UP Board Solutions for Class 10 Hindi रस
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रस
परिभाषा-‘रस’ का अर्थ है–‘आनन्द’ अर्थात् काव्य से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वही ‘रस’ है। इस प्रकार किसी काव्य को पढ़ने, सुनने अथवा अभिनय को देखने पर पाठक, श्रोता या दर्शक को जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं। रस को ‘काव्य की आत्मा’ भी कहा जाता है।
रस के स्वरूप और उसके व्यक्त होने की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लिखा है-‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस सूत्र में स्थायी भाव का स्पष्ट उल्लेख नहीं है; अत: इस सूत्र का पूरा अर्थ होगा कि स्थायी भाव ही विभाव, संचारी भाव और अनुभाव के संयोग से रस-रूप में परिणत हो जाते हैं।
अंग या अवयव-रस के चार अंग होते हैं, जिनके सहयोग से ही रस की अनुभूति होती है। ये चारों अंग या अवयव निम्नलिखित हैं–
- स्थायी भाव,
- विभाव,
- अनुभाव तथा
- संचारी भाव। स्थायी भाव
जो भाव मानव के हृदय में हर समय सुप्त अवस्था में विद्यमान रहते हैं और अनुकूल अवसर पाते ही जाग्रत या उद्दीप्त हो जाते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। प्राचीन आचार्यों ने नौ रसों के नौ स्थायी भाव माने हैं, किन्तु बाद में आचार्यों ने इनमें दो रस और जोड़ दिये। इस प्रकार रसों की कुल संख्या ग्यारह हो गयी। रस और उनके स्थायी भाव निम्नलिखित हैं-
विभाव
जिन कारणों से मन में स्थित सुप्त स्थायी भाव जाग्रत या उद्दीप्त होते हैं, उन्हें विभाव कहते हैं। विभाव के दो भेद होते हैं|
(1) आलम्बन-विभाव-जिस वस्तु या व्यक्ति के कारण किसी व्यक्ति में कोई स्थायी भाव जाग्रत हो जाये तो वह वस्तु या व्यक्ति उस भाव का आलम्बन-विभाव कहलाएगा; जैसे-जंगल से गुजरते समय अचानक शेर के दिखाई देने से भय नामक स्थायी भाव जागने पर ‘शेर आलम्बन-विभाव होगा।
आलम्बन-विभाव के भी दो भेद होते हैं—आश्रय और विषय। जिस व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय तथा जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण आश्रय के चित्त में स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं। इस उदाहरण में व्यक्ति को ‘आश्रय’ तथा शेर को ‘विषय’ कहेंगे।
(2) उद्दीपन-विभाव-जो कारण स्थायी भावों को उत्तेजित या उद्दीप्त करते हैं, वे उद्दीपन- विभाव कहलाते हैं; जैसे—शेर की दहाड़। यह स्थायी भाव ‘भय’ को उद्दीप्त करता है।
अनुभाव
मन में आने वाले स्थायी भाव के कारण मनुष्य में कुछ शारीरिक चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं, वे अनुभाव कहलाती हैं; जैसे–शेर को देखकर भाग खड़ा होना या बचाव के लिए जोर-जोर से चिल्लाना। इस प्रकार उसकी बाह्य चेष्टाओं से दूसरों पर भी यह प्रकट हो जाता है कि उसके मन में अमुक भाव जाग्रत हो गया है।
अनुभाव मुख्यत: चार प्रकार के होते हैं—
- कायिक,
- मानसिक,
- आहार्य तथा
- सात्त्विक
(1) कायिक अनुभाव–आश्रय द्वारा इच्छापूर्वक की जाने वाली आंगिक चेष्टाओं को कायिक, (शरीर से सम्बद्ध) अनुभाव कहते हैं; जैसे—भागना, कूदना, हाथ से संकेत करना आदि।
(2) मानसिक अनुभाव-हृदय की भावना के अनुकूल मन में हर्ष-विषाद आदि भावों के उत्पन्न होने से जो भाव प्रदर्शित किये जाते हैं, वे मानसिक अनुभाव कहलाते हैं।
