी संवेग विकसित हो जाते हैं और पाँच वर्ष की आयु में बालक के संवेगों पर उसके वातावरण का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो जाता है।
  4. शिशु का संवेगात्मक व्यवहार अत्यन्त अस्थिर होता है। यदि रोते हुए बालक को चॉकलेट दी जाए तो वह तुरन्त चुप हो जाता है। आयु के विकास के साथ-साथ शिशु के संवेगात्मक व्यवहार में स्थिरता आती जाती
  5. शिशु के संवेगों में प्रारम्भ में तीव्रता होती है धीरे-धीरे वह तीव्रता समाप्त हो जाती है।
  6. शिशु के संवेग प्रारम्भ में अस्पष्ट होते हैं, परन्तु धीरे-धीरे उनमें स्पष्टता आती जाती है।

प्रश्न 2
बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Childhood)

बाल्यावस्था में प्रवेश करते-करते बालक के संवेगों में पर्याप्त स्थिरता आ जाती है। शैशवकाल में विकसित संवेगों की अभिव्यक्ति बाल्यावस्था में ही होती है। बालक में सामूहिकता का विकास हो जाता है और वह अपने मित्रों के प्रति प्रेम, घृणा, द्वेष तथा प्रतियोगिता की भावना का प्रकटीकरण करने लग जाता है। वह शैशवकाल के समान शीघ्र उत्तेजित नहीं होता, भय और क्रोध पर वह पर्याप्त नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। इस अवस्था में बालक के संवेगात्मक विकास पर विद्यालय के वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। जिन विद्यालयों में पर्याप्त स्वतन्त्रता तथा स्वस्थ परम्पराओं का वातावरण होता है, वहाँ बालकों का संवेगात्मक विकास उचित दिशा में होता है। इसके विपरीत दमन, आतंक तथा कठोरता के वातावरण में ऐसा नहीं होता। इस अवस्था में बालक के संवेगों में पर्याप्त शिष्टता आ जाती है। वह अपने अध्यापक तथा अभिभावकों के आगे उन संवेगों को प्रकट नहीं होने देता, जिनको वे उचित नहीं समझते।

प्रश्न 3
किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
(Emotional Development in Adolescence)

किशोरावस्था में संवेगों में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। एक किशोर के लिए अपने संवेगों पर नियन्त्रण करना अत्यन्त कठिन होता है। उसमें प्रेम, दया, क्रोध तथा सहानुभूति आदि संवेग स्थायित्व धारण कर लेते हैं। किसी को दु:खी देखकर वह अत्यन्त भावुक हो उठता है तथा अत्याचार को देखकर एकदम क्रोधित हो उठता है। इस अवस्था में किशोर न तो बालक होता है और न प्रौढ़। ऐसी दशा में उसके अपने संवेगात्मक जीवन में वातावरण से अनुकूलन करने में विशेष कठिनाई होती है। वातावरण में अनुकूलन की असफलता से उसे निराशा होती है।

यह निराशा उसे कभी घर से भागने के लिए प्रेरित करती है तो कभी आत्महत्या के लिए। इस अवस्था के किशोर-किशोरियों में काम-प्रवृत्ति का तीव्र विकास होता है, जिसके कारण उनके संवेगात्मक व्यवहार पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वे दिवास्वप्न देखने लगते हैं तथा उनका अधिकांश समय कल्पना लोक में विचरण करने में व्यतीत होता है। प्रत्येक लड़का किसी लड़की के सम्पर्क में आकर भावुक हो उठता है। किशोर का संवेगात्मक विकास बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अनुकूल परिस्थितियाँ उसे प्रोत्साहित करती हैं तथा प्रतिकूल परिस्थितियाँ उसे निराश करती हैं।

प्रश्न 4
बालक के सुचारु संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षक के कर्तव्यों एवं भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

बालक के संवेगात्मक विकास में शिक्षक की भूमिका
(Role of Teacher in Emotional Development of Children)

बालक के संवेगात्मक विकास में विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं योगदान होता है। विद्यालय में भी शिक्षक या अध्यापक का सर्वाधिक महत्त्व होता है। बालक के उचित संवेगात्मक विकास के लिए अध्यापक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