(3) आहार्य अनुभाव-मन के भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की कृत्रिम वेश-रचना करने को आहार्य अनुभाव कहते हैं।
(4) सात्त्विक अनुभाव-जिन शारीरिक विकारों पर आश्रय का कोई वश नहीं होता, अपितु वे स्थायी भाव के उद्दीप्त होने पर स्वत: ही उत्पन्न हो जाते हैं, वे सात्त्विक अनुभाव कहलाते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं—
- स्तम्भ (शरीर के अंगों का जड़ हो जाना),
- स्वेद (पसीने-पसीने हो जाना),
- रोमांच (रोंगटे खड़े हो जाना),
- स्वर-भंग (आवाज न निकलना),
- कम्प (काँपना),
- विवर्णता (चेहरे का रंग उड़ जाना),
- अश्रु (आँसू),
- प्रलय (सुध-बुध खो बैठना)।
संचारी भाव
आश्रय के मन में उठने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। ये मनोविकार पानी के बुलबुलों की भाँति बनते-मिटते रहते हैं। संचारी भाव को व्यभिचारी भाव के नाम से भी पुकारते हैं। ये स्थायी भावों को अधिक पुष्ट करने में सहायक का कार्य करते हैं। ये अपना कार्य करके तुरन्त स्थायी भावों में ही विलीन हो जाते हैं। प्रमुख संचारी भावों की संख्या तैंतीस मानी गयी है, जो इस प्रकार हैं-
- निर्वेद,
- आवेग,
- दैन्य,
- श्रम,
- मद,
- जड़ता,
- उग्रता,
- मोह,
- विबोध,
- स्वप्न,
- अपस्मार,
- गर्व,
- मरण,
- आलस्य,
- अमर्ष,
- निद्रा,
- अवहित्था,
- उत्सुकता,
- उन्माद,
- शंका,
- स्मृति,
- मति,
- व्याधि,
- सन्त्रास,
- लज्जा,
- हर्ष,
- असूया,
- विषाद,
- धृति,
- चपलता,
- ग्लानि,
- चिन्ता और
- वितर्क।
[विशेष—कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में केवल हास्य और करुण रस ही निर्धारित हैं, किन्तु अध्ययन में परिपक्वता की दृष्टि से श्रृंगार और वीर रस को भी संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है; क्योंकि पद्यांशों का । काव्य-सौन्दर्य लिखने के लिए इनका ज्ञान भी आवश्यक है।]
(1) श्रृंगार रस
परिभाषा–स्त्री-पुरुष के पारस्परिक प्रेम (मिलन या विरह) के वर्णन से हृदय में उत्पन्न होने वाले आनन्द को श्रृंगार रस कहते हैं। यह रसराज कहलाता है। इसका स्थायी भाव ‘रति’ है।
भेद-श्रृंगार रस के दो भेद होते हैं–
- संयोग श्रृंगार तथा
- वियोग (विप्रलम्भ) श्रृंगार।
(1) संयोग श्रृंगार-जब नायक-नायिका के विविध प्रेमपूर्ण कार्यों, मिलन, वार्तालाप, स्पर्श आदि का वर्णन होता है, तब संयोग श्रृंगार होता है; उदाहरण-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नटि जाय।
स्पष्टीकरण-
(1) स्थायी भाव–रति।
(2) विभाव—
- आलम्बन-कृष्ण। आश्रय-राधा।
- उद्दीपन-बतरस लालच।
(3) अनुभाव-बाँसुरी छिपाना, भौंहों से हँसना, मना करना।
(4) संचारी भाव-हर्ष, उत्सुकता, चपलता आदि।
(2) वियोग (विप्रलम्भ) श्रृंगार—प्रबल प्रेम होते हुए भी जहाँ नायक-नायिका के वियोग का । वर्णन हो, वहाँ वियोग श्रृंगार होता है; उदाहरण-
ऊधौ मन न भये दस बीस ।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस ॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागिरहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस ।
सूर हमारें नंदनंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥
स्पष्टीकरण–
(1) स्थायी भाव–रति।
(2) विभाव—
- आलम्बन–कृष्ण। आश्रय-गोपियाँ।
- द्दीपन—उद्धव का योग सन्देश।
(3) अनुभाव-विषाद।।
(4) संचारी भाव-दैन्य, जड़ता, स्मृति आदि।
(2) हास्य रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
परिभाषा-किसी व्यक्ति के विकृत रूप, आकार, वेशभूषा आदि को देखकर हृदय में जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है, वही ‘हास’ कहलाता है। यही ‘हास’ नामक स्थायी भाव विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट होकर हास्य रस कहलाता है; उदाहरण-
बिन्ध्य के बासी उदासी तपोब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतम तीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भै मुनिबूंद सुखारे ॥
छैहैं सिला सब चन्द्रमुखी, परसे पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायक जू करुना करि कानन को पगु धारे॥ [2009]
स्पष्टीकरण–
- स्थायी भाव-हास (हँसी)।
- विभाव—
- आलम्बन–विन्ध्य के वासी तपस्वी। आश्रय-पाठक।
- उद्दीपन-अहिल्या की कथा सुनना, राम के आगमन पर प्रसन्न होना, स्तुति करना।।
- अनुभाव-हँसना।।
- संचारी भाव–स्मृति, चपलता, उत्सुकता आदि।
अन्य उदाहरण—- पूछति ग्रामवधू सिय सों, ‘कहौ साँवरे से, सखि रावरे क़ो हैं ?
- आगे चना गुरुमात दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने ।
स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सौं, चोरी की बान में हौ जू प्रवीने ।।
पोटरी कॉख में चॉपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधारस भीने ।
पाछिली बानि अजौ ने तजौ तुम, तैसेई भाभी के तन्दुल कीन्हे ।।
(3) करुण रस [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
परिभाषा–प्रिय वस्तु तथा व्यक्ति के नाश या अनिष्ट से हृदय में उत्पन्न क्षोभ से ‘शोक’ उत्पन्न होता है। यही शोक नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट हो जाता है तब ‘करुण रस’ दशा को प्राप्त होता है; उदाहरण-श्रवणकुमार की मृत्यु पर उसकी माता की यह दशा करुण रस की निष्पत्ति कराती है–
मणि खोये भुजंग-सी जननी,
फन-सा पटक रही थी शीश,
अन्धी आज बनाकर मुझको,
किया न्याय तुमने जगदीश ?
स्पष्टीकरण–
- स्थायी भाव—शोक।
- विभाव—
- आलम्बन-श्रवण। आश्रय–पाठक।
- उद्दीपन-दशरथ की उपस्थिति।
- अनुभाव-सिर पटकना, प्रलाप करना आदि।
- संचारी भाव-स्मृति, विषाद आदि।
अन्य उदाहरण
(1) अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ ।
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी चुम्बन शून्य कपोल ।।
हाय रुक गया यहीं संसार, बना सिन्दूर अनल अंगारे ।
वातहत लतिका यह सुकुमार, पड़ी है। छिन्नाधार ।।
(2) सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूप सीले बल तेज बखानी ।।
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमि तल बारहिं बारा ।। [2017]
(4) वीर रस
परिभाषा-शत्रु के उत्कर्ष को मिटाने, दोनों की दुर्दशा देख उनका उद्धार करने, धर्म का उद्धार करने आदि में जो उत्साह कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त करता है, वह वीर रस कहलाता है। वीर रस का स्थायी भाव ‘उत्साह’ है; उदाहरण-
मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे ॥
है और की तो बात ही क्या, गर्व मैं करता नहीं।
मामा तथा निज तात से भी, समर में डरता नहीं ॥
स्पष्टीकरण-
- स्थायी भाव–उत्साह।
- विभाव-
- आलम्बन-कौरव। आश्रय-अभिमन्यु।
- उद्दीपन-चक्रव्यूह की रचना।
- अनुभाव-अभिमन्यु की उक्ति।
- संचारी भाव-गर्व, हर्ष, उत्सुकता आदि।
अभ्यास
प्रश्न 1
निम्नलिखित में कौन-सा रस है ? उसका स्थायी भाव एवं परिभाषा लिखिए
(1) बिपति बँटावन बंधु बाहु बिनु करौं भरोसो काको ?