  1. बालकों में उत्तम रुचियाँ उत्पन्न करने के लिए अध्यापक को स्वस्थ सदों का सहारा लेना चाहिए, जैसे-आशा, हर्ष तथा उल्लास आदि।
  2. अध्यापक का कर्तव्य है कि अवांछित संवेगों; जैसे-भय, क्रोध, घृणा आदि का मार्गान्तीकरण या शोधन कर उन्हें उत्तम कार्यों के लिए प्रेरित करे।
  3. पाठ्यक्रम निर्धारण में भी बालकों के संवेगों को उचित स्थान दिया जाए।
  4. अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को संवेगों पर नियन्त्रण रखने का प्रशिक्षण दें।
  5. वांछनीय संवेगों का यथासम्भव विकास करके बालकों में श्रेष्ठ विचारों, आदर्शों तथा उत्तम आदतों का निर्माण किया जाए।
  6. बालकों को संवेगों के आधार पर महान् तथा साहित्यिक कार्यों के लिए प्रेरित किया जाए।
  7. अध्यापक को चाहिए कि बालकों के संवेगों को इस तरीके से परिष्कृत करे कि उनका आचरण समाज के अनुकूल हो सके।
  8. वांछनीय संवेगों के माध्यम से छात्रों में साहित्य, कला तथा देशभक्ति के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जा सकता है।
  9. संवेग द्वारा अध्यापक बालकों को स्वाध्याय के लिए प्रेरित करके उनके मानसिक विकास में भी योग प्रदान कर सकता है।
  10. अध्यापक को सदा छात्रों के साथ प्रेम एवं मित्रता का व्यवहार करना चाए।
  11. अध्यापक को स्वयं संवेगात्मक सन्तुलन बनाये रखना चाहिए संक्षेप में, अध्यापकों का कर्तव्य है कि वे संवेगों के स्वरूप और विकास से भली-भाँति परिचित हों तथा शिक्षण कार्य द्वारा बालक में उचित संवेगों का विकास करें। प्रत्येक अध्यापक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि संवेग विचार एवं व्यवहार के प्रमुख चालक अथवा प्रेरित शक्तियाँ हैं और उनका प्रशिक्षण एवं नियन्त्रण आवश्यक है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
बालकों के संवेगों एवं संवेगात्मक व्यवहार की मुख्य विशेषताएँ क्या होती हैं ?
उत्तर:
प्रौढ़ व्यक्तियों तथा बालकों के संवेगों में पर्याप्त अन्तर होता है। बालकों के संवेगों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं

  1. बालकों द्वारा प्रकट किये जाने वाले संवेग प्राय: सरल, सीधे-सादे तथा क्षणिक होते हैं।
  2. बालकों के संवेग स्थायी नहीं होते बल्कि वे शीघ्र ही परिवर्तित होते रहते हैं।
  3. भिन्न-भिन्न बालकों द्वारा समान दशाओं में भी भिन्न-भिन्न संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ प्रकट की जाती हैं। ऐसा देखा जा सकता है कि डर की दशा में कोई बालक रोता है, कोई चिल्लाता है तथा कोई दुबक जाता है।

प्रश्न 2
संवेगों के नियन्त्रण के लिए अपनायी जाने वाली मुख्य विधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ संवेगों को नियन्त्रित करना भी आवश्यक होता है। संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित विधियों को अपनाया जाता है

  1. दमन या विरोध- इस विधि के अन्तर्गत अवांछित संवेगों को दबा या रोक देने की व्यवस्था होती है। प्रबल संवेगों का दमन प्रायः हानिकारक माना जाता है।
  2. अध्यवसाय- संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है कि बालकों को सदैव ही किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रखा जाए। इससे उनका व्यवहार सामान्य रहता है।
  3. रेचन- संवेगों को नियन्त्रित रखने का एक उपाय रेचन भी है। रेचन के अन्तर्गत बालकों को अपने संवेगों को प्रकट करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है। इससे उनकी मन की भड़ास निकल जाती है और वे सामान्य हो जाते हैं।
  4. मार्गान्तीकरण- संवेगों को नियन्त्रित करने के लिए मार्गान्तीकरण के उपाय को भी अपनाया जाता है। इस उपाय के अन्तर्गत संवेगों की अभिव्यक्ति के मार्ग को परिवर्तित कर दिया जाता है।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1
संवेग से क्या आशय है ?
उत्तर:
संवेग एक प्रकार की भावात्मक स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति को मन:शारीरिक सन्तुलन पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो जाता है।