(2) नाना वाहन नाना वेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा ।।
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद–कर कोऊ बहु-बाहू ।।
(3) जो भूरि भाग्य भरी विदित थी निरुपमेय सुहासिनी ।
हे हृदयवल्लभ! हूँ वही अब मैं महा हतभागिनी ।।
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी ।।
है अब उसी मुझ-सी जगत में और कौन अनाथिनी ।।
(4) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फन करिबर कर हीना ।।
अस मम जिवन बन्धु बिन तोही। जौ जड़ दैव जियावइ मोही ।। [2010, 11]
(5) सीस पर गंगा हँसै, भुजनि भुजंगा हँसै ।
हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में ।। [2010, 12, 14]
(6) हँसि हँसि भाजै देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवें हिमाचल के उछाह में। [2011, 12, 13, 15]
(7) हे जीवितेश ! उठो, उठो यह नींद कैसी घोर है।
है क्या तुम्हारे योग्य, यह तो भूमि सेज कठोर है।।
(8) हरि जननी मैं बालक तेरा। काहे न अवगुण बकसहु मेरा ।।
सुत अपराध करै दिन केते। जननी कैचित रहै न तेते ।।
कर गहि केस करे जो घाता। तऊ न हेत उतारै माता ।।
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी। बालक दुःखी-दुःखी महतारी ।।
(9) जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली ।।
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलानी। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं ।। [2014]
(10) ब्रज के बिरही लोग दुखारे।
बिनु गोपाल ठगे से ठाढ़े, अति दुर्बल तन कारे ।।
नंद जसोदा मारग जोवति, निस दिन साँझ सकारे ।
चहुँ दिसि कान्ह कान्ह कहि टेरते, अँसुवन बहत पनारे ।।
(11) ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं ।।
वृंदावन गोकुल वन उपवन सघन कुंज की छाहीं ।।
(12) चहुँ दिसि कान्ह कान्हें कहि टेरत, अँसुवने बहत पनारे ।। [2013]
(13) तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल व्याकुल भारी ।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहिं सौंपेउ मोही ।। [2009, 10]
(14) हा! वृद्धा के अतुल धन, हा! मृदुता के सहारे ।
ही ! प्राणों के परमप्रिय, हा! एक मेरे दुलारे ।
(15) गोपी ग्वाल गाइ गो सुत सब, अति ही दीन विचारे ।
सूरदास प्रभु बिनु यौं देखियत, चंद बिना ज्यौं तारे ।।
(16) प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ।
दु:ख जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है ।।
लख मुख जिसका आज लौं जी सकी हूँ, |
वह हृदय हमारा नैन- तारा कहाँ है ।। [2011]
(17) करि विलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाय बखानी ।।
सुन विलाप दुखहूँ दुख लागा। धीरजहूँ कर धीरज भागा ।।
(18) कौरवों का श्राद्ध करने के लिए।
या कि रोने को चिता के सामने।
शेष अब है रह गया कोई नहीं,
एक वृद्धा एक अन्धे के सिवा।। [2010, 12, 14]
(19) पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकले धरनि खसि परी।।
जुबति बूंद रोवत उठि धाई। तेहि उठाइ रावन पहिं आई ।। [2012]
(20) राम-राम कहि राम कहि, राम-राम कहि राम ।
तन परिहरि रघुपति विरहं, राउ गयउ सुरधाम् ।। [2012]
(21) मम अनुज पड़ा है, चेतनाहीन होके,
तरल हृदय वाली जानकी भी नहीं है ।
अब बहु दु:ख से अल्प बोला न जाता,
क्षण भर रह जाता है न उद्विग्नता से ।। [2013]
(22) बिलपहिं बिकलदास अरु दासी। घर घर रुदन करहिं पुरवासी ।
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू ।। [2018]
उत्तर
(1) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(2) रस — हास्य, स्थायी भाव – शोक।
(3) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(4) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(5) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(6) रस — हास्य, स्थायी भाव – हास।
(7) रस – करुण, स्थायी भाव – शोक।
(8) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(9) रस — हास्य, स्थायी भावे – हास।
(10) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(11) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक!