प्रश्न 2
‘संवेग’ की एक व्यवस्थित परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
“संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

प्रश्न 3
मुख्य रूप से किन कारणों से संवेगों की उत्पत्ति होती है ?
उत्तर:
संवेगों की उत्पत्ति मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक कारणों से ही होती है।

प्रश्न 4
छोटे शिशुओं द्वारा किस प्रकार के संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं ?
उत्तर:
छोटे शिशुओं द्वारा सरल तथा अस्पष्ट संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 5
शिशुओं द्वारा मुख्य रूप से कौन-कौन से संवेग अभिव्यक्त किये जाते हैं ?
उत्तर:
शिशुओं द्वारा मुख्य रूप से भय, क्रोध तथा प्रेम नामक संवेग ही अभिव्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 6
किशोरों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले संवेग कैसे होते हैं ?
उत्तर:
किशोरों द्वारा अभिव्यक्त किये जाने वाले संवेग प्रबल तथा अनियन्त्रित होते हैं।

प्रश्न 7
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले चार मुख्य कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. शारीरिक स्वास्थ्य
  2. बौद्धिक स्तर
  3. घर एवं समाज का वातावरण
  4. लिंग-भेद

प्रश्न 8
संवेगों के अत्यधिक दमन का बालक के व्यक्तित्व पर कैसा प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
संवेगों के अत्यधिक दमन का बालक के व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है

प्रश्न 9
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य

  1. व्यक्ति के जीवन में संवेगों का कोई महत्त्व नहीं है
  2. संवेगावस्था में व्यक्ति का चिन्तन एवं निर्णय लेने की क्षमता अत्यधिक उत्तम एवं दोष रहित हो जाती है
  3. बाल्यावस्था में संवेगों को नियन्त्रित करने के उपाय किये जाने चाहिए।
  4. संवेगों की उत्पत्ति सदैव आर्थिक कारकों से होती है
  5. संवेगों को नियन्त्रित करने का एक उत्तम उपाय उनका शोधने है

उत्तर:

  1. असत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. अस्त्य
  5. सत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए-

प्रश्न 1.
संवेग के विषय में सत्य है
(क) प्रसन्न होना तथा हँसना
(ख) आवेश में आ जाना, भड़क उठना तथा उत्तेजित हो जाना
(ग) कष्ट अनुभव करना
(घ) अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आशा करना

प्रश्न 2.
संवेगावस्था की पहचान का सही उपाय है-
(क) विचार-प्रक्रिया का तीव्र होना
(ख) भाषा का दोषपूर्ण होना
(ग) मुखाभिव्यक्ति
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 3.
प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति का चिन्तन
(क) सुव्यवस्थित हो जाता है
(ख) प्रबल हो जाता है
(ग) अस्त-व्यस्त हो जाता है
(घ) उत्तम हो जाता है

प्रश्न 4.
बाल्यावस्था में अभिव्यक्त होने वाले संवेग-
(क) स्थायी होते हैं
(ख) प्रबल होते हैं
(ग) शीघ्र परिवर्तनीय होते हैं
(घ) असहनीय होते हैं

प्रश्न 5.
संवेगों को नियन्त्रित करने का उपाय है
(क) दमन
(ख) रेचन
(ग) मार्गान्तीकरण एवं शोधन
(घ) ये सभी

प्रश्न 6.
संवेग की अभिव्यक्ति होती है
(क) भाषा
(ख) इंगित चेष्टा
(ग) चेहरे का प्रदर्शन
(घ) ये सभी

उत्तर:

  1. (ख) आवेश में आ जाना, भड़क उठना तथा उत्तेजित हो जाना,
  2. (ग) मुखाभिव्यक्ति
  3. (ग) अस्त-व्यस्त हो जाता है
  4. (ग) शीघ्र परिवर्तनीय होते हैं
  5. (घ) ये सभी
  6. (घ) ये सभी

We hope the UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 22 Emotional Development (संवेगात्मक विकास), drop a comment below and we will get back to you at the earliest.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This is a free online math calculator together with a variety of other free math calculatorsMaths calculators
+