(12) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(13) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(14) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(15) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(16) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(17) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(18) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(19) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(20) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(21) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
(22) रस — करुण, स्थायी भाव – शोक।
[ संकेत-परिभाषा के लिए सम्बन्धित रस की सामग्री का अध्ययन करें।]
प्रश्न 2
करुण रस का स्थायी भाव बताते हुए एक उदाहरण दीजिए। [2011]
या
करुण रस की परिभाषा लिखिए और उसका एक उदाहरण दीजिए। [2011, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
या
करुण रस की परिभाषा सोदाहरण लिखिए।
उत्तर
[संकेत-करुण रस के अन्तर्गत दिये गये विवरण को पढ़िए।]
प्रश्न 3
हास्य रस की परिभाषा लिखिए और उसका स्थायी भाव भी बताइए। [2011]
या
हास्य रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 17]
या
हास्य रस का लक्षण और उदाहरण दीजिए।
या
हास्य रस का स्थायी भाव लिखिए तथा एक उदाहरण बताइट। [2009, 11]
उत्तर
[ संकेत-हास्य रस के अन्तर्गत दिये गये विवरण को पढ़िए।]
प्रश्न 4
निम्नांकित पद्यांश में वर्णित रस का उल्लेख करते हुए उसका स्थायी भाव बताइए-
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँईं परै, स्याम हरित दुति होय ॥
उत्तर
प्रस्तुत दोहे के एक से अधिक अर्थ हैं। एक अर्थ के आधार पर इसे भक्ति रस का दोहा माना जाता है तथा दूसरे अर्थ के आधार पर श्रृंगार रस का। भक्ति रस का स्थायी भाव है—देव विषयक रति तथा शृंगार रस का स्थायी भाव है-रति।
[ संकेत–उपर्युक्त दोनों ही रस पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]
प्रश्न 5
‘भक्ति रस’ और ‘वात्सल्य रस’ में क्या अन्तर है ? कोई एक उदाहरण लिखिए।
या
वात्सल्य रस की उदाहरण सहित परिभाषा लिखिए।
उत्तर
देवताविषयक रति अर्थात् भगवान् के प्रति अनन्य प्रेम ही विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर भक्ति रस में परिणत हो जाता है;
उदाहरण-
पुलक गात हिय सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥ पुत्र, बालक, शिष्य, अनुज आदि के प्रति रति को भाव स्नेह कहलाता है। इसका वत्सल नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर वात्सल्य रस में परिणत हो जाता है; उदाहरण-
जसोदा हरि पालने झुलावै ।
हलराउँ, दुलरावें, मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावें ॥
[संकेत-उपर्युक्त दोनों ही रस पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं हैं।]
प्रश्न 6
सिसु सब राम प्रेम बस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने ।।
निज-निज रुचि सब लेहिं बुलाई। सहित सनेह जायँ दोउ भाई ।।
उपर्युक्त चौपाई में निहित रस तथा उसका स्थायी भाव लिखिए।
उत्तर
प्रश्न में दी गई चौपाई में श्रृंगार रस है, जिसका स्थायी भाव ‘रति’ है।
[संकेत-यह रस पाठ्यक्रम में निर्धारित नहीं है।
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